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Chaibasa. सारंडा के बेरोजगार युवाओं का पलायन, खनिज और वन संपदा के बीच पसरी बेरोजगारी की त्रासदी, Migration of unemployed youth of Saranda, tragedy of unemployment spread amidst mineral and forest wealth


Guwa (Sandeep Gupta) । पश्चिमी सिंहभूम के नक्सल प्रभावित सारंडा के नुईया गांव से 12 बेरोजगार युवा रोज़गार की आस में मैसूर रवाना हुए हैं। ये सभी युवक राउरकेला रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ कर कर्नाटक के मैसूर पहुंचेंगे। वहां स्थित एक 'प्रेम मिनिस्टर' नामक कंपनी में ये सड़क पर लगने वाले रेडियम निर्माण का कार्य करेंगे। कंपनी द्वारा इन्हें प्रति माह 15 हजार रुपये वेतन दिया जाएगा। मैसूर जाने वाले युवाओं के नाम महेंद्र चाम्पिया, मार्शल स्वांसी, पेडू पूर्ति, गोपाल तिरिया, अरुण दिग्गी, पंकज चाम्पिया, समीर तिरिया, कृष्ण दिग्गी, साहिल सिद्धू, राजाराम दिग्गी, बारिश सेवईया और उलियाम सुरीन है। सारंडा क्षेत्र में रोजगार के अवसर नगण्य हैं। यही कारण है कि हर साल हजारों युवक और युवतियाँ विभिन्न राज्यों में रोजगार की तलाश में पलायन कर जाते हैं। इनमें बड़ी संख्या में नाबालिग लड़के-लड़कियाँ भी शामिल होते हैं जिन्हें दलाल मानव तस्करी के दलदल में धकेल देते हैं। सारंडा क्षेत्र लौह अयस्क और मैंगनीज जैसे बहुमूल्य खनिजों से समृद्ध है। साथ ही यह एशिया के प्रसिद्ध साल (सखुआ) वनों का घर है। 



इसके बावजूद यहां के लोग गरीबी और बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। एक आम धारणा यह है कि जिस ज़मीन के गर्भ में अपार खनिज हो और जिसकी सतह पर घना जंगल फैला हो, वह इलाका आर्थिक रूप से सशक्त होना चाहिए। लेकिन सारंडा इसका उलटा उदाहरण बन चुका है। वर्तमान समय में सारंडा में केवल कुछ ही खदानें जैसे किरीबुरु, मेघाहातुबुरु, गुवा और चिड़िया (सेल द्वारा संचालित) तथा विजय-2 (टाटा स्टील) ही सक्रिय हैं। इनकी स्थिति भी दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। 2021 से पहले से चालू लगभग एक दर्जन खदानें बंद कर दी गई हैं और अब तक दोबारा चालू नहीं की गईं। इससे स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का संकट और गहराता जा रहा है। सेल प्रबंधन द्वारा चतुर्थ श्रेणी की नियुक्तियों में भी अधिकांशतः बाहरी लोगों को प्राथमिकता दी जा रही है। इसका सीधा असर स्थानीय बेरोजगार युवाओं पर पड़ रहा है जो पहले से हीं सीमित संसाधनों और अवसरों के बीच जीवन काट रहे हैं। इससे इलाके में असंतोष और हताशा की भावना बढ़ रही है। 



अधिकांश युवाओं का कहना है कि गांव में रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। न खेती लायक ज़मीन है, न वैकल्पिक साधन। खदानों के बंद होने और सरकारी उपेक्षा के कारण गांवों में रोज़गार की पूरी तरह से कमी हो गई है। सरकारी योजनाएं भी या तो कागजों तक सिमटी हैं या बिचौलियों के बीच बंट जाती हैं। मजबूरी में युवाओं को पलायन करना पड़ता है, भले ही वहां मजदूरी करनी पड़े या न्यूनतम वेतन पर काम करना पड़े। बेरोजगारी की मार सबसे ज्यादा नाबालिग बच्चों पर पड़ रही है। दलाल उन्हें बहला-फुसला कर महानगरों में ले जाते हैं, जहां वे घरेलू काम या होटल-ढाबों में शोषण का शिकार होते हैं। कई बार तो वे गलत धंधों में भी धकेल दिए जाते हैं। यह एक गंभीर सामाजिक संकट बन चुका है, जिस पर अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।



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