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Bhopal भगवान शिव के प्रकाशमान दिव्य स्वरूप हैं द्वादश ज्योतिर्लिंग The twelve Jyotirlingas are the luminous divine forms of Lord Shiva

 


Upgrade Jharkhand News. श्रावण मास में भगवान शंकर की भक्ति, आराधना एवं उपासना की परंपरा सदियों से अनवरत जारी है। शिवभक्ति के इस पवित्र ,पावन और पुनीत माह में घरों और शिवालयों में भक्ति की रसधार बहती है। भगवान शंकर की अनंत स्वरूपों में पूजा की जाती है। इसी तारतम्य में ही ज्योतिर्लिंगों की उपासना,आराधना और दर्शन की भी महत्ता है। मान्यता है कि शिवलिंग से ही प्रथम ज्योति और प्रणव की उत्पत्ति हुई तथा ये ज्योतिर्लिंग स्वयंभू है तथा भगवान शंकर के इस धराधाम पर प्रकट हुई ज्योति के प्रतीक हैं। लिंगपुराण में वर्णन आता है कि एक दिन ब्रह्मा और विष्णु के बीच यह विमर्श चल रहा था कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? चर्चा चल ही रही थी कि अकस्मात उन्हें एक ज्योतिर्लिंग दिखायी दिया। उसके मूल और परिणाम का पता लगाने के लिए ब्रह्मजी ऊपर आकाश की ओर उड़ चले और विष्णुजी नीचे पाताल की ओर। परन्तु उस आकृति के ओर-छोर का पता नहीं लगा पाए। तब श्री विष्णु ने वेद नाम के ऋषि का स्मरण किया। वे प्रकट हुए और उन्होंने समझाया कि प्रणव में 'अ' कार ब्रह्मा है, 'उ' कार विष्णु हैं और 'म' कार तब श्री शिव हैं। 'म' कार का बीज ही लिंगरुप में सबका परम कारण है।



शिवं च मोक्षे क्षेये च महादेवे सुखे। इसका अर्थ हुआ कि आनन्द, परम मंगल और परमकल्याण। जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है,वही शिव है।  पुराणों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) गुजरात में श्रीसोमनाथ, आंध्रप्रदेश में श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, मध्यप्रदेश के उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल और ओंकारेश्वर में ओंकारेश्वर अथवा ममलेश्वर, झारखण्ड में वैद्यनाथ, महाराष्ट्र के पुणे जिले के डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर, तमिलनाडु के सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, गुजरात के दारुकावन में श्रीनागेश्वर, उत्तर प्रदेश के वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, महाराष्ट्र के नासिक में गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में श्रीघुश्मेश्वर। मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों के  पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाते है।


श्री सोमनाथ - यह ज्योतिर्लिंग सोमनाथ नामक विश्व प्रसिद्ध मन्दिर में स्थापित हैं। यह मन्दिर गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे स्थित है। चन्द्रमा ने भगवान शिव को अपना स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी। यह क्षेत्र प्रभास क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यह वह क्षेत्र भी है जहाँ श्रीकृष्णजी ने जरा नामक व्याध्र के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला को समाप्त किया था। पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार चन्द्रमा ने दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियों के साथ अपना विवाह रचाया था लेकिन वे  रोहिणी से अत्यधिक प्रेम करते थे, इस कारण शेष 26 पत्नियों  ने अपनी व्यथा-कथा अपने पिता से कही। उन्होंने  चन्द्रमा को क्षय रोग से ग्रसित होने का शाप दे दिया। शाप से शापित चन्द्रमा ने  शिव को प्रसन्न करने के लिए कड़ा तप किया। शिव ने प्रसन्न होकर चन्द्रमा को पन्द्रह दिनों तक घटते रहने और शेष दिन बढ़ते रहने तथा रोग से मुक्ति का वरदान दिया।



