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Chaibasa. जंगलों में मिलने वाले वनोंत्पाद से दर्जनों गांव के सैकड़ो ग्रामीण परिवार का भरण पोषण करने को मजबूर, Hundreds of rural families in dozens of villages are forced to feed themselves from the forest produce found in the forests.


Guwa (Sandeep Gupta) । सारंडा जंगल की सियाली, साल एवं तेंदू पत्ता के सहारे सारंडा जंगल में बसे दर्जनों गांवों के सैकड़ों परिवार अपना भरण-पोषण करने को मजबूर हैं। यह जंगल नहीं होता तो सैकड़ों परिवार रोजगार की तलाश में अन्यत्र पलायन कर जाते अथवा अपना व परिवार का पेट पालने, अपनी अन्य जरुरतों को पूरा करने हेतु भटकते रहते। सारंडा जंगल क्षेत्र में वनोत्पाद को छोड़ रोजगार का दूसरा कोई व्यवस्था नहीं है। उल्लेखनीय है कि सारंडा स्थित छोटानागरा, गंगदा, चिडिय़ा, दीघा आदि पंचायत क्षेत्र के घने जंगलों में विभिन्न गांवों के महिला व पुरुष अलग-अलग ग्रुपों में बंटकर सियाली पत्ता को तोड़ने हेतु प्रतिदिन अहले सुबह लगभग 5-6 बजे अपने-अपने हाथों में खाने का समान लेकर घुसते हैं। 


दिन भर जंगलों की खाक छानते हुये सियाली पेडो़ को खोज उसका पत्ता तोड़ संग्रह कर देर शाम लगभग छः बजे जंगल से निकल अपने-अपने घरों को लौटते हैं। इस काम में लगे प्रत्येक ग्रामीण लगभग 12 घंटे जंगल में रहकर 10 से 15 किलो पत्ता संग्रह कर पाते हैं‌। इस दौरान जंगल विषैला जीव-जन्तुओं से भी दो-चार होना पड़ता है। सियाली पत्ता को जंगल से लाकर ये ग्रामीण उसका बंडल बनाते हैं। एक बंडल लगभग 30 किलोग्राम के आसपास का होता है। प्रत्येक किलो सियाली पत्ता का कीमत बाहरी व्यापारी 40 रूपये की दर से देते हैं। ग्रामीण सियाली पत्ता को बेचने अपने-अपने गांवों से बस अथवा अन्य वाहनों से जराईकेला जाते हैं। 30 किलोग्राम वजन का एक बंडल सियाली का भाडा़ 20 रुपये तथा स्वंय बस से जाने पर उसका भाडा़ 60 रुपये देना पड़ता है। अगर व्यापारी गांव में आकर पत्ता की खरीद करता है तो प्रति किलोग्राम सियाली पत्ता की कीमत 25-30 रुपये देता है।

इस वनोत्पाद से सैकड़ों परिवारों को तो कुछ आर्थिक लाभ मिल जाता है, लेकिन सियाली पत्ता सालों भर नहीं मिलता है। ठंड के मौसम में सबसे ज्यादा पत्ता मिलता है जबकि गर्मी में बिल्कुल काम बंद हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को लगभग इस काम में 300-400 रूपये की कमाई दिन भर मेहनत करने पर मिल जाती है। जानकारों का कहना है कि जंगल लोगों के जीविकोपार्जन का मुख्य श्रोत होता है। जहाँ जहाँ घने जंगल हैं वहां रहने वाले लोग कभी भूखे नहीं मर सकते हैं। क्योंकि प्रकृति ने हर मौसम में लोगों को जीने के लिये कुछ न कुछ वनोत्पाद, कंद-मूल, फल-फूल आदि देते रहती है। झारखण्डी विचारधारा एंव संस्कृति सदैव हीं पर्यावरण प्रेमी रही है। हमारे पूर्वजों ने ऐसे नियम बनाये थे जिनके पालन से मनुष्य और प्रकृति का अटूट नाता बना। जब तक हम पूर्वजों के दिखलाए मार्ग का अनुसरण करते रहे तब तक सब ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन जब हमने नैतिक मुल्यों को ताक पर रख कर प्रकृति, वन व पर्यावरण का दोहन प्रारम्भ किया तो उसने भी प्रतिशोध का मार्ग अपना लिया. सारंडा में बसे आदिवासी-वनवासीयों को प्रकृति ने भोजन, वस्त्र, आवास, पानी, शुद्ध हवा, वर्षा आदि समस्याओं का समाधान हेतु कदम-कदम पर साथ निभाया।

आज उसके कारण हीं हमारा अस्तित्व शेष है। उसने हमें रोटी दी, हमने उसके पेड़ पौधे से दुर्व्यवहार आरम्भ कर दिया। उसने हमें जीना सिखाया, हमने उसी के अंगों अर्थात् भूमि, जल, वायु से खिलवाड़ किया। अब हमें सोंचना है कि क्या सारंडा जंगल को बचाना है या विनाश की ओर ले जाना है। अगर बचाना है तो सिर्फ एक व्यक्ति व एक गाँव नहीं बल्कि सारंडा के सभी गांवों के तमाम ग्रामीणों को आगे आना होगा।

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