Upgrade Jharkhand News. आज पूरे विश्व में जिस विषय पर सबसे अधिक चर्चा हो रही है, वह है पर्यावरण संरक्षण। परंतु प्रश्न यह खड़ा होता है कि पर्यावरण की रक्षा किससे करनी है? और संकट उत्पन्न किसने किया है? धरती पर रहने वाले समस्त जीव-जंतु प्रकृति द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार जीवन जीते हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसने अपनी बढ़ती इच्छाओं, लालच और अंधाधुंध उपभोग के कारण पृथ्वी के संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जल, जंगल, जमीन, वायु और ध्वनि जैसे सभी प्रकार के प्रदूषण बढ़ गए और संपूर्ण जीव-जगत एक गंभीर संकट में पहुँच गया। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि समाधान कहाँ है? इसका उत्तर हमें भारत की प्राचीन, वैज्ञानिक और प्रकृति-सम्मत पर्यावरण दृष्टि में मिलता है। प्रकृति को मातृरूप में देखने वाली भारतीय संस्कृति मनुष्य को प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का मार्ग दिखाती है। यदि मनुष्य इस भारतीय दृष्टि को अपनाते हुए अपनी जीवनचर्या को पर्यावरण अनुकूल बनाता है, तभी पर्यावरण संरक्षण संभव है। अतः आवश्यक है कि मनुष्य अपनी आदतों, आवश्यकताओं और उपभोग की सीमाओं पर पुनः विचार कर प्रकृति के अनुकूल जीवन को अपनाए। क्योंकि प्रकृति बचेगी तो पृथ्वी बचेगी, और पृथ्वी बचेगी तो ही मानवता सुरक्षित रह पाएगी।
आज विश्व जिन पर्यावरणीय संकटों से जूझ रहा है उसका बड़ा कारण पश्चिमी विकास मॉडल है, जो अधिक से अधिक उपभोग पर आधारित है। वहाँ पेड़, पर्वत, नदियाँ और पशु सबको मनुष्य के उपयोग की वस्तु माना गया है। इसी मानसिकता के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हुआ। विश्व के “जी-7” देश अकेले दुनिया के करीब 80% संसाधनों का उपयोग करते हैं, फिर भी प्रदूषण का दोष विकासशील देशों पर डालते हैं। जब तक विकसित देश अपनी जीवनशैली में संयम और संतुलन नहीं अपनाएँगे, तब तक वैश्विक पर्यावरण संकट का समाधान संभव नहीं होगा। रासायनिक खेती ने मिट्टी की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित किया है। रासायनिक उर्वरक मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीवों और केंचुओं को नष्ट कर देते हैं, जिससे मिट्टी का पोषण, नमी और हवा का संतुलन टूट जाता है। कई वर्ष तक रासायनिक खेती करने पर फसलें आकार में बड़ी तो दिखती हैं, पर उनमें पोषक तत्व कम हो जाते हैं। इन रसायनों के अवशेष मानव शरीर में पहुँचकर अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं।
इसी प्रकार जंगलों का विनाश भी बड़ी समस्या बन चुका है। स्वतंत्रता के समय भारत में लगभग 22% भूमि पर जंगल थे, परंतु प्राकृतिक जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। कृत्रिम वृक्षारोपण से आँकड़े भले ही बढ़े हुए दिखें, लेकिन प्राकृतिक जंगलों की जैव विविधता और मिट्टी को जो लाभ मिलता था, वह अब कम हो रहा है। मनुष्य आज अपने सौंदर्य, सजावट और विलासिता के लिए, जानवरों के विनाश का कारण बन रहा है। पशुओं की चमड़ी, हड्डियों, तेल और हाथीदाँत से बनने वाले उत्पादों ने कई प्रजातियों को खत्म होने की कगार पर पहुँचा दिया है। यह उपभोग पर आधारित सोच का ही दुष्परिणाम है। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति हर जीव को प्रकृति के संतुलन का आवश्यक अंग मानती है। यहाँ पेड़ों, नदियों, पर्वतों को माता कहा गया। साँपों को भी नागपंचमी पर दूध पिलाकर यह संदेश दिया जाता है कि हर प्राणी का अस्तित्व मूल्यवान है। जनमेजय के सर्प-यज्ञ को रोकने वाले आस्तिक मुनि का संदेश भी यही था कि किसी भी प्रजाति का विनाश पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ देता है।
