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Bhopal. कुम्भ पर्वों की परम्परा और प्राचीनता , Tradition and antiquity of Kumbh festivals


Upgrade Jharkhand News.  हरिद्वार, नासिक, प्रयाग और उज्जैन में प्रति बारहवें वर्ष आयोजित होने वाले कुम्भ पर्वों की परंपरा और प्राचीनता का अनुमान इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के कई मंत्रों में कुम्भ पर्व का उल्लेख है। अथर्ववेद में तो यहां तक कहा गया है कि कुम्भ पर्व में पवित्र नदियों में स्नान करने से एक हजार अश्वमेघ यज्ञों तथा एक लाख बार पृृृथ्वी प्रदक्षिणा का पुण्य मिलता है। हमारी पुराणें कुम्भ पर्वों की महिमा से भरी पड़ी है। इतिहासकारों एवं विदेशी पर्यटकों ने भी कुम्भ मेलों का विवरण दिया है। कुम्भ का सर्वाधिक स्पष्ट एवं विस्तृत उल्लेख चीनी यात्री व्हेनसांग के यात्रा वर्णन में मिलता है। उसने सन् 644 में प्रयाग में हुए एक कुम्भ का वर्णन करते हुए लिखा है कि तत्कालीन सम्राट हर्षवर्धन ने प्रयाग के कुम्भ मेले में अपनी सारी सम्पत्ति का दान कर दिया था।



नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने कुम्भ पर्वों को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने हिन्दू धर्म की एकता और व्यापकता के लिए देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किए। इन मठों की स्थापना का एक उद्देश्य यह भी था कि इनके प्रधान (शंकराचार्य) भारत के साधु समाज को समुचित दिशा-निर्देश दे सकें। उपासना-पद्धति के आधार पर आदि शंकराचार्य ने साधुओं को दस वर्गों में विभाजित किया। यह विभाजन ‘दशनामी’ के नाम से जाना जाता है। आदि शंकराचार्य ने साधुओं को जिन दस नामों में विभाजित किया है, वे हैं- सरस्वती, पुरी, बाना, तीर्थ, गिरि, पर्वत, भारती, अरण्य, आश्रम एवं सागर।



उन्होंने भारत की धार्मिक एकता एवं अध्यात्म के प्रचार के लिए यह व्यवस्था दी कि इन सभी साधुओं तथा चारों मठों के शंकाराचार्यों को प्रत्येक कुम्भ पर्व में अनिवार्य रूप से सम्मिलित होना चाहिए तथा देश के विभिन्न भागों से आये अन्य साधु-संतों तथा श्रद्धालुजनों से सम्पर्क करना चाहिए। यहां तक कि हिमालय की कंदराओं में एकांतवास करके साधना करने वाले तपस्वियों तक के लिए कुम्भ स्नान करना आवश्यक कर दिया गया। उसके बाद से ही यह परंपरा विकसित हुई कि कोई भी साधु देश के किसी भी कोने में निवास करता हो, वह कुम्भ स्नान के लिए अवश्य जाता है। इस तरह ये कुंभ एवं भारत की एकता के प्रतीक पर्व बन गये हैं।


समुद्र मंथन से जुड़ा - कुंभ पर्व की महत्ता का वर्णन अनेक पुराणों में किया गया है। इस पर्व की परंपरा से संबंधित भी अनेक कथाएं पुराणों में हैं। इनमें से  सर्वमान्य कथा यह है कि ब्रह्माजी की आज्ञा से देवताओं और दानवों ने समुद्र मंथन किया। मंथन के उपरांत जो रत्न मिले, उनमें अमृत भी था। देवता और दानव दोनों ही उसे प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए उनमें युद्ध छिड़ गया। सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति को अमृत के कुंभ की रक्षा का दायित्व सौंपा गया था। यह कुंभ उन्होंने जिन स्थानों पर रखा, वहां अमृत की कुछ बूंदें छलक गईं। ये स्थान थे- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। चूंकि इन स्थानों पर अमृत कुंभ रखा गया था तथा वहां अमृत छलका था, इसलिए इन स्थानों पर कुंभ पर्व आयोजित किये जाने लगे।


इंद्र के पुत्र जयंत से छलका अमृत - एक अन्य कथा के अनुसार इन्द्र का पुत्र जयंत यह अमृत कुंभ लेकर उड़ा तो चार स्थानों पर अमृत छलक गया था। जिन स्थानों पर यह अमृत छलका, वहां कुंभ पर्व मनाया जाता है। इन कथाओं के अनुसार अमृतकुंभ को लेकर देवताओं और दानवों में 12 दिन तक युद्ध हुआ था। देवी-देवताओं का एक दिन पृथ्वीलोक के एक वर्ष के बराबर होता है, इसलिए हर बारहवें वर्ष कुंभ स्नान की परंपरा प्रारंभ हुई। अर्थात् प्रत्येक स्थान पर बारहवें वर्ष कुंभ होता है। वैसे हर तीसरे वर्ष देश में कहीं न कहीं कुंभ आयोजित होता है।


