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Bhopal. योग के अग्रदूत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती , Yoga pioneer Paramhansa Swami Niranjananand Saraswati


Upgrade Jharkhand News.  परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती शुद्ध परंपरागत योग के अग्रदूत हैं। 14 फरवरी को उनका  अवतरण दिवस है। वे विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी हैं।  योग निद्रा जीवन में किस तरह चमत्कार पैदा करता है, इसके जीवंत उदाहरण हैं स्वामी निरंजनानंद सरस्वती । औपचारिक शिक्षा कुछ भी नहीं पर असीमित ज्ञान के सागर हैं। उन्हें योग निद्रा के जरिए ही सारी शिक्षा मिल गई थी। 14 फरवरी का दिन बाल योग दिवस के रुप में मनाया जाता है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी  निरंजनानंद के बारे में  कहा था-"स्वामी निरंजन ने मानवता के कल्याण के लिए ही जन्म और सन्यास लिया है। वह सक्षम प्रतिभा संपन्न हैं इसलिए मैंने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया है। जब वह चार साल का था तभी मैंने चुन लिया था और उसी लक्ष्य के अनुरूप उसकी शिक्षा-दीक्षा आरंभ कर दी थी। पर उसे यह मालूम नहीं था कि वह एक दिन मेरा उत्तराधिकारी बनेगा। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है वह नई पीढ़ी से सहजता से व्यवहार कर लेता है मेरी सोच पचास साल पहले की है लेकिन वह आज की पीढ़ी की तरह सोच सकता है।"



बात 1956 की है। स्वामी सत्यानंद ऋषिकेश स्थित स्वामी शिवानंद के आश्रम में रह रहे थे। उन्होंने स्वामी सत्यानंद को अपने पास बुलाया और कहा कि आपके जाने का समय आ गया है। जाओ और दुनिया में परिव्राजक की तरह घूमो। दुनिया को योग सिखाओ। स्वामी सत्यानंद संसार भ्रमण के लिए निकल पड़े। 1963 तक वह परिव्राजक की तरह भ्रमण करते रहे। स्वामी सत्यानंद को वे बीस साल बाद वापस मिले और इस अवधि में दुनिया को सत्यानंद के जरिए योग मिला। इन्हीं बीस सालों में मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई,  जहां से निकल कर सत्यानंद पूरी दुनिया में जाते थे, और पूरी दुनिया से निकल कर लोग बिहार योग विद्यालय आते रहे। एक से एक प्रामाणिक, वैज्ञानिक योग ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। बीसवीं सदी में योग का जो पुनर्जागरण होना था बिहार योग विद्यालय उसका केन्द्र बन गया और स्वामी सत्यानंद सूत्रधार।



दुनिया का शायद ही कोई ऐसा महाद्वीप होगा जहां स्वामी सत्यानंद ने योग का बीज न बोया हो। अरब से लेकर अमरीका तक। अफ्रीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक। स्वामी शिवानंद का यह परिव्राजक सन्यासी पूरी दुनिया में घूम घूम कर योग का बीज बो रहा था, जो आगे चल कर पुष्पित और पल्लवित होने वाला था। लेकिन, एक तरफ जहां वे वर्तमान की जमीन पर योग के बीज रोपित कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ, भविष्य में इसके रख रखाव की योजना पर भी काम कर रहे थे, ताकि फूल खिलने से पहले मुरझा न जाए। यह कोई दस-बीस साल का मामला नहीं था। अब तो यह शताब्दियों का मामला है। एक पवित्र परंपरा के पुनर्जागरण काल में सिर्फ वर्तमान नहीं होता। उसका अपना एक भविष्य होता है, और उस भविष्य की अपनी एक योजना भी। चार साल के स्वामी निरंजन इसी दैवीय योजना का हिस्सा होकर बिहार स्कूल आफ योगा पहुंचे थे।



