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Bhopal. पुस्तक चर्चा-दाढ़ी से बड़ी मूंछ, Book Discussion-Moustache is bigger than Beard


Upgrade Jharkhand News. "दाढ़ी से बड़ी मूँछ " किताब का शीर्षक ही सहज ध्यानाकर्षक है। हरिशंकर परसाई जी ने शीर्षक के बारे में कई महत्वपूर्ण व्यंग्यात्मक बातें लिखी हैं। परसाई लिखते है कि "विषय पर निबंध का शीर्षक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पाठकों को सामग्री के बारे में पहले से ही सूचित करता है और उनमें उत्सुकता पैदा करता है।" "शीर्षक निबंध, जिसके आधार पर पूरी पुस्तक का नामकरण किया गया है, आज के इस ज्वलन्त सत्य को उद्घाटित करता है कि सभी लोग किसी-न-किसी तरह शॉर्टकट के चक्कर में हैं"। प्रियदर्शी खैरा जी की कृति पर चर्चा करते हुये , परसाई जी को उधृत करने का आशय मात्र इतना है कि बढ़िया गेटअप , हास्य प्रमुदित करता , शीर्षक को परिभाषित करता आवरण चित्र और संग्रहित निबंधो को शार्टकट स्वरूप में ध्वनित करता शीर्षक "दाढ़ी से बड़ी मूँछ " पाठक को यह समझाने के लिये पर्याप्त है कि भीतर के पृष्ठों पर उसे हास्य सम्मिश्रित व्यंग्य पढ़ने मिलेगा।



अनुक्रमणिका में  "गज़ब की सकारात्मकता",  भक्त से भगवान,  ट्रेन टिकट और चुनाव टिकट, चन्द्रमा का पृथ्वी भ्रमण, नेता, अफसर और देश, एक एंकर की उदय कथा,  चमत्कार को नमस्कार है, अथ आत्मकथा माहात्म्य , टोटका-माहात्म्य, अथ चरण पादुका माहात्म्य, सचिवालय-महिमा पुराण, खादी और सपने, सब जल्दी में हैं,  छेदी काका बनाम सुक्खन भैया, आयकर, सेवाकर और प्रोफेसर,  त्रिया भाग्यम्, पुरुषस्य चरित्रम्, योग, संयोग और दुर्योग , पी पी पी मोड में श्मशान घाट, जैसे शीर्षक पढ़ने के बाद कोई भी पाठक जो व्यंग्य में दिलचस्पी रखता है किताब में रुचि लेने से स्वयं को रोक नहीं पायेगा। इन शीर्षकों से यह भी स्पष्ट होता है कि खैरा जी ने हिन्दी वांग्मय तथा साहित्य खूब पढ़ा है , और भीतर तक उससे प्रभावित हैं , तभी अनेक रचनाओं के शीर्षको में अथ कथा, महात्म्य , जैसे प्रयोग उन्होने किये हैं। ये रचनायें पढ़ने पर समझ आता है कि उन्होने विषय का पूरा निर्वाह सफलता से किया है।



पन्ने अलटते पलटते मेरी नजर "हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय" , एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम ,गजब की सकारात्मकता पर ठहर गई । खैरा जी लिखते हैं ..." हिंदुस्तानी गजब के सकारात्मक हैं। हम चर्चा क्रांति में विश्वास रखते हैं, फिर जो होता है उसे ईश्वर की इच्छा मानकर यथारूप में स्वीकार कर लेते हैं। अब यदि पुत्री ने जन्म लिया तो लक्ष्मी आ गई, और पुत्र हुआ तो कन्हैया आ गए। यदि संतान पढ़ लिखकर बाहर चली गई तो खानदान का नाम रोशन कर दिया, यदि घर पर रह गई तो अच्छा हुआ, नहीं तो घर कौन संभालता। " आगे वे लिखते हैं .. हमारे गाँव में एक चिर कुंवारे थे, जहाँ खाना मिल जाता, वहीं खा लेते, नहीं मिलता तो व्रत रख लेते। पूछने वालों को व्रत के लाभ भी गिना देते, जैसे कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए उपवास जरूरी है। हमारे मनीषियों ने सप्ताह के सात दिन के नाम किसी न किसी देवी देवता के नाम पर ऐसे ही नहीं रखे हैं, उसके पीछे दर्शन है, व्रत के साथ-साथ उनकी आराधना भी हो जाती है, इस लोक का समय कट जाता है और परलोक भी सुधर जाता है। अगर इसी बीच उन्हें भोजन मिल जाता तो ऊपर वाले की कृपा और आशीर्वाद मानकर ग्रहण भी कर लेते थे। मतलब हर बात में सकारात्मक।