ग्रहों की गति पर निर्भर - कुंभ पर्व तथा उसके स्नानों का आयोजन ग्रहों की गति पर निर्भर करता है। जैसे जब गुरू ग्रह कुंभ राशि में तथा सूर्य मेष राशि में होता है तो हरिद्वार में कुंभ होता है। इसके तीन वर्ष पश्चात् अर्थात् जब गुरु वृषभ राशि में तथा सूर्य मकर राशि में होता है तो प्रयाग (इलाहाबाद) में कुंभ होता है। जब बृहस्पति (गुरू) सिंह राशि में आते हैं तो नासिक और उज्जैन में कुंभ आयोजित होते हैं। किन्तु नासिक का कुंभ तब होता है, जब सूर्य सिंह राशि में ही होता है, जबकि उज्जैन का कुंभ (सिंहस्थ) तब होता है, जब सूर्य मेष राशि में आते है। यहां यह उल्लेखनीय है कि बृहस्पति (गुरू) ग्रह एक राशि में एक वर्ष तथा सूर्य की एक राशि में एक महीने रहते है। गुरू को बारह राशियों में भ्रमण करने में सामान्यत: बारह वर्ष लगते हैं। बारह वर्ष बाद वह अपनी पूर्व राशि में आता है, और इसी से कुंभ पर्व  उक्त चार स्थानों पर प्रति बारहवें वर्ष आयोजित होते हैं।


अर्द्ध कुम्भ भी होते हैं - दो स्थानों पर अर्द्ध कुम्भ भी आयोजित होते हैं। ये स्थान हैं हरिद्वार और प्रयाग। अर्द्ध कुम्भ, कुम्भ पर्व के छ: वर्ष बाद आयोजित होते हैं। कुंभ पर्व जिन स्थानों पर आयोजित किए जाते हैं, वे न केवल प्राचीन धार्मिक नगर हैं, अपितु पवित्र नदियों के तट पर बसे हुए हैं। हरिद्वार और प्रयाग गंगा नदी के तट पर,नासिक गोदावरी के तट पर तथा उज्जैन क्षिप्रा नदी के तट पर बसा हुआ है। वैसे कुंभ पर्व एक महीने तक चलता है, किन्तु कुछ तिथियों पर  स्नान का विशेष महत्व होता है। इन तिथियों में पूर्णिमा एवं अमावस्या का विशेष महत्व होता है। इन तिथियों पर होने वाले स्नान को मुख्य स्नान एवं शाही स्नान कहा जाता है।


स्नान को लेकर रही प्रतिस्पर्धा - स्नान करते समय तथा पहले कौन स्नान करे, इसके लिए विभिन्न साधु संगठनों व अखाड़ों में कड़ी  प्रतिस्पर्धा रहती है। कई बार इन प्रतिस्पर्धाओं ने हिंसक स्वरूप भी धारण किया है। संभवत: इसीलिए कुंभ स्नान के लिए जब साधुओं के अखाड़े शोभायात्रा के लिए निकलते हैं तो वे शस्त्र भी धारण किए रहते हैं। कुंभ स्नान के समय नागा साधुओं के क्रोध एवं उत्तेजना की कई कहानियां सुनने में आयी है। पर अब ये कुंभ पर्व शांति और सद्भावना के साथ मनाये जाते हैं। साधुओं के साथ लाखों नर-नारी भी कुंभ स्नान का पुण्य लाभ लेते हैं।


ये योग भी आवश्यक - वैसे इन चारों नगरों में आयोजित होने वाले कुंभ पर्वों में बृहस्पति एवं सूर्य के विशेष राशि में पहुंचने के अतिरिक्त कुछ और योग अनिवार्य होते हैं। जैसे उज्जैन के सिंहस्थ पर्व के लिए वैसाख का महीना, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि, सोमवार का दिन, तुला राशि पर चन्द्रमा, स्वाति नक्षत्र एवं व्यतिपात योग होना आवश्यक होता है। कई बार ये दसों योग होते हैं और कई बार 5-6 योग ही उपस्थित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में दो-दो बार भी कुंभ पर्व मनाया जाता है। 1967 एवं 1968 में ऐसी ही स्थिति निर्मित हुई थी तथा दो-दो बार सिंहस्थ आयोजित हुआ था।


धार्मिक एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक -  भारत के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में कुंभ पर्वों के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। वस्तुत: ये पर्व भारत की धार्मिक एवं सांस्कृतिक एकता के प्रतीक पर्व है। सुदूर दक्षिण के श्रद्धालु जब हरिद्वार के कुंभ पर्व में स्नान हेतु पहुंचते हैं तथा हिमालय की कंदरा में साधनारत सन्यासी जब नासिक के कुंभ में स्नान करते हैं तो फिर इस बात की ही पुष्टि होती है कि परंपराओं, प्रथाओं और संस्कृति की दृष्टि से भारत एक है और यह एकता वैदिक काल से आज तक चली आ रही है। दिनेश चंद्र वर्मा



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