Upgrade Jharkhand News. अब कोई न्यूज सामान्य होता ही नहीं । हर पल , हर चैनल पर 'एक्सक्लूसिव और बिग ब्रेकिंग ' का जमाना आ गया है। कहीं कोई उत्सव होते नहीं मिलते , बस महोत्सव ही हो रहे हैं। भारतीय टीवी न्यूज़ चैनलों पर समाचार नहीं, सिर्फ़ "ब्रेकिंग न्यूज़" का बोलबाला है। हर खबर इतनी "बिग" और "ब्रेकिंग" होती है कि शायद न्यूज़रूम में कोई टूटी कुर्सी भी अगर दिखा दी जाए, तो एंकर जी उसे "देश की अर्थव्यवस्था पर चोट!" की टैग लाइन लगाकर बेच दें। यदि कैमरामैन किसी पेड़ पर चढ़ रही गिलहरी को फिल्मा ले तो कि चैनल इसे "स्पेशल इन्वेस्टिगेशन" का मसला बना सकता है "क्या गिलहरी का पेड़ चढ़ना पड़ोसी देश की साजिश है? जानिए हमारे एक्सपर्ट से, जो पिछले 20 साल से गिलहरियों पर रिसर्च कर रहे हैं।" खबर के अंत में केवल प्रश्न वाचक चिन्ह ही तो लगाना होता है, फिर जो लिखना हो बेधड़क लिख दो,उस प्रश्न वाचक चिन्ह से कानून पत्रकारिता के साथ होता है।
असल में, "ब्रेकिंग न्यूज़" का मतलब अब यह हो गया है कि चीख चीख कर टी आर पी बटोरते एंकर जी का गला सूखने से पहले खबर को ब्रेक होना ही पड़ेगा। युवा एंकर को पूरा अधिकार होता है कि वह वरिष्ठ से वरिष्ठ अनुभवी बुजुर्ग स्टूडियो में आमंत्रित विषय विशेषज्ञ को बोलते हुए रोककर बिग ब्रेकिंग न्यूज़ में जो चाहे वह खबर दिखा सकता है। टी वी पत्रकारों को उनके कोर्स में एंकर की आवाज़ में वह जुनून भरने की कला सिखाई जाती है जिससे वे दर्शक को रिमोट किनारे रखकर उनके साथ बने रहने पर मजबूर कर सकें ।एक्सक्लूसिविटी का नशा खबरों के बाजार में खूब बिक रहा है। यह खबर "हमारे पास है... बस हमारे पास!" हर चैनल की यही रट लगी रहती है । ये अलग बात है कि दस सेकेंड के अंतर से उस एक्सक्लूजीव न्यूज के व्यूज हर चैनल पर हो जाते हैं। बारिश तक अब बिग ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है। एंकरों की प्रस्तुति अब न्यूज़ बुलेटिन नहीं, बल्कि एक सस्पेंस थ्रिलर सी होती है। उनकी आंखों में वह चमक, गले में वह खिंचाव, और हाथों के इशारे ऐसे कि लगे आधे समय वे समाचार पढ़ रहे हैं, आधे समय किसी से लड़ रहे हैं।
कभी-कभी तो लगता है कि एंकर साहब खुद उत्सुक हैं कि "क्या अगले एडवरटाइजमेंट ब्रेक तक यह गिलहरी पेड़ से उतरेगी ?" और यदि गिलहरी उतर गई, तो चैनल श्रेय लेने में देर नहीं करते "हमारे चैनल के दबाव में गिलहरी ने आत्मसमर्पण किया!" आजकल न्यूज़ रूम्स में काम करने का नियम है, "खबर छोटी हो तो उसे बड़ा बनाओ, बड़ी हो तो उसे महा खबर बना दो।" मिसाल के तौर पर, अगर किसी गली में सड़क पर एक गड्ढा है, तो चैनल उसे "नागरिकों के जीवन पर मंडराता खतरा!" बताएगा। फिर एक्सपर्ट पैनल बैठाया जाएगा जो डिस्कस करेगा "क्या यह गड्ढा देश की अखंडता के लिए खतरा है?" दूसरा एक्सपर्ट गंभीर होकर कहेगा: "मेरी रिसर्च कहती है कि इस गड्ढे में पडोसी देश का हाथ हो सकता है।" तीसरा विशेषज्ञ आंखें घुमाकर बोलेगा: "गड्ढे की गहराई मापने के लिए हमें ISRO की मदद लेनी चाहिए।" दर्शकों को "अब सामान्य खबरों पर यकीन ही नहीं रहा!"
इस अति नाटकीयता का असर यह हुआ है कि अब यदि कोई चैनल गंभीरता से खबर सुनाए कि, "आज संसद का सत्र शांतिपूर्वक संपन्न हुआ," तो लोग सोचते हैं: "ज़रूर कोई ब्रेकिंग न्यूज़ छुपाई जा रही है!" और वे सत्य की तलाश में रिमोट से अगले चैनल के सफर पर निकल पड़ते हैं।"थोड़ा ठहरिए, थोड़ा सोचिए...प्रस्तुति के इस उन्माद के बीच समाधान सिर्फ़ एक ही है , दर्शकों का सचेत होना। अगली बार जब कोई एंकर चिल्लाए, "ब्रेकिंग: आकाश से गिरी बिजली !", तो हंसकर टीवी बंद कर दीजिए और खिड़की से बाहर देखिए। और खुद सत्य की तलाश कीजिए । शायद टीवी चैनलों को एक "ब्रेकिंग न्यूज़ डिटॉक्स कैंप" में भेजना चाहिए, जहां उन्हें सिखाया जाए कि "बारिश हुई" को ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं, बल्कि मौसम विज्ञान की खबर कहते हैं। पर जब तक ऐसा नहीं होता, हम दर्शकों का कर्तव्य है कि इन "एक्सक्लूसिव तूफानों" के बीच अपना संयम न खोएं। वरना, अगली ब्रेकिंग न्यूज़ यह हो सकती है "दर्शकों का सरदर्द ! " विवरण जानने विवेक रंजन श्रीवास्तव
के लिए बने रहिए हमारे साथ!"
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