शिव के इस स्थान पर प्रकट होने एवं सोम अर्थात चन्द्रमा द्वारा पूजित होने के कारण इस स्थान का नाम सोमनाथ पड़ा।  ऐसी मान्यता है कि  इस स्थान पर चंद्रमा को शाप से मुक्ति मिली थी इसलिए श्री सोमनाथ महादेव के दर्शनों से प्राणी सभी पापों से तर जाता है। श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग श्री मल्लिकार्जुन आंध्रप्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत, जिसे दक्षिण का कैलाश कहते है, पर अवस्थित है। पुराणों में वर्णित है कि भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय अपनी भावी पत्नी की तलाश में विश्वभ्रमण को निकले। जब वे लौटकर आए  तो उन्होंने देखा कि माता पार्वती और पिता शिव अपने छोटे पुत्र श्री गणेश का विवाह ऋद्धि-सिद्धि से कर रहे हैं। नाराज होकर उन्होंने घर छोड दिया और वे दक्षिण भारत के क्रौंच पर्वत जिसे श्रीशैल भी कहा जाता है, जा पहुँचे। माता-पिता अपने बेटे का विछोह सहन नहीं कर सके और वे भी उनके पीछे वहाँ तक जा पहुँचे, लेकिन कार्तिकेय वहां से अन्यत्र जा चुके थे। तब से मां पार्वती यहां अपने रुष्ट पुत्र के वापिस लौट आने की प्रतीक्षा करती हैं। जिस स्थान पर माता पार्वती एवं शिवजी रुके थे वह स्थान मल्लिकार्जुन कहलाया। यहां पर शिवजी का विशाल मन्दिर है।


श्री महाकालेश्वर - यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर मे स्थित है। यह स्थान सप्तपुरियों में से एक है। महाभारत व शिवपुराण में इसकी महिमा गायी गई है। महाकालेश्वर का प्रसिद्ध मन्दिर क्षिप्रा नदी के तट पर अवस्थित है। 

आकाशे तारकं लिंग पाताले हाटकेश्वरम मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रयं नमोस्तुते

अर्थात स्वर्गलोक में तारकलिंग,पाताल में हाटकेश्वर और पृथ्वीलोक में महाकालेश्वर स्थित हैं।

महाकाल के पृथ्वी पर प्रकट होने के बारे में पुराणों में उल्लेख है कि किसी समय  रत्नमाला पर्वत पर एक भयंकर दानव रहता था, जिसका नाम दूषण था। वह वेदों और ब्राह्मण का घोर विरोधी था और उन्हें आए दिन परेशान करता रहता था। उज्जैन में एक विद्वान ब्राह्मण के चार पुत्र थे, जो शिव के उपासक थे। एक दिन दूषण ने उज्जैन नगरी पर अपनी विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया। चारों भाईयों ने शिव की आराधना की। शिव ने प्रकट होकर दर्शन दिए। उन्होंने दूषण को सेना सहित मार गिराने के लिए शिव से प्रार्थना की। शिव ने तत्काल ही दूषण को सेना सहित मार डाला। चारों भाईयों ने शिव को ज्योतिर्लिंग रुप में वहां अवस्थित रहने की प्रार्थना की।


श्री ओंकारेश्वर-श्री ममलेश्वर: यह ज्योतिर्लिंग  भी मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के पावन तट पर स्थित है। ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है। स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है। इस स्थान पर नर्मदा के दो भागों में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता या शिवपुरी भी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर की ओर और दूसरी दक्षिण की ओर बहती है। दक्षिणवाली धारा मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धाता पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर स्थित है। पूर्व काल में महाराज मान्धाता ने अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया था।। एक बार नारद मुनि विंध्याचल पर्वत पर शिव को प्रसन्न करने के लिए तप कर रहे थे। उसी समय विंध्याचल पर्वत मनुष्य रुप में उनके समक्ष प्रकट हुआ और कहने लगा कि उसके जैसा पर्वत और कहीं नहीं है। नारदजी ने तत्काल उसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि तुमसे बड़ा तो मेरु पर्वत है। इस बात से दुखी होकर विंध्याचल ने नर्मदा के तट पर भगवान शिव की कड़ी तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर उसे अपने दर्शन देते हुए वर मांगने को कहा। तब पर्वत ने शिव से कहा कि वे ज्योतिर्लिंग के रुप में वहां विराजमान हो जाएं।


