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स्वामी विवेकानन्द, वह व्यक्तित्व है, जिन्होंने संपूर्ण विश्व को मानवतावादी धर्म का पाठ पढ़ाया, Swami Vivekananda is the personality who taught the lesson of humanistic religion to the entire world.


स्वामी विवेकानन्द - सर्वव्यापी ब्रह्मवेता सन्यासी

जमशेदपुर। भारत भूमि महापुरुषों की जन्मदात्री रही है। इस धरती पर ऐसे महानुभावों ने जन्म लिया जिनके प्रभामंडल से निकली ज्ञान की ज्योति ने संपूर्ण विश्वको आलोकित किया है। उन्हीं में से एक महान समाज सुधारक, देशभक्त और प्रज्ञावान पुरुष विवेकानंद का भी उदय भारतीय पटल पर हुआ। स्वामी विवेकानन्द, वह व्यक्तित्व है, जिन्होंने संपूर्ण विश्व को मानवतावादी धर्म का पाठ पढ़ाया और अपने सुंदर आकर्षक व्यक्तित्व से विश्व को सम्मोहित किया। स्वामी विवेकानन्द ने अपने श्रम, आदर्श, ज्ञान एवम विवेक से भारतवर्ष को पुनः समस्त विश्व में जगत गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। 


स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता के सतत साक्षात्कार के लिए लोगों को अपने कमियों को समझने, परखने के लिए प्रेरित किया है तथा बोध कराया है की यदि सत्य का अन्वेषण करना है तो उसके लिए सत्य और असत्य दोनों को भली भांति जानना होगा। यदि हम अपने सम्मुख फैली हुई अनैतिकता को सही ढंग से समझ लेते हैं तो नैतिकता का सृजन स्वयं ही हो सकेगा, क्योंकि हम अनुपयोगी तत्वों को खुद को बचा सकेंगे। स्वयं उनके अनुसार हमें कम से कम हम सच्चे तथा अकपटी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि हम आदर्श का अनुगम नहीं कर सकते, तो अपनी दुर्बलता स्वीकार कर लें, पर उसे हीन न बनाएं उसे अपने उच्च धरातल से न गिराएं। 


शिक्षा के संदर्भ में उन्होंने ये कहा था - यदि गरीब लड़का शिक्षा के मंदिर तक न आ सके तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए। स्वयं उनके शब्दों में, "जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है की ऐसा चक्र - परिवर्तन कर दूं, जो कि उच्च एवम श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वार - द्वार तक पहुंचा दें। " बालकों के व्यक्तित्व में उचित एकीकरण लाने की पद्धति संश्लेषणात्मक है जो कि शिक्षा के निर्माणात्मक और रचनात्मक पहलुओं पर बाल डालता है। स्वामी जी नैतिकता के सतत साक्षात्कार के लिए लोगों को अपने कमियों को समझने, परखने के लिए प्रेरित किया है। स्वामी जी भारतीय दर्शन की आधार पर शिक्षा के प्रचारक रहे हैं। भारतीय सनातन मूल्यों को आधार बनाते हुए इन्होंने शिक्षा को मानव जीवन का एक अभिन्न अंग बताया। यद्धपि शिक्षा के द्वारा समाज व संसार में अनेक परिवर्तन लाए जा सकते हैं, परंतु उन परिवर्तनों को स्थायी रखने के लिए मनुष्य को सामाजिक स्तर पर अपनी नैतिकता को उच्च करना होगा तथा शिक्षा के विकास की परंपरा को सशक्त बनाना होगा। इन्होंने भारतीय शिक्षा को न मात्र भारतवर्ष ही अपितु सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करने का कार्य किया है। 


जनसामान्य को संदेश देते हुए कहा कि - "हमें ऐसी शिक्षा को आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। वर्तमान युवाओं को आज स्वामीजी के आदर्शों को अपनाना चाहिए जो अत्यंत आवश्यक है -एकाग्रता की शक्ति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य में रहें जिससे उन्हें बौद्धिक एवम आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। वासनाओं को वश में करना चाहिए। काम-शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति में रूपांतरित कर देना चाहिए। ब्रह्मचर्य में स्मृति शक्ति का विकास होता है और पवित्रता का भाव जागृत होता है। ब्रह्मचर्य का अभ्यास, योग का अभ्यास उसमें मूल्य विकसित कर भारत का युवा विश्व मानस पर विजय प्राप्त कर सकता है। स्वामीजी ने इंद्रिय निग्रह को प्रमुखता प्रदान करते हुए चारित्रिक श्रेष्ठता और व्यवहारिक व्यापकता को मनुष्य का एक प्रमुख उपयोगी तत्व बतलाया। 


