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Bhopal. व्यंग्य-स्वतंत्रता और राष्ट्र-विरोधी नैरेटिव में अंतर, Satire- the difference between freedom and anti-national narrative


Upgrade Jharkhand News. सोशल मीडिया में खालिस भारतीय 'विदेशी भक्त' और उनके दोहरे चरित्र देखने लायक हैं। भारत के डिजिटल जंगल में इस नई प्रजाति का उदय हुआ है , जिनकी ज़ुबान  'वैश्विक नागरिकता' का राग अलापती है, पर भारत की आस्तीन में छुपा उनका 'घर' किसी और ही महाद्वीप का पता बताता है। ये वो शख़्सियतें हैं जो भारत की मिट्टी में पलती-बढ़ती हैं, पर उनकी नज़रें हमेशा विदेशी "स्टैंडर्ड्स" के पैमाने से ही देश को नापती हैं। अगर कोई भारत सरकार की आलोचना करे, तो ये उसकी पीठ थपथपाने को तैयार मिलते हैं।       यदि सरकार के समर्थन में कुछ लिख दिया तो यह ब्रिगेड भक्त का टाइटिल देने में देर नहीं लगाती , इस तरह वे स्वयं को कथित सेक्युलर साबित करने में जुट जाते हैं। विदेशी सरकारों के मुंह से भारत पर कोई टिप्पणी निकले, तो ये उसे "सच्चाई का आईना" घोषित कर देते हैं।  आस्तीनों में बसे इनके 'घर' की नींव तो शायद , न्यूयॉर्क या जेनेवा की मिट्टी से बनी है!  इनके रहने वाली बांबी भीतर ही भीतर पाकिस्तान और बंगलादेश तक जुड़ी हुई है।



इनका व्यंग्य-शस्त्रागार बेहतरीन होता है। सरकार ने कोई नीति बनाई? तुरंत ट्विटर पर ट्रेंड करो: "अरे, स्वीडन में ऐसा होता तो..."। किसी भारतीय संस्था ने कोई उपलब्धि हासिल की? " ..पर सिंगापुर में तो ये सालों पहले..."। ये लोग "कॉम्पेयर एंड डिस्पेयर" के मास्टर हैं। इन्हें पता ही नहीं कि स्वीडन की आबादी भारत के एक छोटे राज्य जितनी है, या सिंगापुर का भूगोल चंडीगढ़ से छोटा है। पर इन्हें यथार्थ से क्या लेना-देना? इनका काम  "वर्चुअल एक्सपर्ट" बनकर अपने ही देश को लताड़ना है।   ये अभिव्यक्ति की "आज़ादी" की दुहाई देते हैं, पर इनकी परिभाषा में आज़ादी सिर्फ़ सरकार की आलोचना करने तक सीमित है। अगर कोई इनसे पूछे, "भई, आप जिस देश को आइडियल मानते हो, वहाँ तो पुलिस प्रोटेस्टर्स पर घोड़े दौड़ाती है!" तो जवाब मिलता है "वो अलग बात है, वहाँ की सरकार 'परफेक्ट' है।" यानी, इनके लिए आलोचना का अधिकार सिर्फ़ भारत के लिए रिज़र्व्ड है। बाकी दुनिया?, उन्हें तो "समझने की ज़रूरत" है!  ये विदेशी मीडिया के प्रति 'हैलो प्रिंसिपल' सिंड्रोम से ग्रस्त होते हैं।



ये अंग्रेजी जानते हैं, विदेशी मीडिया के प्रति बेहिसाब लगाव रखते हैं।  किसी विदेशी मीडिया ने भारत पर कोई रिपोर्ट छापी, तो ये उसे "गॉस्पल" मानकर शेयर करते हैं। पर अगर भारतीय मीडिया विदेशों में हो रहे अत्याचारों की बात करे, तो ये उसे "प्रोपेगैंडा" बताते हैं। इनके मुताबिक़, "ऑब्जेक्टिविटी" की मोहर  सिर्फ़ विदेशी चैनलों पर लगती है। और हाँ, अगर कोई भारतीय इस दोहरे मापदंड पर सवाल उठाए, तो वह "अंधभक्त" कहा जाता है!  इनके ट्वीट्स और पोस्ट्स देखकर लगता है मानो भारत की हर समस्या का समाधान विदेशी सलाहकारों के पास है। गंगा प्रदूषण? "यूरोपियन एक्सपर्ट्स को बुलाओ!" किसान आंदोलन? "यूएन को हस्तक्षेप करना चाहिए!" पर इन्हें यह नहीं सूझता कि जिन देशों को ये "रोल मॉडल" मानते हैं, उन्होंने अपनी समस्याएँ खुद सुलझाई थीं। स्वदेशी समाधानों पर भरोसा? अरे, वो तो "रिग्रेसिव" है! वेस्टर्न वैलिडेशन  "चाटुकारिता" का नया अवतार , ये लोग भारत के "सॉफ्ट पावर" पर तब तक शक करते हैं, जब तक कि कोई विदेशी उसे वैलिडेट न कर दे। 

      योग? 

      तब तक "अंधविश्वास" है, जब तक यूनेस्को ने उसे विरासत न घोषित किया। 

    आयुर्वेद? 

"झाड़-फूँक" है, जब तक हॉलीवुड सेलिब्रिटीज़ ने उसकी तारीफ़ न कर दी। 

      इन्हें लगता है कि भारत की प्रशंसा का अधिकार सिर्फ़ विदेशियों के पास है। जैसे कि अपनी माँ की तारीफ़  पड़ोसी के मुँह से निकलना ज़रूरी हो!  हो सकता है कि इन "आस्तीन के सांपों" का इरादा देश का भला करना हो, पर इनकी रणनीति संदेह पैदा करती है। ये भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता और राष्ट्र-विरोधी नैरेटिव में फ़र्क होता है। समस्या यह नहीं कि ये सरकार की आलोचना करते हैं, समस्या यह है कि ये एजेंडा प्रेरित टूल किट से अंध प्रवक्ता बनकर , फिर देश की आस्तीन में घुस जाते हैं। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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