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योग और आनंद की प्रति मूर्ति योगेश्वरी आनंदमयी माताजी : सुनील कुमार दे, Yogeshwari Anandamayi Mataji, the embodiment of yoga and bliss: Sunil Kumar De


 
माताजी आश्रम की संस्थापिका योगेश्वरी माँ की 161 वी जयंती पर विशेष

हाता। जमशेदपुर शहर से दक्षिण में 20 किलोमीटर दूर पोटका प्रखंड के अंतर्गत हाता गांव आज अपरिचित नाम नहीं है जंहा आज हर धर्म,हर जाति तथा हर समुदाय का केंद्र स्थल हैं, जंहा दो दो आश्रम है एक योगेश्वरी आनंदमयी माताजी आश्रम और दूसरा प्राचीन गुरुकुल रामगढ़ आश्रम।जब हाता प्रायः जंगल था, लोग दिन में  जंहा पर जाने से डरते थे उसी समय सन 1938 में माताजी आश्रम की स्थापना की थी महान साधिका,वाक सिद्धा,रामकृष्ण परमहंस की मंत्र शिष्या श्रीश्री योगेश्वरी आनंदमयी माताजी।

श्रीश्री योगेश्वरी आनंदमयी माताजी का जन्म बांग्लादेश के ढाका शहर में बंगला के 14 आश्विन इंग्रेजी 1862 ईसवी के विजया दशमी के दिन एक प्रतिष्टित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। योगेश्वरी माँ बचपन से ही धर्म परायण महिला थी।भगवान के प्रति अगाध निष्ठा और भक्ति थी। उस समय बाल विवाह प्रथा थी।जब उनके पिता माता 12 साल के उम्र में उनको विवाह देना चाह रहे थे तो एकदिन वे चुपचाप घर से भाग गई।

वे विवाह करना नहीं चाहती थी। गुरु के खोंज में इधर उधर भटकते भटकते अंत में कोलकाता के दक्षिनेश्वर धाम पहुंच गई।उस समय भगवान रामकृष्ण देव वहां लीला कर रहे थे। नहवत में शक्ति श्वरूपिणी रामकृष्ण देव की धर्म पत्नी मा सारदा देवी रहती थी। योगेश्वरी माँ माँ सारदा के स्मरण में चली गईं और माँ की सेवा करनी लगी। माँ शारदा के साथ अष्ठ सखी रहती थी उनमें से योगेश्वरी माँ एक थी। रामकृष्ण देव उनको तारा नाम से पुकारते थे। माँ शारदा देवी ने ही उनको ठाकुर जी से दीक्षा दिलाई थी। योगेश्वरी माँ गुप्त रूप से साधना और तपस्या करती थी। रामकृष्ण देव जी के देहांत के बाद उनके सभी त्यागी शिष्य और शिष्याओं ने साधना और तपस्या के लिए भारत के विभिन्न धर्म स्थानों में चले गए।

योगेश्वरी माँ ने ठाकुरजी की एक फोटो,त्रिशूल,कंबल और कमंडल लेकर साधना के लिए चित्रकूट पर्वत चली गई।12 बर्ष तपस्या के पश्चात सिद्धि प्राप्त की और अलौकिक आध्यात्मिक शक्ति की अधिकारिणी बनी। उसके बाद ठाकुर रामकृष्ण देव का आदेश अनुसार धर्म और नाम प्रचार के लिए बिहार में अधुना झारखंड में आई। राजनगर प्रखंड में स्थित चावड़ा पहाड़ के ऊपर एक विशाल तालाब है, उसी तालाब की ऊपर अपनी कुटिया बनाई।उस चावड़ा पहाड़ उससमय काफी दुर्गम था,हिंस्र जंतु जानवर रहते थे। स्थानीय लोग वहां जाने के लिए उनको माना किया क्यों कि उस समय माताजी काफी जवान थी। एक जवान लड़की के लिए उस पहाड़ में रहना ठीक नहीं था,  लेकिन माताजी किसी की बात नहीं सुनी।

प्रभु रामकृष्ण का नाम लेकर एकेलि वहां कुटिया बनाकर रहने लगी और तपस्या करने लगी। यह बात सोचने से भी डर लगता है, लेकिन भगवान से समर्पित साधिका के लिए न डर,न भय, न चिन्ता थी। माताजी जी ने यज्ञ करती थी,12 साल तक वह यज्ञ कभी बुझती नहीं थी। धीरे धीरे माँ की प्रचार होने लगी। भक्त लोग जुड़ते गए। माँ की महिमा,उनकी शक्ति और दिब्य जीवन कहानी प्रचार होने लगी। माँ के आंगन में बाघ,भालू,गाय, बकरी,सांप एकसाथ रहते थे।वे सभी हिंसा छोड़ चुके थे। सर मांझी,नर मांझी,भानु मार्डी,चंद्र मोहन महतो आदि माँ के अनेक भक्त बन गए।पटना के बड़े घर की बेटी रानुमा भी  माताजी के दिव्य जीवन से प्रेरित होकर घर,परिवार छोड़कर माताजी से दीक्षा लेकर संन्यासिन बन गई।

उसके बाद चाईबासा के धनाढ्य ब्यक्ति आशुतोष हुई उनकी माताजी अतुल सुंदरी हुई और उनकी धर्म पत्नी योगेश्वरी मा के सानिध्य में आये। माताजी का आशीर्वाद से आशुतोष हुई पुत्र संतान लाभ किया। जब माताजी का 12 का साधना चावरा पहाड़ में समाप्त हो गई तब  माताजी आशुतोष हुई को एक आश्रम बनाने के लिए कही। माताजी के आदेश अनुसार तब आशुतोष हुई ने ठाकुर जी का नाम प्रचार और महिलाओं के उत्थान  तथा नारी जागरण के लिए हाता में  जमींदार नंदलाल पाल से करीब पांच एकड़ जमीन खरीद कर एक छोटा सा आश्रम का निर्माण किया।सन 1938 योगेश्वरी माँ की करकमलों से उस आश्रम की प्रतिष्ठा हुई।

योगेश्वरी माँ के अनुसार आश्रम का नाम श्रीश्री योगेश्वरी आनंदमयी माताजी आश्रम पड़ा। माँ योगेश्वरी अपने हाथों से भगवान रामकृष्ण देव,माँ शारदा देवी और स्वामी विवेकानंद जी की नित्य पूजा सेवा आश्रम में  शुरू की। इसके अलावे बिभिन्न धार्मिक,सामाजिक,नारी कल्याण और समाजसेवा का कार्य प्रारंभ की। माँ योगेश्वरी सन 1958 ईसवी में बांग्ला 7 चैत्र 1364 को रामकृष्ण धाम में चली गई। उसके बाद उनकी संन्यासी शिष्या रानुमा माताजी आश्रम का द्वितीय माताजी बनी।योगेश्वरी माँ त्याग और आनंद की प्रतिमूर्ति थी।

वे वाक सिद्धा थी जिसको जो आशीर्वाद दे देती थी वह फलवती होती थी।  प्रचंड तेज और साहस की पराकाष्ठा थी।मातृत्व उनकी चारित्रिक विशेषता थी। उन्होंने सभी भक्तजनो को अपना संतान मानती थी, स्नेह देती थी और सेवा करती थी। विजया दशमी के दिन उन महान साधिका तथा माताजी आश्रम की संस्थापिका योगेश्वरी आनंदमयी माँ का पवित्र जन्म दिन है। इस पावन अवसर पर उन महान साधिका के चरणों में कोटि कोटि नमन करता हूँ और माँ से आशीर्वाद की कामना करता हूं।


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