स्वामीजी ने नवयुवकों से कहा - "देखो एक मात्र ब्रह्मचर्य ठीक ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्याएं बहुत ही कम समय में हस्तगत हो जाती है। मनुष्य श्रुतिधर, स्मृतिधर बन जाता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से हमारे देश का सब कुछ नष्ट हो गया।"विवेकानंद ने भी समाज के बहुआयामी विकास के लिए सनातन मूल्यों पर आधारित शिक्षा पद्धति का अभ्युत्थान किया। शारीरिक एवम नैतिक शिक्षा पर विशेष बल दिया। स्वामीजी तत्कालीन शिक्षा से अत्यधिक क्षुब्ध थे। वे मानते थे की शिक्षा मात्र शुष्क ज्ञान देती है। बालक को शक्तिहीन बताकर उसमे अहंकार पैसा कर ऊंच नीच की खाई पैदा करती है। स्वामीजी के अनुसार - " हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिसके द्वारा चरित्र-निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।"


वास्तव में स्वामीजी शिक्षा द्वारा आंतरिक ज्ञान का अनुभव, व्यवहारिक ज्ञान तथा आत्मनिर्भरता की प्राप्ति चाहते थे। वे स्पष्ट रूप से देश के जन-साधारण तक उपयोगी शिक्षा की पहुंच चाहते थे। शिक्षा मात्र ज्ञानार्जन की प्रक्रिया नहीं अपितु विद्या को प्राप्त करने में असीमित योगदान प्रदान करती है जिसके द्वारा मनुष्य विनयशील, विनम्र एवम चरित्रवान तथा विद्वता के मूलरूप को प्राप्त कर सकता है। आज आध्यात्मिक शिक्षा की आवश्यकता अनुभूत होती है। समसामयिक मानवीय नैतिकता से पोषित मानवीय इच्छा को प्रावर्धनार्थ स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचारों की उपादेयता अत्यंत प्रासंगिक व औचित्यपूर्ण प्रतीत होती है। 


स्वामी जी कहते हैं, "सुशिक्षिता और सच्चरित्रवती ब्रह्मचरिणियां शिक्षा कार्य का भार अपने ऊपर ले लें। ऐसे सच्चरित्र निष्ठावान उपदेशिकाओं के द्वारा स्त्री में स्त्री शिक्षा का यथार्थ प्रचार होगा।" स्त्री शिक्षा स्त्रियों के द्वारा ही दी जानी चाहिए। आधुनिक युग में नारियों की आत्मरक्षा के उपायों  को भी सीखना चाहिए। संघमित्रा, लीलावती, अहिल्याबाई, मीराबाई, झांसी की रानी के आदर्शों को अपनाकर स्त्रियों की पवित्रता, निर्भयता और ईश्वर की परायणता के गुणों का अभ्यास करना चाहिए। 


नरेंद्रनाथ अपने साथ दक्षिणेश्वर को आए अन्य नवयुवकों से बिल्कुल भिन्न थे। उनका अपने कपड़ों तथा बाह्य सज्जा की ओर जरा भी ध्यान न था। उनकी आंखें प्रभावशील तथा अंशतः अंतर्मुखी थीं, जो उनके ध्यानतन्यता की घोतक थीं। उन्होंने अपने हृदय की पूर्ण भावुकता के साथ कुछ भजन गाए। उनके पहले भजन की कुछ पंक्तियां निम्न थी -

         मन ! चल घर लौट चलें। 

         इस संसार रूपी विदेश में

         विदेशी का वेश धारण किए

         तू वृथा क्यों भटक रहा है। 

नरेंद्रनाथ का श्रीरामकृष्ण से मिलन दोनों के ही जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी। श्रीरामकृष्ण, नरेंद्रनाथ के जागतिक कलमष से रहित साक्षात नारायण की प्रतिमूर्ति मानकर उनसे स्नेह करते थे। स्वामीजी कहते हैं ज्ञान ब्रह्म का लक्षण है। इसके लिए हमें निरंतर आत्मज्ञान को विस्तृत करना होगा, अनुभव को समृद्ध करना होगा और आत्मसंतोष की वृतियों पर नियंत्रण स्थापित करना होगा। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द विराट ब्रह्मवेता सन्यासी थे। 


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