1964 बिहार स्कूल आफ योगा और स्वामी निरंजन दोनों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण साल है। इसी साल मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई और इसी साल चार साल के निरंजन योग विद्यालय में प्रविष्ट हुए। छत्तीसगढ़ के      राजनादगांव में 14 फरवरी 1960 को जन्मे स्वामी निरंजनानंद की जीवन दिशा उनके गुरु स्वामी सत्यानंद द्वारा निर्देशित रही। यहां उन्हें गुरु ने योगनिद्रा के माध्यम से योग और आध्यात्म का प्रशिक्षण दिया। कम उम्र में ही वे इतने योग्य हो चुके थे कि सन् 1971 में स्वामी सत्यानंद ने उन्हें दशनामी सन्यास परंपरा में दीक्षित करने के बाद काम पर लगा दिया। उन्हें विदेशों में योग केन्द्रों की स्थापना करनी थी। जहां योग केन्द्र स्थापित हो चुके थे उनके संचालन को भी सुनिश्चित करना था। उन्हें न सिर्फ योग समझाना था, बल्कि दुनिया की विविध संस्कृतियों को समझना भी था। सांस्कृतिक एकता के यौगिक सूत्रों की खोज करनी थी। अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक। वहां उन्होंने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. जो. कामिया के साथ विशेष तौर पर ध्यान और प्राणायाम के क्षेत्र में अनुसंधान का काम किया। सैनफ्रान्सिस्को, कैलिफोर्निया के ग्लैडमैन मेमोरियल सेंटर के जापानी डॉ. टॉडमिकुरिया ने उन पर ध्यान संबधी शोध किए।



जिस समय स्वामी निरंजनानंद विदेश के लिए निकले, उस समय स्वामी सत्यानंद के योग आंदोलन के परिणामस्वरूप केवल फ्रांस में 77 हजार पंजीकृत योग शिक्षक थे। उस समय के लिए यह बहुत बड़ी संख्या थी। उन दिनों वे सिर्फ इन योग शिक्षकों को प्रशिक्षित करते थे, ताकि वे अपने स्कूलों में लौट कर विद्यार्थियों को प्रशिक्षित कर सकें। बाद में यह आंदोलन रिसर्च ऑन योगा इन एड्यूकेशन के नाम से पूरी दुनिया में फैल गया। यूरोप में इस आंदोलन का सूत्रपात पेरिस की स्वामी योग भक्ति और कैनेडा में स्वामी अरुन्धति ने आरंभ किया गया। इस आंदोलन का नाम योगा एड्यूकेशन इन स्कूल रखा गया। यह आंदोलन उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका में काफी लोकप्रिय हुआ। इसके परिणाम स्वरूप अनेक देशों की शिक्षा पद्धति में मुंगेर के योग को शामिल किया गया। निरंजनानंद सरस्वती ने 11 वर्षों तक, यानी 1983  तक  यह सब किया। तेईस साल की उम्र में यह काम पूरा कर वह मुंगेर वापस लौट आये। सामान्य तौर पर इस उम्र में कोई नौजवान घर के बाहर कदम रखता है।  



भारत लौट कर वे बिहार योग विद्यालय, शिवानंद मठ और योग संस्थान की गतिविधियों के संचालन में संलग्न हो गए। सन् 1990 में वे सन्यास परंपरा में दीक्षित हुए।1993 में सन्यास परंपरा की मार्तण्ड विभूतियों द्वारा स्वामी सत्यानंदजी के उत्तराधिकारी के रूप में अभिषिक्त हुए। सन् 1995 के शतचंडी महायज्ञ में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आध्यात्मिक शक्ति उन्हें हस्तांतरित कर, परंपरा के गुरु और परमाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। इस बीच स्वामी निरंजनानंद ने अथक परिश्रम से बिहार योग विद्यालय को विश्व विद्यालय की प्रतिष्ठा तक पहुँचाया। स्वामी सत्यानंद द्वारा बोये गये योग की फसल की देखभाल भी वे एक माली की तरह करते रहे हैं। सन् 1993 के विश्व योग सम्मेलन के बाद गंगा दर्शन में बाल योग मित्र मंडल की स्थापना की गयी। इसका आरंभ मुंगेर के सात छोटे बच्चों से किया गया और आज मुंगेर शहर में ही बाल योग मित्रमंडल में 5000 से अधिक प्रशिक्षित बच्चे योग शिक्षक हैं। मुंगेर में यह संख्या 35 हजार और पूरे भारत में 1,50000 है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं—’बाल योग मित्रमंडल को तीन लक्ष्य दिए हैं — योग के द्वारा संस्कार प्राप्त करना, योग के द्वारा ऐसी प्रतिभा को प्राप्त करना जिससे बिना किसी पर आश्रित रहे अपना जीवन चला सके और योग को आधार बनाकर अपने जीवन को संस्कृति से युक्त कर सके। संस्कार, स्वाबलंवन, संस्कृति और राष्ट्र प्रेम यही बाल योग मित्रमंडल के लक्ष्य हैं।’ इन बच्चों ने तीन आसनों, दो प्राणायामों, शिथिलीकरण एवं धारणा के एक—एक अभ्यास का चयन किया। यह प्रयोग सात सौ बच्चों पर किया गया और उसकी रचनात्मकता, व्यवहार और व्यक्तिगत अनुशासन पर हुए असर की जांच की गयी तो इसमें गुणात्मक परिवर्तन पाया गया।



