जन्मदिन 7 मई पर विशेष
Upgrade Jharkhand News. रविंद्रनाथ टैगोर को आज भी भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में एक महान कवि, उपन्यासकार ,कथाकार, नाटककार, संगीतकार और चित्रकार के रूप में याद किया जाता है। उनका साहित्य उनके व्यक्तित्व के अनुरूप जीवन के सभी क्षेत्रों में उभरकर सामने आया। वे साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम एशियाई व्यक्ति थे। विश्व साहित्य के प्रकाश पुंज रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म कोलकाता के जोड़ासांको ठाकुरवाडी में सात मई 1861 को अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान के रूप में हुआ था। पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर,ब्राह्मण समाज के बड़े नेता थे। यह परिवार कोलकाता का एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार था । माता का नाम शारदा देवी था। जमींदार होने के कारण इन्हें ठाकुर कहा जाता था। अंग्रेजों को ठाकुर बोलने में परेशानी होती थी,तो उन्होंने ठाकुर का अपभ्रंश टैगोर कर दिया जो आज तक प्रचलन में है। माता का निधन बाल काल में ही हो गया था इसलिए परवरिश घर के नौकरों की देखभाल में हुई। प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता के ओरियंटल सेमिनरी स्कूल में और घर पर नियुक्त शिक्षक की देखरेख में हुई । बालक रविन्द्र नाथ उस समय की स्कूली शिक्षा पद्धति से संतुष्ट नहीं हुए इसलिए स्कूल छोड़ दिया।
इसी समय कोलकाता में महामारी फैलने के कारण इन्हें बोलपुर भेज दिया गया। बोलपुर गांव में जाने पर उन्हें खुला प्राकृतिक वातावरण मिल गया। जिससे उनकी काव्य रचना में निखार आया। सितंबर 1878 को अपने बड़े भाई सत्येंद्रनाथ के साथ शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए।लंदन में कानून की पढ़ाई के लिए ब्रिजस्टोन पब्लिक स्कूल में एडमिशन ले लिया पर उसे पूरा करने से पूर्व ही 1880 में भारत वापस आ गए। उनका मन वहां पर नहीं लगा। 22 वर्ष की उम्र में आपका विवाह मृणालिनी नाम की 11 वर्षीय कन्या से हो गया। उनके विवाह समारोह में राष्ट्र गान वंदे मातरम के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय भी आए थे। तभी रविन्द्र नाथ की प्रतिभा को देखकर उन्होंने कहा था यह साहित्य के आकाश का उदीयमान नक्षत्र है।
आठ वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पहली काव्य रचना का सृजन किया था। शुरुआत में वह पारिवारिक पत्रिका भारती और बालक के लिए शिशु गीत ,कविताएं ,कहानियां ,नाटक , लघु उपन्यास आदि लिखने लगे। साधना नामक पत्रिका में लगभग 20 वर्षों तक उनके विचार कविताएं, लेख, कहानी, उपन्यास छपते रहे। इस बीच द्वारा लंदन जाकर उन्होंने अपने ज्ञान को बढ़ाया। कुछ समय बाद पुनः भारत आ गए । इस समय तक रविन्द्रनाथ टैगोर लेखक के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके थे, परंतु पिताजी के कहने पर अपने बीवी बच्चों सहित सियालदह चले गए।जहां पर उनकी जमींदारी थी। उनका गाँव गंगा और ब्रह्मपुत्र के संगम पर स्थित है और गांव में दूर-दूर तक जाने के लिए नौका में जाना पड़ता था। इस प्रकार जल विहार में उनका प्राकृतिक प्रेम और भी ज्यादा विकसित हुआ। इनकी आत्मा से कविता का झरना फूट पड़ा। जमींदार के रूप में अपने गांव के गरीब और निर्धन लोगों की सहायता की। इसी समय उन्होंने बाल कहानी डाकपाल और प्रसिद्ध रचना काबुलीवाला की भी रचना की।
1901 में अपने दो पुत्रों रविथीन्द्रनाथ और शर्मीन्द्रनाथ तथा पांच विद्यार्थियों के साथ अपने पिता के द्वारा स्थापित किए गए शांतिनिकेतन में एक विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय का नाम ब्रह्मचर्य आश्रम रखा। रविंद्रनाथ को खुले वातावरण हरियाली और पेड़ों के नीचे शिक्षा देना और प्राप्त करना बड़ा अच्छा लगता था। इसी बीच उनकी पत्नी गंभीर रूप से बीमार पड़ गई और 1902 में इस संसार को छोड़ गई। आपके गीतों में एक आंतरिक प्रेम की पुकार के स्थान पर वैश्विक प्रेम के विचार आने लगे। उनकी चंचलता गंभीरता में परिवर्तित होने लगी । 1905 में उनके पिता महर्षि देवेंद्रनाथ का देहांत हो गया। इस सबसे आप और भी ज्यादा अंतर्मुखी हो गए।