इसी तरह , कोरोना काल में लिखे गये किताब के शीर्षक व्यंग्य "दाढ़ी से बड़ी मूँछ " से अंश देखिये ... मैंने कुर्सी पर बैठते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, "क्यों भई, बरसात तो है नहीं, पर तुम छत के नीचे बरसाती पहने क्यों बैठे हो? क्या छत में लीकेज है?""सर, आप नहीं समझोगे, कोरोना अभी गया नहीं, ये सब कोरोना से आप की सुरक्षा के लिए है। कोविड काल में सब शरीर की मरम्मत में लगे हैं, छत की मरम्मत अगले साल कराएँगे, धंधा मंदा है।" उसने उत्तर देते हुए हजामत करना प्रारंभ कर दिया। तभी मेरी दृष्टि सामने टंगी दर सूची पर गई तो होश उड़ गए, मैंने पूछा, "भाई साहब, पहले हजामत के सौ रुपए लगते थे और अब तीन सौ !"सर, आप की सुरक्षा के लिए, हजामत के तो सौ रुपए ही हैं, दो सौ रुपए पीपीई किट के हैं। अस्पताल वाले हजार जोड़ते हैं, आप कुछ नहीं कहते, हमारे दो सौ भी आपको ज्यादा लगते हैं।" उसने उत्तर दिया। मैं क्या करता अब उठ भी नहीं सकता था, आधी हजामत हो चुकी थी। हजामत करते करते उसने पूछा, "सर, आपके पिताजी हैं?" मैंने उत्तर दिया, "नहीं'।" "फिर तो आप मुंडन करा लेते तो अच्छा रहता, छः माह के लिए फ्री, आपके भी पैसे बचते, और हम भी आपके उलझे हुए बालों में नहीं उलझते।" वह मुस्कुराते हुए बोला।



इतना पढ़कर पाठक समझ रहे होंगे कि व्यंग्य में हास्य के संपुट मिलाना , रोजमर्रा की लोकभाषा में लेखन , सहज सरल वाक्य विन्यास होते हुये भी चमत्कृत करने वाली लेखन शैली , व्यंग्य लेखन के विषय का चयन तथा उसका अंत तक न्यायिक निर्वाह प्रियदर्शी खैरा जी की विशेषता है । वे स्तंभ लेखन कर चुके हैं। कविता , गजल , व्यंग्य विधाओं में सतत लिखते हैं , कई साहित्यिक संस्थाओ से संबद्ध हैं। अर्थात उनका अनुभव संसार व्यापक है। श्मशान को पी पी पी मोड पर चला कर उसका विकास करने जैसे व्यंग्यात्मक विचारों पर कलम चलाने का माद्दा उनमें है। शब्द अमूल्य होते हैं यह सही है , किन्तु "दाढ़ी से बड़ी मूंछ" में मुझे पुस्तक के अपेक्षाकृत अधिक मूल्य के अतिरिक्त सब कुछ बहुत बढ़िया लगा। मैंने किताब को ई स्वरूप में पढ़ा है। मुझे भरोसा है कि इसे प्रिंट रूप में काउच में लेटे हुये चाय की चुस्की के साथ पढ़ने में ज्यादा मजा आयेगा। किताब अमेजन , फ्लिपकार्ट आदि पर सुलभ है तो देर किस बात की है , यदि इस पुस्तक चर्चा से आपकी उत्सुकता जागी है तो किताब बुलाईये और पढ़िये। आपकी व्यय की गई राशि से ज्यादा आनंद मिलेगा यह सुनिश्चित है। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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