जमशेदपुर। धर्म सदा एक वितर्कित बिषय रहा है। धर्म का अर्थ कोई आचार, अनुष्ठान को समझा, धर्म का अर्थ कोई समुदाय को समझा, धर्म का अर्थ कोई बिचार धारा को समझा। इसलिए अपने अपने धर्म को बड़ा दिखाने के लिए तथा शक्तिशाली करने के लिए हमेशा धर्म के नाम पर लड़ाई, झगड़ा,विवाद,रक्तपात किया। इसलिए बहुत सारे नास्तिक लोग धर्म को घृणा के दृष्टि से देखते हैं। धर्म को अफीम के साथ तुलना करते हैं। स्वामी विवेकानंद जी कहते है,,,, Religion is realisation.
अर्थात धर्म एक अनुभूति है। अंतर्निहित देवत्व का विकास का नाम ही धर्म है। धर्म एक पवित्र भाव है जो पशु को मनुष्य और मनुष्य को देवता बना देता है। अर्थात अपने अपने भाव को और गुण को जो धारण करता है उसी को धर्म कहा जाता है। जैसे सूरज का धर्म है प्रकाश देना,आग का धर्म है ताप देना,पानी का धर्म है नीचे की ओर बहना, बर्फ का धर्म है शीतलता प्रदान करना। उसी प्रकार मनुष्य का धर्म है आपने आप को जानना,आपने अन्दर बसे हुए देवत्व को पहचानना,अमृतत्व को लाभ करना।
हम सभी एक ही ईश्वर के संतान है। हम सभी ईश्वर का अंश है। ईश्वर महासागर है। हम सागर का एक एक बूंद है।सागर से ही मेरी उत्पत्ति हुई है। एकदिन फिर सागर में जाकर मिल जायेंगे और सागर बन जायेंगे। इसी परम सत्य को जानने का नाम धर्म है। इसमें न कोई हिन्दू है, न कोई मुसलमान, न शिख न कोई ख्रिश्चन। यह सब एक एक जीवन धारा है,धर्म नहीं। अगर पूरी दुनिया मुसलमान हो जाय अथवा ईशाई हो जाय अथवा हिन्दू हो जाय तो इससे आप का क्या लाभ है। आपका आत्म ज्ञान हो जायेगा, आपको ईश्वर प्राप्ति को जाएगा।
आपको मुक्ति मिल जाएगी। नहीं, कदापि नहीं आप जबतक उनको जानने का,उनको पाने का और मुक्त होने का चेस्टा नहीं करेंगे तब तक आपके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता है। इसलिए धर्म एक अनुभूति है,लड़ाई और झगड़ा करने का वस्तु नहीं है जो साधना और तपस्या से प्राप्त किया जाता है। धर्म एक पवित्र भावना है जो सार्बजनिक है,जो सत्य है और सुंदर है।
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