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Bhopal. जयंती/होली- चैतन्य महाप्रभु , Birth Anniversary/Holi- Chaitanya Mahaprabhu


Upgrade Jharkhand News. सोलहवीं शताब्दी के मध्य संपूर्ण  देश में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियां दयनीय थीं, वहीं तांत्रिक आस्थाओं की विकृतियों के कारण सामाजिक जीवन अनाचारपूर्ण था।  सर्वत्र हिंसा का बोलबाला था, धर्म के नाम पर पाखण्ड, आडम्बर, व्यभिचार और कुरीतियां  फैल रही थीं। देश में भीषण द्वेष, भय व आतंक का वातावरण छाया हुआ था ऐसे में विक्रम संवत की सोलहवीं शताब्दी के मध्य फाल्गुन माह की पूर्णिमा को एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। इस बालक का परिजनों द्वारा 'निमाई' नामकरण किया गया। निमाई बचपन से ही चंचल  तथा अत्यन्त मेधावी थे, प्रबल मनोविनोदी थे। उनके यौवनकाल में  पं. रघुनाथ जी द्वारा न्याय शास्त्र पर एक  ग्रन्थ लिखा गया था। निमाई द्वारा भी एक ग्रन्थ न्याय शास्त्र पर तैयार किया गया था। उन्होंने अपनी हस्तलिखित कृति को जब पं. रघुनाथ जी को पढऩे के लिए प्रस्तुत किया तो उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। तुलनात्मक दृष्टिकोण पर उन्होंने स्पष्ट किया कि निमाई का ग्रन्थ अति उत्तम है।  निमाई समझ गए कि उनके ग्रंथ के समक्ष पंडित जी का ग्रंथ उपयोगी नहीं रह पाएगा। अत: उन्होंने पंडित जी के ग्रंथ की महिमा बढ़ाने के लिए अपना हस्तलिखित ग्रंथ स्वयं ही गंगा में प्रवाहित कर दिया। उनके इस त्याग ने उनके व्यक्तित्व को प्रखर बनाया। उनका ज्ञान दिनोंदिन बढ़ता रहा। उनका उपदेश था कि जीव मात्र के प्रति दया, भगवान के प्रति आस्था एवं मनुष्य मात्र की सेवा ये ही तीन श्रेष्ठ धर्म हैं।



तत्समय राजाज्ञा से काजी द्वारा कीर्तन पर प्रतिबंध लगाया गया जो उनको सहन नहीं हुआ और विरोध आरंभ कर दिया। जनशक्ति को जागृत किया। काजी के साथ आत्मीयता का व्यवहार किया। प्रेमास्त्र की धार से काजी की जिद विदीर्ण हो गई। निषेधाज्ञा वापस लेनी पड़ी बाद में यही शान्तिपूर्ण जनआंदोलन गांधीजी का भी सशक्त अस्त्र बना। चैतन्य नाम से विख्यात निमाई को महाप्रभु भी कहा जाने लगा। उन्होंने अपने क्षेत्र में गौवध बंद करवाया। वे धर्म के नाम पर मूक, निरीह या निर्दोष पशुओं की बलि रोकने के लिए प्रयत्न करते रहे।  डाकुओं पर भी उनका प्रभाव पड़ा। उनका मानना था कि डाकू जीवन में पत्नी, पुत्र का भी मोह नहीं रहता। वह कहा करते थे कि जब गृहस्थ की तरह विषय वासनाओं से मुक्त रहते हो, वनों में विरक्त साधुओं की तरह भ्रमण करते हो तो फिर भगवद्भजन के प्रति आसक्त होने में क्या कठिनाई है? महाप्रभु मानवता के पुजारी थे, दया करुणा के सागर थे, जाति-पांति, ऊंच-नीच के बन्धनों को तोड़कर उन्होंने मनुष्य को एक ही जाति का प्रतिपादित किया। एम.एन. त्रिवेदी



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