मनुष्य आज सौन्दर्य प्रसाधन, सजावट की वस्तुओं और विलासिता के लिए अनेक जीवों का विनाश कर रहा है। जानवरों की चमड़ी, तेल, हड्डियों और खून से बनने वाले उत्पादों तथा हाथीदाँत के व्यापार ने कई प्रजातियों को विनाश के कगार पर ला दिया है। यह पश्चिमी उपभोग आधारित सोच का परिणाम है। भारतीय दृष्टि इसके विपरीत हर जीव को उद्देश्यपूर्ण मानती है। धरती, नदियाँ और वृक्षों को माता मानने की परंपरा ने समाज में प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण की भावना जगाई। यहाँ तक कि साँपों और नागों को भी दूध पिलाकर उनके अस्तित्व को महत्व दिया गया, क्योंकि हर जीव प्रकृति के संतुलन का भाग है। जनमेजय के सर्प-यज्ञ को रोकने वाले आस्तिक का संदेश भी यही था कि किसी प्रजाति का विनाश पूरे पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ देता है। महात्मा गांधी आजीवन कहते रहे कि भारत का विकास गाँवों के आधार पर होना चाहिए। उनका मानना था कि भारतीय जीवन-दृष्टि के आधार पर विकसित समाज ही अंतिम व्यक्ति तक सुख और सुविधा पहुँचा सकता है। परंतु पश्चिमी मॉडल को अपनाने से शहर तो चमक उठे, पर गाँव, किसान और वन क्षेत्रों में रहने वाले लोग पिछड़े ही रह गए। इससे सामाजिक और पर्यावरणीय असंतुलन दोनो बिगड़ गया।
जंगलों की कटाई का दोष अक्सर गरीबों पर लगाया जाता है, जबकि वास्तविक कारण अमीरों की उपभोगवादी प्रवृत्ति है। भारी लकड़ी के फर्नीचर, सजावटी वस्तुएँ, बड़े पलंग, और टिश्यू पेपर बनाने के लिए कटने वाले अनगिनत पेड़। स्पष्ट है कि पर्यावरण संकट गरीबों के कारण नहीं, बल्कि अमीरीकरण के कारण है। जबकि हमारे पूर्वजों ने कहा “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः” अर्थात् त्यागपूर्वक उपभोग करो। भारतीय चिंतन में मनुष्य को प्रकृति का स्वामी नहीं, बल्कि उसका सहयात्री और संरक्षक माना गया है। इसी कारण यहाँ मितव्ययिता, अपरिग्रह और न्यूनतम संग्रह की भावना को सर्वोपरि बताया गया है। भारतीय दर्शन में यह संदेश दिया गया है कि लेने से अधिक लौटाना ही सच्चा धर्म है। इसी संदर्भ में भगवद्गीता की यह प्रार्थना इसका स्पष्ट प्रमाण है—
“जीवने यावदादानं स्यात्, प्रदानं ततोऽधिकम्।
इत्येषा प्रार्थनास्माकं भगवन् परिपूर्यताम्॥” जिसका अर्थ है "जीवन में हम जितना लेते हैं, उससे अधिक लौटाने की क्षमता और संकल्प हमें प्राप्त हों, भगवान, हमारी यह प्रार्थना पूर्ण करें।" इसी मार्ग पर चलते हुए मनुष्य अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकता है और पृथ्वी को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित, स्वस्थ और संतुलित रूप में संरक्षित कर सकता है। पर्यावरण संरक्षण की शुरुआत हमें अपने स्वयं के घर से ही करनी होगी। प्रकृति की रक्षा और संरक्षण प्रत्येक मनुष्य का मौलिक कर्तव्य है, परंतु आज मनुष्य इसी कर्तव्य से विमुख होता जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि हमारी पारंपरिक जीवन शैली पूरी तरह प्रकृति आधारित थी और अब हमें उसी दिशा में लौटने की आवश्यकता है। इस परिवर्तन की शुरुआत बहुत सरल कार्यों से हो सकती है,जैसे पानी बचाएँ, प्लास्टिक हटाएँ और पेड़ लगाएँ।
दूध-सी बहती नदी की धार पुकार रही बार-बार,
दूषित कर तूने मनुष्य, उसे कर दिया है लाचार।