इन बच्चों को न सिर्फ योग की शिक्षा दी जाती है, बल्कि कराटे, आधुनिक नृत्य, मंत्रोच्चार, स्पोकन इंग्लिश की भी शिक्षा दी जाती है। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम  दो बार मुंगेर बच्चों के कार्यक्रम में भाग लेने आए । उन्होंने मुंगेर को योग नगरी की संज्ञा दी। स्वप्रेरणा से दूसरी बार बिहार योग विद्यालय के परिसर में पधारे बिहार के तत्कालीन राज्यपाल रामनाथ कोविन्द ने अपने उद्गार में कहा था कि ‘ मुंगेर न केवल भारत की योग नगरी है बल्कि पूरे विश्व की योग की राजधानी है। इसमें ताकत है और वह ताकत इसलिए यहां हैं क्योंकि यहां की जो सकारात्मकता है वही सब को यहाँ खींच लाती है। ये जो योग शिक्षक बच्चे और बच्चियां यहां से निकल रहे हैं, ये  योग के संवाहक और बिहार की सकारात्मक छवि के संवाहक बन सकते हैं।’



स्वामी निरंजनानंद ने 1994 में विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती की तथा 2000 में योग पब्लिकेशन ट्रस्ट की स्थापना की। मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों के संचालन के साथ उन्होंने दुनिया भर के साधकों का मार्ग दर्शन करने हेतु व्यापक रूप से यात्राएं की। सन् 2009 में गुरु के आदेशानुसार सन्यास जीवन का एक नया अध्याय आरंभ किया। योग दर्शन एवं जीवन शैली की गहन जानकारी रखने वाले स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने योग, तंत्र, उपनिषद पर अनेक प्रमाणिक पुस्तकें लिखी हैं।

2013 के विश्व योग सम्मेलन के बाद अपनी तरह की यह पहल कुछ ऐसी ही अनूठी है जैसे साठ या सत्तर के दशक में स्वामी सत्यानंद ने विदेशों में की थी। इस सम्मेलन के बाद यौगिक पुर्नजागरण का शंखनाद किया। साथ ही, इसी साल से उन्होंने योग का प्रसाद वितरित करने के लिए योग यात्राओं का सिलसिला आरंभ किया। यौगिक शिक्षण के नए अध्याय को विकसित कर योग को शारीरिक अभ्यास की जगह जीवन शैली में विकसित करने की मुहिम चला रहे हैं। भारत की अनेक प्राचीन विद्याओं एवं परंपराओं की पुनप्रतिष्ठा हेतु प्रयासरत हैं। इसी श्रृंखला में वैश्विक स्तर पर योग संबधी एक रोचक घटनाक्रम आरंभ हुआ। वह था अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का प्रस्ताव, अनुमोदन और अंतत: बड़े पैमाने पर आयोजन। यह पूरी दुनिया के योग साधकों के लिए एक खास मौका साबित हुआ। 



स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार-'अगर आप अपनी जीवन शैली को सुधारने के लिए योग का उपयोग करना चाहते हैं तो आपको अपने जीवन में सकारात्मक विचार और गुण लाने होंगे। जैसे ही आप अपने विचार सकारात्मक बनाते हैं, आप अपने जीवन में यौगिक रूपान्तरण आरंभ कर देते हैं। "स्वामी शिवानंद कहा करते थे कि विचार रूपी बीज ही अंतत: नियति रूपी वृक्ष बन जाता है। "जिस तरह स्वामी सत्यानंद लोक कल्याण के लिए योग और सन्यास की एक पगडंडी बनाते जा रहे थे, निरंजनानंद  उसी पगडंडी पर आगे बढ़ रहे हैं। इस पगडंडी के दो ही सिरे हैं योग और सन्यास,मुंगेर और रिखिया। स्वामी सत्यानंद ने अपने आचरण से एक सन्यासी के लिए योग को कर्म और सन्यास को सेवा के रूप में सिर्फ परिभाषित ही नहीं किया  बल्कि प्रतिस्थापित भी किया। वर्ष 2017 में भारत सरकार ने इनके इसी विशिष्ठ योगदान के लिए पद्मभूषण अलंकरण से सम्मानित किया है। जिस स्वामी निरंजन को स्वयं स्वामी सत्यानंद ने भविष्य के लिए चुना हो,परमहंस की उपाधि दी हो वे भला कोई सामान्य सन्यासी कैसे हो सकते हैं ? कुमार कृष्णन



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