श्री केदारनाथ - केदारनाथ  ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर अवस्थित है। यहां की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। उत्तराखंड के दो तीर्थ प्रधानरुप से जाने जाते हैं- केदारनाथ और बद्रीनाथ। दोनों के दर्शनों का बड़ा महत्व है। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति केदानाथ के दर्शन किए बगैर बद्रीनाथ की यात्रा करता है,उसकी यात्रा निष्फल जाती है। धर्म के पुत्र नर और नारायण ने बद्रीनाथ नामक स्थान पर शिव की आराधना की। शिवजी ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा तो उन्होंने शिवजी से प्रार्थना की कि हमें कुछ नहीं चाहिए। आप तो यहां शिवलिंग के रुप में अवस्थित हो जाएं, ताकि अन्य भक्तगण भी आपके दर्शनों के लिए यहां आते रहे और पुण्य लाभ कमाएं।  केदारनाथजी का मन्दिर हिमालय से प्रवाहित होती मन्दाकिनी नदी के पावन तट पर अवस्थित है। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां आकर श्रीकेदारनाथ जी के दर्शन करते हैं और यह परम्परा सदियों से चली आ रही है। जब आवागमन के अत्यंत अल्प साधन थे तब भी यहां दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता था।  


श्री विश्वेश्वर (विश्वनाथ) - यह ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध नगरी काशी (बनारस जिसे वाराणसी भी कहा जाता है) में स्थित है। मान्यता है कि इस नगरी का लोप प्रलयकाल में भी नहीं होता, क्योंकि इस पवित्र नगरी को शिव अपने त्रिशूल पर धारण किए हुए हैं। इसी स्थान पर सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से भगवान विष्णु ने तपस्या करके भगवान आशुतोष को प्रसन्न किया था। अगस्त्य मुनि ने भी इसी स्थान पर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया था। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार  एक दम्पत्ति ने अपने माता-पिता को नहीं देखा था और वे उन्हें देखना चाहते थे। तभी आकाशवाणी हुई कि वे इसके लिए कठिन तप करे लेकिन उचित जगह न मिलने के कारण वे तप नहीं कर पा रहे थे। तब शिव ने इस नगरी का निर्माण किया और स्वयं वहां अवस्थित हो गए। ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिशाली-भगवान शिव इसी काशी नगरी में निवास करते हुए अपने भक्तों के दुख दूर करते हैं। इस पवित्र नगरी की महिमा है कि जो भी प्राणी यहां अपने प्राण त्यागता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।


श्री त्र्यम्बेकश्वर - यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के नासिक जनपद में अवस्थित है, जो माहात्म्य उत्तर भारत में पापविमोचिनी गंगा का है,वैसा दक्षिण में गोदावरी का है। जैसे इस धरती पर गंगावतरण का श्रेय तपस्वी भगीरथ को है वैसे ही गोदावरी का प्रवाह ऋषिश्रेष्ठ गौतम की घोर तपस्या का फल है। इसी  गोदावरी के उद्गम स्थल के समीप अवस्थित त्र्यम्बकेश्वर भगवान की भी बडी महिमा है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भोलेनाथ शिव ने इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर के नाम से विख्यात हुए। इसकी कथा के अनुसार सह्याद्री जनपद में एक दयालु साधु गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ रहते थे। वहां निवास कर रहे अन्य लोग उनसे ईर्ष्या भाव रखते थे और उन्हें उस स्थान से निकाल देना चाहते थे। एक दिन सभी ने एक युक्ति निकाली और उन पर आरोप लगा दिया कि उनके द्वारा किसी गाय का वध किया गया है। इस पापाचार के लिए वे वहां से निष्कासित कर दिए गए। दुखी गौतम ने कठिन तपकर शिव को प्रसन्न किया। जब शिव ने वरदान मांगने को कहा तो गौतम ने सभी को माफ करने एवं पास ही एक नदी के प्रकट होने की बात भगवान शिव से कही। शिव ने गोदावरी को वहां प्रकट होने को कहा तो गोदावरी ने शिव से विनती की कि आपको भी मेरे तट पर स्वयं विराजित होना होगा। गोदावरी की प्रार्थना सुनकर शिव वहां विराजमान हो गए।


