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Bhopal दृष्टिकोण - पहचान पत्रों की अनिवार्यता क्यों ? Viewpoint - Why are identity cards mandatory?

 


Upgrade Jharkhand News.  देश में पहचान पत्रों की अनिवार्यता क्यों है ? सटीक पहचान के लिए आधार कार्ड पर करोड़ों रुपया क्यों बर्बाद किया जा रहा है, जब उनके आधार पर पहचान बताना अनिवार्य नहीं है ? प्रश्न यह है कि क्या किसी भी देश का कानून नाम और पहचान छिपाकर व्यापार करने, नौकरी करने या धार्मिक आयोजन में मुख्य वक्ता बनने की अनुमति प्रदान करता है ? यदि नहीं, तो राजनीतिक दलों के मुखिया नाम और पहचान छिपाकर व्यापार करने को सही कैसे ठहरा सकते है ? यह प्रश्न धार्मिक आयोजनों, मेलों, उत्सवों में पहचान छिपाने के कृत्यों से उपजा है। यूँ तो भारत जैसे पंथ निरपेक्ष राष्ट्र में हर कोई संविधान का अनुपालन करने को प्राथमिकता देता है तथा बार बार यही दोहराता है कि देश सिर्फ और सिर्फ संविधान से चलेगा। इसमें कुछ गलत भी नही है। आम आदमी जिसे राष्ट्र से सरोकार है, वह कभी भी न्याय के विरुद्ध किसी विमर्श को मान्यता नहीं देता, किंतु वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अधिकांश राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म और जाति की राजनीति करने पर आमादा हैं तथा आपराधिक घटनाओं में अपने राजनीतिक स्वार्थ खोज कर समाज का जातीय आधार पर बंटवारा करने के कुत्सित प्रयास में जुटे हैं।      



धार्मिक कथाओं के आयोजन में जाति छिपा कर कथा व्यास बनने में पीछे नही हैं तथा होटल, ढाबे व खानपान की दुकानों के छद्म नाम रखकर सामान्य जन की धार्मिक आस्था से खिलवाड़ कर रहे हैं । ऐसी स्थिति को किसी भी प्रकार से न्याय सम्मत कैसे ठहराया जा सकता है। देश में  साझा संस्कृति आदिकाल से चली आ रही है, किंतु राजनीति के दुकानदारों को राष्ट्रीय एकता व अखंडता की जगह जातीय और धार्मिक वोट बैंक की परवाह है। कोई मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए मुस्लिम वोटों पर एकाधिकार स्थापित करना चाहता है, तो कोई जाति नायक बन कर समाज को अगड़ा, पिछड़ा, दलित सवर्ण में बाँट कर समाज में विघटन के बीज बो रहा है। कहीं ब्राह्मण समाज को खलनायक सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है, कहीं राजपूत समाज को, कभी जाति आधारित दलों के नायक दोगलेपन की सीमाएं लांघते हुए एकपक्षीय समाज विरोधी आचरण करने में जुटे हैं। उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष श्रावण मास में कांवड़ यात्रा का आयोजन होता है। 



जिसमें करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था जुड़ी है तथा श्रद्धालु जन खान पान की शुद्धता का ध्यान रखते हैं। ऐसे में यदि कोई विधर्मी अपनी धार्मिक पहचान छिपाकर छद्म नाम से भोजनालय संचालित करता है, तो उसे धोखाधड़ी का आरोपी क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए? किंतु राजनीति के खिलाड़ी उसे कभी पंथ निरपेक्ष संविधान का अपमान बताकर भाईचारे की भावना के विरुद्ध बताते हैं, कभी अमानवीय कृत्य। वह यह क्यों नहीं स्वीकारते कि धर्म और जाति के आधार पर समाज को विघटित करना भी अमानवीय कृत्य है। यदि सच्चे अर्थ में भाईचारे का संदेश देना है, तो अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, जाति और धर्म की राजनीति को अनुचित क्यों नही ठहराते ? मेरा तर्क है कि अपना असली नाम और पहचान छिपाकर किसी भी पंथ की धार्मिक आस्था से खिलवाड़ करने वाले तत्वों और जातीय आधार पर विघटनकारी राजनीति करने वालों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाए। डॉ. सुधाकर आशावादी



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