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Bhopal व्यंग्य साबित कीजिए कि आप जिंदा हैं Prove you're alive

 


Upgrade Jharkhand News. हर साल नवंबर आते ही ठंड से ज्यादा ठिठुरन सरकारी आदेशों से लगती है। पेंशनर घरों से बाहर निकलते हैं, क्योंकि साबित करना होता कि वे जिंदा हैं! बैंक कह रहा होता है कि, “अगर आप वास्तव में मर नहीं गए हैं, तो फिंगरप्रिंट देकर दिखाइए।” आदमी को मरने के बाद शांति मिलती है या नहीं, पता नहीं , पर पेंशन लेना हो तो जिंदा होने का प्रमाण देना पड़ता है। बैंक के दरवाजे पर लंबी लाइनें हैं। एक ओर बुजुर्ग अपने झुके हुए शरीर को सीधा करने की कोशिश में हैं, तो दूसरी ओर मशीनें हैं जो कह रही हैं ,  “फिंगरप्रिंट मैच नहीं हुआ।” मशीन को क्या पता, इन हाथों ने कभी देश बनाया था ! अब वही हाथ तकनीक के आगे बार बार जिंदा होते हुए भी , जीवन प्रमाण पत्र के लिए अपात्र घोषित हो जाते  हैं। सामने बैठा युवा क्लर्क कहता है — “सर, मशीन आपको पहचान नहीं रही।” बुजुर्ग मुस्कराकर कहते हैं ,  “बेटा, मशीन तो क्या, अब तो अपने बच्चे भी नहीं पहचानते।”



नियम तो नियम है। सरकारी तंत्र में संवेदना की जगह ‘सॉफ्टवेयर’ है। फाइलें तो खैर अब डिजिटल हो गई हैं, पर सोच अब भी वही पाषाणयुगीन है। बैंक वाला, अधिकारी, कंप्यूटर सब एक स्वर में कहते हैं  “जीवन प्रमाण पत्र दो, तभी पेंशन जारी रह सकेगी ।” जीवन प्रमाण न हुआ  वार्षिक टेंडर हो गया , जो हर साल रिन्यू होता है।  पर सोचिए, क्या वाकई केवल पेंशनर ही जिंदा होने का प्रमाण दे रहे हैं? पूरा देश तो रोज साबित कर रहा है कि वह अब भी किसी न किसी तरह सांस ले रहा है। नौकरी वाला रोज बॉस के सामने रिपोर्ट देकर सिद्ध करता है कि वह ‘कार्यशील’ है। गृहिणी पूरे परिवार के लिए रसोई में खड़े होकर हर सुबह यह प्रमाण देती है कि वह ‘कर्तव्यनिष्ठ’ है। छात्र हर परीक्षा में यह साबित करता है कि वह ‘भविष्य ’ है। और सोशल मीडिया पर सक्रिय जन रोजाना एक नई फोटो डालकर लगातार  यह सिद्ध करते रहते हैं कि वे ‘जीवित’ हैं। यानी अब जीवन की सबसे बड़ी कसौटी यही है , प्रूफ ऑफ एक्जिस्टेंस!



वो जमाना गया जब आदमी अपनी आत्मा की आवाज पर जीता था। अब तो जीना भी पासवर्ड से लॉगिन होकर ही शुरू होता है। जो ऑनलाइन है, वही जिंदा है। जिसने दो दिन तक मैसेज का जवाब नहीं दिया, उसके लिए लोग शोकसभा जैसा भाव प्रकट करने लगते हैं  “भाई, कहाँ गायब हो?” अब आदमी शरीर से नहीं, नेटवर्क से जिंदा माना जाता है।  शहरों में जिंदा रहना भी एक कला बन गया है। कोई ईएमआई भरते-भरते आधा मर चुका है, कोई प्रमोशन की दौड़ में बाकी आधा। कोई रिश्तों को ‘म्यूट’ पर रखे हुए है, कोई भावनाओं को ‘आर्काइव’ कर चुका है। चेहरे मुस्कुराते हैं, दिल सोता है। और फिर हम सब कहते हैं “हाँ, हम जिंदा हैं।” पर असली सवाल यह है कि जिंदा कौन है? वह जो सरकारी फाइल में मौजूद है या वह जो अपने भीतर की आग को अब भी जलाए हुए है? कोई पेंशनर लाइन में खड़ा हो सकता है पर भीतर से मरा नहीं है। वहीं, कोई युवा पाँच सितारा दफ्तर में बैठा है पर अंदर से समझौते की जिंदगी जीते जीते सड़ चुका है। सरकार का जीवन प्रमाण पत्र मशीन से मिलता है, आत्मा का जीवन प्रमाण पत्र अंतरात्मा से। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले वाले के लिए अंगूठा चाहिए, दूसरे के लिए साहस।



यह सब देखकर कभी-कभी लगता है कि हमारा सिस्टम आत्माओं का मुर्दाघर बन गया है। यहाँ सिर्फ वही जिंदा माना जाता है जो नियमों से मेल खाता है। जो सवाल पूछे, जो सोचने की हिम्मत करे, उसे ‘नॉन-कॉम्प्लायंट’ घोषित कर दिया जाता है। आदमी की जीवंतता का अर्थ अब सिर्फ यह है कि वह विरोध न करे, बस लाइन में लगा रहे। वोट देता रहे , हां में हां मिलाए और भीड़ के साथ भागता रहे। कहने को सब जिंदा हैं, पर ज़िंदगी का स्वाद किसी के पास नहीं। किसी ने नौकरी के नाम पर नींद बेच दी, किसी ने  आत्मसम्मान। हर कोई सांस ले रहा है, पर जी नहीं रहा। कोई जीने की कोशिश करता है तो समाज कहता है , “इतना एक्टिव क्यों है?” और अगर कोई चुप रहे तो पूछा जाता है  “इतना सुस्त क्यों है?” यानी हर हालत में तुम्हें यह साबित करते रहना है कि तुम ‘समाज की तरह से जिंदा’ हो।



इस सबके बीच पेंशनर का अंगूठा पहचानने में मशीन असफल होती है, आंखे ब्लिंक करवाई जाती हैं पर केटरेक्ट के आपरेशन के चलते मशीन पुतली को भी नहीं पहचानती और यही दृश्य हमारे पूरे समाज का पहचान प्रतीक बन जाता है। मशीनें अब इंसान को नहीं पहचानतीं, और इंसान खुद को पहचानने की स्थिति में बचा नहीं है।  तो जब इस नवंबर में बैंक वाले आपसे कहें कि “साबित कीजिए कि जिंदा हैं,” तो जरा मुस्कराइए और सोचिए ,  सच में कौन जिंदा है? वो जो ठंड में कांपते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है, या वो जो आरामकुर्सी में बैठकर दूसरों की फाइलें रोक रहा है?  असल जीवन प्रमाण पत्र वो नहीं है जो बैंक की मशीन दे, बल्कि वो है जो इंसान खुद अपने भीतर महसूस करे। बाकी तो हम सब बस सरकारी रिकॉर्ड में जिंदा हैं, जीवन में जिंदगी की तलाश में शायद नहीं। तो अब कुछ तो ऐसा करें जिससे साबित हो की हां आप जिंदा हैं। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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