पीने योग्य जल पृथ्वी पर सीमित मात्रा में उपलब्ध है और इसकी कमी निरंतर बढ़ती जा रही है। पानी को हम बना तो नहीं सकते, लेकिन समझदारी से इसका संरक्षण अवश्य कर सकते हैं। प्रयागराज में कांग्रेस महासमिति की बैठक चल रही थी। मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, मदन मोहन मालवीय और महात्मा गांधी सहित कई प्रमुख नेता उपस्थित थे। भोजन के बाद जब हाथ धोने का समय आया, तो जवाहरलाल नेहरू ने एक लोटा पानी लेकर गांधीजी के हाथ धुलाएं। गांधीजी चर्चा में इतने मग्न थे कि एक लोटा पानी अनजाने में समाप्त हो गया। नेहरू जी दूसरा लोटा लाने लगे, तभी गांधीजी का ध्यान गया और वे तुरंत बोले- “मैं एक लोटे पानी में हाथ नहीं धो सका, यह मेरे लिए अपराध है।”नेहरू जी आश्चर्य से बोले- “बापू, यह प्रयागराज है। यहाँ तो गंगा-यमुना बह रही हैं, इतनी चिंता क्यों?” गांधीजी ने शांत स्वर में उत्तर दिया- “गंगा-यमुना केवल मेरे लिए नहीं बहतीं। करोड़ों मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी इन्हीं से जीवन पाते हैं। यदि मैं आवश्यकता से अधिक पानी लेता हूँ, तो किसी और का हिस्सा कम कर देता हूँ।”
गांधीजी का यह प्रसंग इस बात का संदेश है कि प्राकृतिक संसाधन केवल मनुष्यों के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण प्रकृति के प्रत्येक जीव के लिए समान रूप से बने हैं। इसलिए इनका उपयोग हमेशा संयम और जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए। पॉलिथीन का अत्यधिक उपयोग आज कचरा प्रबंधन की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। इसलिए प्रभावी कचरा प्रबंधन के साथ-साथ प्लास्टिक उन्मूलन की दिशा में ठोस कदम उठाना अनिवार्य है। प्लास्टिक के स्थान पर पर्यावरण अनुकूल विकल्प अपनाना होगा, पॉलिथीन का न्यूनतम उपयोग करना होगा, और पुनर्चक्रण की संस्कृति विकसित करना होगी। इन्हें ही समाधान का मूल मंत्र मानकर कार्य करना होगा। पौधारोपण, वृक्षारोपण और जैविक कृषि भारतीय संस्कृति के मूल में रहे हैं। हमारे यहाँ पेड़ केवल पर्यावरणीय आवश्यकता के लिए नहीं, बल्कि लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर लगाए जाते थे। इतिहास में अहिल्याबाई होल्कर जैसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने वृक्षारोपण को समाज हित का महत्वपूर्ण कार्य माना।
भारतीय परंपरा में पेड़ों की समूह-रचना का भी विशेष महत्व रहा है। पंचवटी, त्रिवेणी जैसे वृक्षसमूह इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ऐसे समूह केवल धार्मिक या सांस्कृतिक प्रतीक ही नहीं थे, बल्कि उनमें इस तरह के वृक्ष लगाए जाते थे कि पक्षियों और जीव-जंतुओं को वर्ष भर भोजन और आश्रय मिल सके। इस प्रकार भारतीय अवधारणा में वृक्षारोपण केवल प्रकृति-संरक्षण नहीं, बल्कि समग्र जीव कल्याण का माध्यम रहा है। "हमारे द्वारा उठाए गए ये छोटे-छोटे कदम ही पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे।" भारत का चिंतन समग्रता पर आधारित है। समय बदल गया है, पर हमारी प्रकृति-सम्मत जीवन-दृष्टि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। अब आवश्यकता है कि भारत एक ऐसा विकास मॉडल प्रस्तुत करे जिसमें पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था,तीनों का संतुलन हो। यह दायित्व हम सबका है। यदि हम अपनी परंपरा के सिद्धांतों को अपनाएँगे, तो निश्चित ही एक स्वस्थ, सुरक्षित और पर्यावरण-अनुकूल भविष्य का निर्माण कर पाएँगे। निखिलेश महेश्वरी

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