श्री वैद्यनाथ - यह ज्योतिर्लिंग झारखण्ड प्रान्त के सन्थाल परगना में स्थित है। पुराणों से प्राप्त विवरण के अनुसार एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान शंकर के दर्शन प्राप्त करने के लिए कठिन तप किया। उसने अपने नौ सिर एक-एक करके शिवलिंग पर चढ़ा दिये। जब वह अपना दसवां सिर काटकर चढ़ाने  ही वाला था कि भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उसके सामने प्रकट हुए। उन्होंने उसके कटे हुए नौ सिर जोड़ दिए और वर मांगने को कहा। रावण ने वर के रुप में भगवान शिव को अपनी राजधानी लंका में ले जाने की आज्ञा मांगी। शिव ने यह वरदान तो दे दिया, लेकिन एक शर्त लगा दी। उन्होंने कहा, तुम मुझे शिवलिंग रूप में ले जा सकते हो, किन्तु रास्ते में तुम शिवलिंग पृथ्वी पर नहीं रखोगे और अगर भूल से भी कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जाएगा और फिर तुम उठा नहीं सकोगे। रावण बात को स्वीकार कर लंका की ओर चल पड़ा। चलते-चलते एक जगह रास्ते में उसे लघुशंका करने की आवश्यकता महसूस हुई। उस समय उसे एक व्यक्ति गौ चराता दिखाई दिया। उसने उसे प्रलोभन देते हुए कहा कि वह शिवलिंग को थोड़ी देर के लिए थाम कर रखे। थोड़ी देर तक तो वह व्यक्ति उसे थामे रहा, लेकिन भार अधिक लगने पर वह उसे संभाल न सका और विवश होकर उसने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। जब रावण लौटा तो वहां कोई नहीं था। कहते हैं स्वयं भगवान विष्णु ने मनुष्य का रुप धारण कर शिव लिंग को लंका जाने से रोकने का प्रयास किया था, क्योंकि वे जानते थे कि यदि शिव लंका पहुंच गए तो फिर रावण और लंका अजेय हो जाएगी और राम-रावण के होने वाले युद्ध में राम उसे पराजित नहीं कर पाएंगे। यहां जब शिवलिंग वहां एक बार स्थापित हो गया तो निराश हो कर रावण लंका लौट आया, तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने उस लिंग का पूजन किया और अपने धाम को लौट गए। यही शिवलिंग वैद्यनाथ के नाम से विख्यात हुआ।

 

श्री नागेश्वर - यह ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त में द्वारिकापुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि किसी समय सुप्रिय नामक वैश्य था,जो बड़ा धर्मात्मा, सदाचारी और शिवजी का भक्त था। एक बार नाव पर सवार होकर वह कहीं जा रहा था तभी अकस्मात दारुक नामक राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। उसने सुप्रिय सहित सभी यात्रियों को अपने जेलखाने में डाल दिया। चूंकि सुप्रिय शिवभक्त था, सो जेल में भी शिवाराधना करता रहा। जब इस बात की खबर दारुक को लगी तो उसने अपने सैनिकों को सुप्रिय का वध कर देने की आज्ञा दी। शिव वहां प्रकट हुए और  अपना पाशुपतास्त्र सुप्रिय को देकर अंर्तध्यान हो गए। उसने उस दिव्यास्त्र से सभी राक्षसों का वध कर अपने साथियों को उस कारागार से मुक्त करवाया। भगवान शिव के आदेशानुसार ही इस लिंग का नाम नागेश पड़ा।


