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Bhopal संस्कृति, परंपरा और आस्था की रक्षा करने वालों को सम्मानित करने का दिन है जनजाति गौरव दिवस Tribal Pride Day is a day to honour those who protect culture, tradition and faith.

 


Upgrade Jharkhand News.  भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय आंदोलन एक दीर्घ और प्रेरणादायी यात्रा रही है, जिसमें हर आयु वर्ग के युवा, महिला, बुजुर्ग और बच्चों ने सक्रिय भूमिका निभाई। जम्मू-कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक, हर जाति और समुदाय ने “राष्ट्र प्रथम” की भावना को आत्मसात करते हुए मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। इस राष्ट्रीय आंदोलन में भारत की जनजातियाँ भी कभी पीछे नहीं रहीं। उन्होंने सदैव अपने साहस, पराक्रम और अदम्य बलिदान से राष्ट्र की मर्यादा और स्वाभिमान की रक्षा की।  प्राचीन युग से लेकर मुग़ल और अंग्रेज़ काल तक, जनजातीय समाज ने अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया। हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के साथ पुंजा भील के नेतृत्व में बारह हज़ार भील सैनिकों ने वीरता का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देकर सदा-सदा के लिए अमरता हो गए।


गोंडवाना की वीरांगना रानी दुर्गावती ने मुग़लों से युद्ध करते हुए अपने राज्य और आत्मसम्मान के लिए बलिदान दिया। उनका जीवन भारतीय नारी शक्ति के लिए साहस और त्याग का प्रतीक बन गया। इसी प्रकार भोपाल की रानी कमलापति ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए हँसते-हँसते प्राण त्याग दिए। उनका जीवन आत्मसम्मान और पराक्रम की अमर कहानी है।ब्रिटिश शासनकाल में भी जनजातीय समाज ने स्वतंत्रता की ज्योति को जलाए रखा। मणिपुर की रानी माँ गाईडिल्यु ने मात्र 13 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। उन्होंने अपने क्षेत्र में हो रहे धर्मांतरण का विरोध और नागा समाज में स्वाभिमान की चेतना को जगाया था । उनका जीवन देशभक्ति, त्याग और साहस का अद्वितीय उदाहरण है। मध्य भारत की भूमि जनजातीय वीरों की वीरता से अंकित है। 1857 की क्रांति के समय जब संपूर्ण देश स्वतंत्रता की ज्वाला में दहक रहा था, तब मध्यप्रदेश के जनजातीय नायक भी इस संग्राम में अग्रसर हुए।



बड़वानी के भीमा नायक ने तात्या टोपे को नर्मदा पार कराने में सहयोग दिया और अंबापानी के युद्ध में अंग्रेजों के विरुद्ध वीरता के साथ लड़े। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर अंडमान की जेल भेज दिया। इसी काल में खाज्या नायक ने सात सौ भीलों की एक संगठित सेना बनाकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध मोर्चा खोला। रघुनाथ सिंह भिलाला और सीताराम कँवर ने भी निमाड़ क्षेत्र में विद्रोह कर क्रांति की अलख जगाई।निमाड़ के लोगों में चर्चित “मामा टंट्या भील” का नाम इतिहास के  स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उन्होंने अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई और गरीबों की सहायता की। अंग्रेज उन्हें “भारतीय रॉबिन हुड” कहते थे। 1889 में फाँसी के फंदे पर चढ़ते हुए उन्होंने भारत माता की सेवा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए। सन् 1857 में जब पूरे देश में स्वतंत्रता की ज्वाला भड़की, तब जबलपुर के गोंड राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध जन-जागरण का अभियान प्रारंभ किया । राष्ट्रप्रेम से प्रेरित इन दोनों वीरों ने अपने राज्य में क्रांति की अलख जगाई। अंग्रेजों ने षड्यंत्र रचने के आरोप में उन्हें 14 सितंबर 1858 को गिरफ्तार कर लिया ओर चार दिन तक कठोर यातनाएँ देने के बाद 18 सितंबर 1858 को जबलपुर कोतवाली के सामने तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया। वीर योद्धा पिता-पुत्र देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देकर सदा-सदा के लिए अमर हो गए। 



