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भीतर का अंधकार दूर हो यही दीपोत्सव का संदेश, The message of Deepotsav is to remove inner darkness.


मुंबई। दीपावली का पर्व भारतीय सनातन परम्परा का लौकिक और अलौकिक पर्व माना गया है। लौकिक स्वरूप में जहां खानपान,वैभव और उत्साह का वातावरण इस पर्व को प्रमाणिकता प्रदान करता है। वहीं अलौकिक रूप में यह पर्व आत्मोकर्ष का प्रमुख पर्व है। लौकिक और अलौकिक के बीच तंत्र साधकों के लिए परालौकिक स्वरूप भी इस पर्व का है। लेकिन जन सामान्य के लिए लौकिक और अलौकिक इन दो रूपों में ही इसकी महत्ता है। सनातन धर्म की वैष्णव परम्परा में भगवान राम का अयोध्या आगमन उत्सव लौकिकता तो श्रमण परम्परा (जैन धर्म) में भगवान महावीर का निर्वाण अलौकिकता का स्वरूप है।

कार्तिक अमावस्या की रात्रि में भगवान महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इस दिन महावीर का निर्वाणोत्सव मनाया जाता है। अपनी आयु के 72 वें वर्ष में जब महावीर पावापुरी नगरी के मनोहर उद्यान में चातुर्मास के लिए विराजमान थे।  चतुर्थकाल पूरा होने में तीन वर्ष और आठ माह बाकी थे। 

तब कार्तिक अमावस्या के दिन सुबह स्वाति नक्षत्र के दौरान भगवान महावीर अपने औदारिक शरीर से मुक्त होकर मोक्षधाम को प्राप्त हो गए। उस समय इंद्रादि देवों ने आकर भगवान महावीर के शरीर की पूजा की और पूरी पावा नगरी को दीपकों से सजाकर प्रकाशयुक्त कर दिया। 2550 वर्ष भगवान महावीर को निर्वाण हुए हो गये है। उस समय से आज तक यही परंपरा जैन धर्म में चली आ रही है। प्रतिपदा के दिन भोर में महावीर के प्रथम शिष्य गौतम को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इससे दीपोत्सव का महत्व जैन धर्म में और बढ़ गया। 

भगवान महावीर अरिंहत है, और अरिहंत को संसार में गुरु के रूप में माना जाता है। भगवान महावीर के सिद्द गमन को तब विद्वजनों ने ज्ञान दीप का राज होना (बुझना) माना और मिट्टी के दीप प्रज्जवलित कर संसार को आलोकित करने का प्रयास किया था। भगवान महावीर ने दीपावली वाले दिन मोक्ष जाने से पहले आधी रात तक जगत के कल्याण के लिए आखिरी बार उपदेश दिया था, जिसे 'उत्तराध्यान सूत्र' के नाम से जाना जाता है। इस ग्रंथ में सर्वाधिक बार कोई वाक्य आया है तो वह है ‘समयं गोयम ! मा पमायए’ गौतमस्वामी को जो कि भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे, प्रधान गणधर थे, उनको संबोधित करते हुए यह प्रेरणा महावीर ने दी कि आत्मकल्याण के मार्ग में चलते हुए क्षण भर के लिए भी तू प्रमाद मत कर।

ढाई हजार वर्ष पहले दी गई वह प्रेरणा आज भी महत्वपूर्ण है। प्रमाद अज्ञानता की ओर ले जाता है।ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया- 'नाणं पयासयरं' अर्थात ज्ञान प्रकाशकर है। इसीलिए ज्ञान को प्रकाश और अज्ञान को अंधकार की उपमा दी जाती है । दीपक हमारे जीवन में प्रकाश के अलावा जीवन जीने की सीख भी देता है, दीपक हमारे जीवन की दिशा को उर्ध्वगामी करता है, संस्कारों की सीख देता है, संकल्प की प्रेरणा देता है और लक्ष्य तक पहुंचने का माध्यम बनता है। दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है, जब भीतर का अंधकार दूर हो। अंधकार जीवन की समस्या है और प्रकाश उसका समाधान। जीवन जीने के लिए सहज प्रकाश चाहिए। प्रारंभ से ही मनुष्य की खोज प्रकाश को पाने की रही।

उपनिषदों में भी कहा गया है- ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय॥‘ अर्थात-मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। इस प्रकार हम प्रकाश के प्रति, सदाचार के प्रति, अमरत्व के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए आदर्श जीवन जीने का संकल्प करते हैं। आज के समय में चारों ओर फैले अंधेरे ने मानव-मन को इतना कलुषित किया है कि वहां किसी दिव्यता, सुंदरता और सौम्यता के अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं बचती। परंतु अंधकार को चीरकर स्वर्ण-आभा फैलाती प्रकाश की प्राणशक्ति और उजाले को फैलाते दीपक की जिजीविषा अद्‍भूत है।

दीपावली का संदेश जितना अध्यात्मिक है उतना ही भौतिक भी है। राम, महावीर, दयानंद सरस्वती, नानकदेव आदी कई महापुरुषों के जीवन की विशिष्ट घटनाएँ इस पर को अलौकिक बनाती है। और सभी के ज्ञान का सम्मान दीपक के रूप में किया जाना सभी के आदर्षों को स्वीकार कर जीवन को उत्साह पूर्वक जीना इस पर्व को भौतिक रूप से समृद्ध करता है।(विभूति फीचर्स)

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