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Jamshedpur पहला एंग्लो-सिख युद्ध और पंजाब के गुलाम बनने की शुरुआत, महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, सिख साम्राज्य बिखर गया और अंततः अंग्रेजों का गुलाम बन गया The First Anglo-Sikh War and the beginning of the enslavement of Punjab After the death of Maharaja Ranjit Singh, the Sikh Empire disintegrated and eventually became a slave of the British.

 


Upgrade Jharkhand News. 11 दिसंबर 1845…एक ऐसी तारीख जो पंजाब के इतिहास में गहराई से दर्ज है। यह वही दिन था जब सिख साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच पहला युद्ध शुरू हुआ। यह केवल एक युद्ध नहीं था, बल्कि एक संघर्ष था दो ताकतों के बीच एक तरफ सिख साम्राज्य, जो अपने सम्मान और स्वाभिमान के लिए लड़ रहा था, और दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्य, जो अपने विस्तारवादी मंसूबों के तहत भारत को पूरी तरह अपने कब्जे में लेना चाहता था। दरअसल, महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिख साम्राज्य ने पंजाब को एक शक्तिशाली राज्य बनाया था। रणजीत सिंह ने सिखों की एकता, सैन्य शक्ति और कूटनीति के दम पर पंजाब को एक स्वतंत्र और समृद्ध राज्य बनाया। लेकिन 1839 में उनकी मृत्यु के बाद, सिख साम्राज्य कमजोर होने लगा। उत्तराधिकार की लड़ाई, आंतरिक राजनीति और दरबार में गुटबाजी ने राज्य को कमजोर कर दिया। दूसरी तरफ, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पहले ही भारत के बड़े हिस्सों पर अपना कब्जा जमा चुकी थी। रणजीत सिंह के रहते ब्रिटिश पंजाब को छूने की हिम्मत नहीं कर पाए, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद कंपनी की नजरें पंजाब पर थीं।

लाल सिंह और महाराजा रणजीत सिंह का संबंध रणजीत सिंह के निधन के बाद सिख साम्राज्य के पतन से जुड़ा है; राजा लाल सिंह सिख साम्राज्य के वज़ीर और कमांडर थे, जिन्होंने प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-46) के दौरान अंग्रेज़ों के साथ विश्वासघात किया, जिससे सिख सेना की हार हुई और अंततः सिख साम्राज्य का अंत हो गया, जबकि महाराजा रणजीत सिंह (शेर-ए-पंजाब) ने पंजाब को एकजुट कर एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य स्थापित किया था।
ब्रिटिश और सिख साम्राज्य के बीच एक संधि थी जिसके अनुसार सतलज नदी को दोनों के बीच सीमा माना गया था। लेकिन रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, ब्रिटिशों ने सिखों के कमजोर प्रशासन का फायदा उठाते हुए सतलज के पार अपनी सेना तैनात कर दी। इससे सिखों को लगा कि ब्रिटिश पंजाब पर आक्रमण करना चाहते हैं।


सिख साम्राज्य की सेना, जिसे “खालसा सेना” कहा जाता था, ने ब्रिटिशों के इस कदम को चुनौती देने का फैसला किया। यह निर्णय महारानी जिंद कौर और सेना के प्रमुख लल सिंह के नेतृत्व में लिया गया।11 दिसंबर 1845 को मूडकी के पास सिख और ब्रिटिश सेनाओं का आमना-सामना हुआ। सिख सेना ने बहादुरी से ब्रिटिशों का सामना किया। लेकिन ब्रिटिश सेना, जो बेहतर हथियारों और रणनीतियों से लैस थी, सिखों पर भारी पड़ी। मूडकी की लड़ाई के बाद फिरोज़शाह, बद्दोवाल और अलीवाल जैसी लड़ाइयां हुईं। हर लड़ाई में सिखों ने अपने जज्बे और साहस का परिचय दिया, लेकिन सिख साम्राज्य की आंतरिक राजनीति और विश्वासघात ने उन्हें कमजोर कर दिया था।



10 फरवरी 1846 को सोबरांव के मैदान में निर्णायक लड़ाई हुई। यह लड़ाई बेहद रक्तरंजित रही थी। ब्रिटिश सेना ने भारी तोपों और संगठित रणनीति का इस्तेमाल करते हुए सिख सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया। उस लड़ाई ने सिख साम्राज्य की कमर तोड़ दी। इसके बाद, ब्रिटिशों ने लाहौर पर कब्जा कर लिया और सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया। प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के बाद, लाल सिंह को हेनरी लॉरेंस के अधीन लाहौर राज्य के वजीर के रूप में पुष्टि करके अंग्रेजों द्वारा पुरस्कृत किया गया था । हालांकि, वह अनुग्रह से गिर गया जब यह पता चला कि उसने कश्मीर के राज्यपाल को गुलाब सिंह के कश्मीर घाटी पर कब्जा करने के प्रयासों को विफल करने के लिए लिखित निर्देश भेजे थे, जिसे अंग्रेजों ने अमृतसर की संधि के तहत उन्हें प्रदान किया था । लाल पर कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी में मुकदमा चलाया गया, दोषी पाया गया और 12,000 रुपये प्रति वर्ष की पेंशन के साथ आगरा निर्वासित कर दिया गया। उनका साक्षात्कार पत्रकार जॉन लैंग ने किया, जिन्होंने पाया कि उन्हें अपनी स्थिति के बारे में कोई शिकायत नहीं थी, और उन्होंने पुरातत्व और सर्जरी को शौक के रूप में अपनाया था। बाद में उन्हें डेरा दून ले जाया गया , जहाँ अंततः 1866 में उनकी मृत्यु हो गई। 



1846 में “लाहौर की संधि” के तहत सिख साम्राज्य का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश नियंत्रण में चला गया। लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। सिखों ने 1849 में एक बार फिर अपने खोए हुए राज्य को बचाने की कोशिश की, जिसे “दूसरा एंग्लो-सिख युद्ध” कहा जाता है। लेकिन इस बार भी वे सफल नहीं हो पाए। अंततः 1849 में पंजाब ने अपनी स्वतंत्रता पूरी तरह खो दी और ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया। फिर 1947 में देश की आज़ादी के साथ ही पंजाब की धरती आजाद आकाश मे साँस ले पाई।



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