- 12 दिसंबर पर विशेष: स्वतंत्रता संग्राम व राष्ट्रवादी विचारधारा में उनकी भूमिका आज भी उदाहरण है
Upgrade Jharkhand News. भारत का स्वतंत्रता संघर्ष इतिहास के पन्नों पर केवल अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध संग्राम का विवरण नहीं, बल्कि वह विचारधारा का भी वृत्तांत है जिसने भारतीय समाज को जागृत, संगठित और आत्मसम्मान से ओत-प्रोत किया। इस वैचारिक धारा के निर्माण में अनेक प्रखर मस्तिष्कों ने योगदान दिया, जिनमें बालकृष्ण शिवराम मुंजे का नाम विशेष गौरव के साथ लिया जाता है। 12 दिसंबर 1872 को जन्मे मुंजे ने युवाकाल से ही राष्ट्रभक्ति को अपना जीवन ध्येय बनाया और आगे चलकर वे हिंदू महासभा के प्रमुख नेता, RSS के वैचारिक आधार-स्तंभ तथा राष्ट्रवादी संगठन-शक्ति के अग्रणी सूत्रधार बने।
मुंजे प्रारंभ से ही मितभाषी, दृढ़ निश्चयी और तर्कशील विचारों के धनी थे। बचपन में ही समाज की स्थिति, गुलामी और राष्ट्रीय सम्मान के प्रश्न उनके मन में उठते रहे। शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने सार्वजनिक जीवन का रास्ता चुना। 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में भारत में राजनीतिक हलचल तेज़ थी—बंग-भंग, स्वदेशी आंदोलन, राष्ट्रीय जागरण और युवाओं के बीच बढ़ती क्रांति चेतना के बीच मुंजे ने स्वतंत्रता की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाई। वे लोकमान्य तिलक के विचारों से प्रभावित हुए और राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक लक्ष्य नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का माध्यम मानते थे।
राजनीति में सक्रिय भूमिका के साथ ही मुंजे हिंदू महासभा से जुड़े। संगठन में उनकी सक्रियता, स्पष्ट वक्तव्य, तर्क और प्रबल नेतृत्व क्षमता ने उन्हें शीघ्र ही शीर्ष पंक्ति तक पहुंचाया। वर्ष 1927-1928 में वे अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उनके नेतृत्व काल में महासभा ने हिंदू समाज के हितों की रक्षा, सांस्कृतिक गौरव की पुनर्स्थापना तथा राष्ट्रीय अस्मिता के मुद्दों पर क्रियाशील कार्यक्रम चलाए। वे मानते थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी जब समाज संगठित, अनुशासित और आत्मविश्वासी हो। इसीलिए उन्होंने आलोचना के कठिन समय में भी हिंदू समाज को संगठित करने का कार्य जारी रखा।
मुंजे के व्यक्तित्व का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के निर्माण में उनकी वैचारिक भूमिका। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार उन्हें अपना राजनीतिक व वैचारिक मार्गदर्शक मानते थे। मुंजे के सुझावों और प्रेरणा से ही संघ की शाखा प्रणाली, गणवेश, सैन्य अनुशासन, शारीरिक प्रशिक्षण तथा चरित्र निर्माण केंद्रित गतिविधियाँ व्यवस्थित रूप ले सकीं। विदित है कि मुंजे यूरोप की यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों को नज़दीक से देखा और समझा कि राष्ट्र की सुरक्षा और सामर्थ्य का आधार संगठित एवं प्रशिक्षित युवा शक्ति ही हो सकती है। यही अनुभव आगे चलकर संघ और उससे प्रेरित संस्थाओं की संरचना में आधारशिला बना।
उनका मानना था कि “राष्ट्र की रक्षा केवल हथियारों से नहीं, बल्कि चरित्रवान और अनुशासित नागरिकों से होती है।” इस विचार के आधार पर वे हमेशा युवाओं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम बनाने की आवश्यकता पर बल देते थे। उनके भाषणों में देशभक्ति, आत्मबल और कर्तव्यबोध की ज्वाला झलकती थी। स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्गत जहां अनेक धारा-प्रवाह उभरे, वहीं मुंजे ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर काम किया। मतभेदों, आलोचनाओं और राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद वे संगठन और विचार की दृढ़ रेखा पर टिके रहे।
1930 के दशक में उन्होंने शिक्षा, राष्ट्रीय रक्षा और स्वदेशी सोच के पक्ष में कई प्रस्ताव रखे। वे चाहते थे कि भारत में युवाओं का सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य हो और देश में ऐसे संस्थान स्थापित हों जहाँ अनुशासन, नेतृत्व और राष्ट्रधर्म की शिक्षा दी जा सके। उनकी यह दृष्टि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी कई सैन्य-प्रेरित सामाजिक संगठनों की दिशा तय करती रही।
3 मार्च 1948 को उनका निधन हो गया, किंतु उनकी विचारधारा आज भी जीवित है। RSS व कई राष्ट्रवादी संगठनों की आचार-नीति में उनके सिद्धांत स्पष्ट दिखाई देते हैं। वे केवल संगठनकर्ता नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद के निर्माता थे―ऐसे पुरुष जिनके प्रयासों ने भारत के राजनीतिक-सामाजिक चिंतन को गहरी दिशा दी।
आज जब देश नए विकास पथ पर बढ़ रहा है, संगठन, अनुशासन, राष्ट्रप्रेम और आत्मगौरव की आवश्यकता पहले से अधिक अनुभव होती है। ऐसे में मुंजे का जीवन और चिंतन एक दीपशिखा की तरह आधुनिक भारत को ऊर्जा प्रदान करता है। राष्ट्रीय चेतना, युवाओं के सामर्थ्य पर भरोसा और संस्कृति-आधारित राष्ट्रशक्ति—यही उनकी विरासत थी, और यही उनकी स्थायी स्मृति भी।
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