श्री भीमशंकर - यह ज्योतिर्लिंग पूना के उत्तर की ओर करीब 43 मील की दूरी पर भीमा नदी के पावन तट पर अवस्थित है। भगवान शिव यहां  सह्याद्रि पर्वत पर अवस्थित हैं। भगवान शिव ने यहां पर त्रिपुरासुर राक्षस का वध करके विश्राम किया था। उस समय यहां अवध का भीमक नामक एक सूर्यवंशी राजा तपस्या करता था। शंकरजी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिया। उसके बाद से इस ज्योतिर्लिंग का नाम श्रीभीमशंकर पड़ा। एक अन्य कथा के अनुसार रावण के भाई कुम्भकरण के पुत्र भीमासुर ने भगवान विष्णु और अन्य देवताओं से बदला लेने की ठानी कि उन्होंने उसके (रावण के) परिवार और प्रियजनों का वध किया था। प्रतिशोध की आग में जलते भीमासुर ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। ब्रह्मा ने प्रकट होकर उसे अतुलित बलशाली होने का वरदान दे दिया। अब उसने वरदान पाकर देवलोक से देवताओं को स्वर्ग छोड़ देने पर मजबूर कर दिया। अपनी विशाल सेना लेकर उसने एक दिन कामरुप्रदेश के राजा पर आक्रमण कर दिया जो संयोग से शिवभक्त था। उसने राजा से शिवलिंग को उखाड़ फैंकने को कहा। जब राजा ने इन्कार कर दिया तो उसने अपनी तलवार निकालकर शिवलिंग पर वार किया। जैसे ही उसकी तलवार शिवलिंग से टकराई, शिव स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने भीमासुर को मार डाला। दानव भीमासुर का वध करने के कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमाशंकर के नाम से जगप्रसिद्ध हुआ।


श्री सेतुबन्ध रामेश्वर - जानकी का हरण किया जा चुका था। रावण की लंका सौ योजन दूर थी। लंका पर आक्रमण करने से पूर्व समुद्र पर पुल बनाया जाना आवश्यक था। राम ने यहां बालुका से शिवलिंग बनाकर आराधना की थी। समुद्र ने मानवरुप मेें प्रकट होकर उन्हें पुल बनाने का उपाय बतलाया था। श्री राम द्वारा निर्मित यह ज्योतिर्लिंग सेतुबंध रामेश्वर के नाम से जाना जाता है।  


श्री घुश्मेश्वर - बारहवां ज्योतिर्लिंग घुश्मेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह ज्योतिर्लिंग मराठवाडा के औरंगाबाद से करीब 12 मील दूर बेरुस गांव के पास अवस्थित है। कथाओं के अनुसार  सुधर्मा नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ देवगिरि पर्वत पर निवास करता था। सुदेहा इस बात को लेकर दुखी रहती थी कि उसके कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए उसने अपने पति से अपनी छोटी बहन घुष्मा से विवाह करने को कहा। घुष्मा शिवभक्त थी। उसने कुछ ही दिनों बाद एक पुत्र को जन्म दिया। बालक बड़ा हुआ। उसका विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ। यह सब देखकर  सुदेहा ने द्वेष वश उसका वध कर दिया। इस समय उसकी माता घुष्मा पार्थिव शिवलिंग बनाकर पूजा कर रही थी।  पूजा समाप्ति के बाद पार्थिव शिव लिंग को विसर्जित करने के लिए जब वह एक झील के पास पहुंची और उसने जैसे ही शिवलिंग का विसर्जन किया,उसका पुत्र जीवित अवस्था में झील में से प्रकट हो गया। पुत्र के साथ स्वयं शिवजी भी थे। शिवजी ने सुदेहा के बारे में सब बतलाते हुए उसे सजा देने की बात की तो दयालु घुष्मा ने अपनी बहन के कुकर्मों को माफ कर देने को कहा। इसी कारण घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है। अंजनी सक्सेना



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