पूर्वी भारत के वीर तिलका माँझी ने 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ा। उन्होंने वर्षों तक अंग्रेजों को चुनौती दी। अंततः पकड़े जाने पर जनता में दहशत पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें चार घोड़ों से बाँधकर घसीटते हुए भागलपुर में ले जाकर फाँसी दे दी। उनका बलिदान स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभिक अध्याय में स्वर्णाक्षरों से अंकित है। झारखंड के जनजातीय क्षेत्र में अंग्रेज़ शासनकाल के दौरान ईसाई मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किया जा रहा था। इस अन्यायपूर्ण कार्य का बिरसा मुंडा ने दृढ़ता से विरोध किया। उन्होंने जनजाति समाज में जागृति लाने का कार्य किया और स्वाभिमान व धर्मरक्षा का आंदोलन खड़ा किया । उनके नेतृत्व में जनजातीय समाज एकजुट होकर अपनी संस्कृति, परंपरा और आस्था की रक्षा के लिए खड़ा हुआ। अपने साहस, सेवा और नेतृत्व के कारण वे जन-जन के प्रिय बने और “धरती आबा” अर्थात् “धरती पिता”  या “बिरसा भगवान” के रूप में पूजे जाने लगे। ऐसे स्वाधीनता सेनानी और धर्मरक्षक योद्धा का जीवन आज भी गरीब, वंचित और जनजातीय समाज के लिए प्रेरणा और आदर्श है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे असंख्य ज्ञात-अज्ञात जनजातीय वीरों ने भारत माता की बलिवेदी पर हँसते-हँसते अपने प्राण न्यौछावर किए। किंतु दुर्भाग्यवश आज की युवा पीढ़ी को इन महापुरुषों के बारे में बहुत कम बताया गया है। यह हमारे समाज के लिए आत्ममंथन का विषय है।



वर्तमान भारत सरकार ने इन क्रांतिवीरों के योगदान को सम्मानित करने का ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए 10 नवंबर 2021 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में 15 नवंबर, बिरसा मुंडा जी के जन्मदिवस को ‘जनजाति गौरव दिवस’ के रूप में घोषित किया। यह दिवस केवल बिरसा मुंडा जी को ही नहीं, बल्कि उन सभी ज्ञात-अज्ञात जनजातीय बलिदानियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर है, जिन्होंने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। वर्ष 2025, बिरसा मुंडा के जन्म का 150वाँ वर्ष है। यह अवसर हमें स्मरण कराता है कि हमें इन प्रेरणादायी चरित्रों को समाज के समक्ष पुनः प्रस्तुत करना चाहिए। आइए, हम उनके जीवन से यह सीखें कि कैसे एक सामान्य व्यक्ति ने अंग्रेजी सत्ता, धर्मांतरण और पूँजीवाद के विरुद्ध खड़े होकर समाज को संगठित किया और अपने शौर्य, पराक्रम, सेवा तथा धर्मनिष्ठा से “बिरसा मुंडा” से “बिरसा भगवान” बन गए। आज हमारा दायित्व है कि हम इन महान राष्ट्रवीरों के आदर्शों को आत्मसात करें, उनके जीवन से प्रेरणा लें और आने वाली पीढ़ियों को उस गौरवशाली इतिहास से परिचित कराएँ। यही उन बलिदानी आत्माओं के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जब भारत की युवा पीढ़ी इन जनजातीय वीरों की गाथाओं से परिचित होगी, तभी “विकसित भारत, समर्थ भारत” का स्वप्न साकार होगा। (लेखक विद्या भारती मध्य भारत प्रान्त के प्रांत संगठन मंत्री हैं। निखिलेश महेश्वरी



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