सन 1905 में आपके नेतृत्व में कोलकाता में रक्षाबंधन उत्सव पर बंग भंग आंदोलन का प्रारंभ हुआ और इसी आंदोलन से देश में स्वदेशी आंदोलन का प्रारंभ हुआ। उस समय राष्ट्र परिवर्तन के नए दौर से गुजर रहा था। सन 1909 से 1910 के बीच आपके लिखे गीतों का एक संकलन गीतांजलि नाम से बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुआ। 1912 में जब उन्हें तेज ज्वर हो गया तो वह आराम के लिए सियालदह आ गए और यहीं पर उन्होंने गीतांजलि का अंग्रेज़ी अनुवाद किया। इस अंग्रेजी अनुवाद को इंडिया सोसाइटी ऑफ लंदन द्वारा 1912 में प्रकाशित किया गया। इसके अंग्रेजी में छपते ही रविन्द्रनाथ की प्रसिद्धि पूरे विश्व में फैलने लगी और नवंबर 1913 में उन्हें गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गई। उस समय साहित्य के क्षेत्र में किसी भी एशियाई को दिया जाने वाला यह प्रथम पुरस्कार था। आपकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने आपको 1915 में नाइट हुड सर की उपाधि प्रदान की, परंतु 1919 में अंग्रेजी सरकार द्वारा जलियांवाला बाग के हत्याकांड के विरोध में अपने इस उपाधि को वापस कर दिया।
1915 में गांधीजी शांतिनिकेतन आए और यहीं पर दो महान विभूतियों का मिलन हुआ। गांधी जी ने रविन्द्रनाथ को गुरुदेव के नाम से संबोधित किया और रविन्द्रनाथ ने गांधी जी को महात्मा की उपाधि दी और तब से ही इन दोनों विभूतियों के नाम के साथ यह शब्द जुड़ गए। रविन्द्रनाथ साहित्यिक और दार्शनिक क्षेत्र में प्रसिद्धि पा चुके थे तो गांधी जी राजनीतिक क्षेत्र में। इन महान विभूतियों का संबंध जीवन के अंत तक बना रहा। आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक से भी रविंद्रनाथ ठाकुर जी की तीन बार मुलाकात हुई और आइंस्टीन रविन्द्रनाथ को रब्बी अर्थात मेरे गुरु कहते थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस रविन्द्रनाथ टैगोर के कहने पर ही गांधी से मिले थे।
रविंद्रनाथ भारत की पुरातन कुरीतियों का विरोध करते थे। आपका कहना था कि स्त्री और दलितों के साथ लिये बिना हमारी उन्नति पूर्ण नहीं हो सकती। अन्यथा जब हम चलेंगे तब ये हमारा पैर पकड़ कर नीचे खींच लेंगे और इस प्रकार हमारी प्रगति में सहायक ना होकर हमें पतन की ओर ले जाएंगे। उनकी बड़ी विशेषता विश्व बंधुत्व और मानव आत्मा के प्रति उसकी विशेष आकर्षण था। आप समस्त विश्व के अत्याचार और विरोध को नष्ट करके प्रेम और एकता की स्थापना करना चाहते थे। आप अकेले ऐसे कवि हुए हैं जिनके गीत आज भी दो देशों के राष्ट्र गीत के रूप में चल रहे हैं। हमारे देश का राष्ट्र गीत जन गण मन और दूसरा बांग्लादेश का राष्ट्र गीत आमार सोनार बांग्ला आपके द्वारा ही रचित है। टैगोर ने करीब 2230 गीतों की रचना की। उनकी अधिकांश रचनाएं बांग्ला में है । जिसके बाद में हिंदी,अंग्रेजी सहित विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद किए गए। रविन्द्र नाथ ने1921 में शांतिनिकेतन को विश्व भारती विश्वविद्यालय का दर्जा दिया और अपनी सारी नोबेल पुरस्कार की राशि और कॉपीराइट शांतिनिकेतन को दे दिए। 1926 में मुसोलिनी के निमंत्रण पर आप इटली के नेपल्स में गए। मुसोलिनी से मुलाकात करने के बाद वहां से स्विट्जरलैंड और जर्मनी गए। उन्होंने उस समय कई देशों की यात्रा की। कई साल विदेश में भ्रमण करने के बाद में 1934 में फिर शांतिनिकेतन लौट आए। 1940 में गांधी जी कस्तूरबा गांधी के साथ शांतिनिकेतन में उनसे मिलने आए। उन्होंने कहा हालांकि मैं इस यात्रा को तीर्थ यात्रा कहता हूं। मैं यहां अजनबी नहीं हूं, मुझे ऐसा लगता है जैसा कि मैं अपने घर पर लौट आया हूं। मुझे गुरुदेव का आशीर्वाद मिल गया और मेरा हृदय आनंद से विभोर हो उठा।
वृद्धावस्था में रविंद्रनाथ का स्वास्थ्य बीमारी के कारण गिरता जा रहा था। इस कारण जुलाई 1941 को उनको अपने पैतृक घर जोड़ासांको ले जाया गया। उन्होंने अंतिम चरण तक कविताएं लिखी। 7 अगस्त 1941 की दोपहर में विश्व साहित्य का यह प्रकाश स्तम्भ सदा के लिए इस संसार से विदा हो गया । उनका एक गीत मानो उनकी अंतिम अभिलाषा को प्रकट करता हुआ कह रहा है शांत समुद्र सन्मुख ही विराजमान है। हे नाविक नाव खेकर ले चलो ,तुम हो मेरे चिर संगी ------- । बड़े अफसोस की बात है कि इस वर्ष बसंत पंचमी पर शांतिनिकेतन में होने वाली पूजा को राजनीतिक कारणों से कुलपति ने रोक दिया और मीडिया, साहित्यकार सभी मूक दर्शक बने रहे। यह नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का अपमान है। आश्चर्य की बात है कि इस पर देश में कहीं भी शोर शराबा सुनाई नहीं दिया ? आज भी सारे भारत में राष्ट्रगीत जन गण मन के माध्यम से प्रतिदिन ही गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर को स्मरण किया जाता है पर उनकी 164 वीं जन्मतिथि पर हम विश्व बंधुत्व और मानव एकता के उनके संदेश को अपना ले , तो वही उनको सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। इंजी. अतिवीर जैन"पराग"
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