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Jamshedpur अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ : क्रान्ति, क़लम और कौमी एकता का अमर प्रतीक Ashfaqulla Khan: An immortal symbol of revolution, pen and national unity

 


Upgrade Jharkhand News. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल आंदोलनों और संघर्षों का वृत्तांत नहीं है, बल्कि यह उन अमर व्यक्तित्वों की गाथा भी है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर देश की आज़ादी की नींव मजबूत की। ऐसे ही क्रान्तिकारी नायक थे अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, जिनका नाम भारतीय क्रान्तिकारी आंदोलन में साहस, त्याग और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में सदैव स्मरण किया जाता रहेगा। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म सन् 1900 में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर ज़िले में हुआ। उनका पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ वारसी ‘हसरत’ था। बचपन से ही उनके मन में देशभक्ति की भावना प्रबल थी। ब्रिटिश शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों, भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों और दमन ने उनके हृदय में विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित कर दी। यही कारण था कि उन्होंने कम उम्र में ही स्वतंत्रता संग्राम की राह चुन ली।


क्रान्तिकारी जीवन में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का नाम काकोरी काण्ड (1925) से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यह वह ऐतिहासिक घटना थी, जब हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से काकोरी के पास ट्रेन से सरकारी खज़ाना लूटा। इस योजना के प्रमुख सूत्रधारों में राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ जैसे वीर शामिल थे।



अशफ़ाक़ और राम प्रसाद बिस्मिल की मित्रता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक अद्वितीय उदाहरण है। एक मुस्लिम युवक और एक हिन्दू क्रान्तिकारी के बीच ऐसा अटूट विश्वास और समर्पण था, जिसने साम्प्रदायिक सौहार्द को नई ऊँचाई दी। दोनों का उद्देश्य केवल एक था—भारत माता की स्वतंत्रता। यही कारण है कि उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनुपम प्रतीक माना जाता है। काकोरी काण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने व्यापक दमनचक्र चलाया। अनेक क्रान्तिकारियों को गिरफ़्तार किया गया। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को भी पकड़ा गया और उनके विरुद्ध मुकदमा चलाया गया। अदालत में उन्होंने न तो क्षमा माँगी और न ही अपने सिद्धांतों से समझौता किया। उन्होंने गर्वपूर्वक स्वीकार किया कि उन्होंने देश की आज़ादी के लिए यह मार्ग चुना है और यदि फिर जन्म लूँगा तो वही करूँगा।



शाहजहाँपुर के आग्नेय कवि स्वर्गीय अग्निवेश शुक्ल ने यह भावपूर्ण कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने फैजाबाद जेल की काल-कोठरी में फाँसी से पूर्व अपनी जिन्दगी की आखिरी रात गुजारते हुए अशफ़ाक़ के दिलो-दिमाग में उठ रहे जज्वातों के तूफान को हिन्दी शब्दों का खूबसूरत जामा पहनाया है। विकिपीडिया के पाठकों की सेवा में यहाँ उस कविता के चुनिन्दा अंश दिये जा रहे हैंl“जाऊँगा खाली हाथ मगर,यह दर्द साथ ही जायेगा;जाने किस दिन हिन्दोस्तान,आजाद वतन कहलायेगा। बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा; ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आजाद कराऊँगा।। जी करता है मैं भी कह दूँ, पर मजहब से बँध जाता हूँ; मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कह पाता हूँ। हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा; औ’ जन्नत के बदले उससे, यक नया जन्म ही माँगूँगा।।



तरह अशफ़ाक़ भी बहुत अच्छे शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जाये तो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा। पहली बार की मुलाकात में ही बिस्मिल अशफ़ाक़ के मुरीद हो गये थे जब एक मीटिंग में बिस्मिल के एक शेर का जबाव उन्होंने अपने उस्ताद जिगर मुरादाबादी की गजल के मक्ते से दिया था। जब बिस्मिल ने कहा-

“बहे बहरे-फना में जल्द या रब! लाश ‘बिस्मिल’ की।

कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शमशीर कातिल की।।”



अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई। 19 दिसम्बर 1927 को फैज़ाबाद जेल में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। उस समय उनकी आयु मात्र 27 वर्ष थी। फाँसी के फंदे को चूमते समय उनके चेहरे पर भय नहीं, बल्कि संतोष और गर्व का भाव था। उन्होंने शहादत को मुस्कान के साथ स्वीकार किया। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ केवल क्रान्तिकारी ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील कवि और विचारक भी थे। वे उर्दू भाषा के उत्कृष्ट शायर थे और उनका तख़ल्लुस ‘हसरत’ था। उनकी कविताओं में देशप्रेम, बलिदान और मानवीय संवेदनाएँ स्पष्ट रूप से झलकती हैं। उर्दू के अतिरिक्त वे हिन्दी और अंग्रेज़ी में भी लेखन करते थे। उनके साहित्य में क्रान्ति की आग और इंसानियत की खुशबू एक साथ महसूस की जा सकती है।



उनकी शायरी आज भी युवाओं को प्रेरित करती है और यह संदेश देती है कि आज़ादी केवल राजनीतिक लक्ष्य नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और न्याय का प्रतीक है। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया कि धर्म, भाषा या जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान ही सच्चा राष्ट्रधर्म है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सम्पूर्ण इतिहास में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और राम प्रसाद बिस्मिल की संयुक्त भूमिका एक अमिट अध्याय है। यह जोड़ी बताती है कि जब राष्ट्र सर्वोपरि होता है, तब मज़हब की दीवारें अपने आप गिर जाती हैं। आज के समय में, जब समाज को एकता और सौहार्द की सर्वाधिक आवश्यकता है, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जीवन और बलिदान हमें मार्गदर्शन देता है। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की शहादत केवल अतीत की घटना नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणा है। उनका नाम भारतीय इतिहास में सदैव एक ऐसे क्रान्तिकारी के रूप में अंकित रहेगा, जिसने कलम और क्रान्ति—दोनों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी और हँसते-हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए।



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