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Bhopal. संदेह के घेरे में न्यायिक अधिकारियों की कार्यप्रणाली, The functioning of judicial officers is under suspicion


Upgrade Jharkhand News. दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर लगी आग के बाद भारी मात्रा में नकदी के वीडियो वायरल होने के बाद न्यायपालिका के आधिकारियों की कार्यप्रणाली पर संदेह व्यक्त किया जाने लगा है । यह मामला इतना गंभीर हो गया कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के नेतृत्व वाले कॉलेजियम को उन्हें तत्काल स्थानांतरित करने का फैसला लेना पड़ा। साथ ही फिलहाल उन्हें न्यायिक कार्य से भी अलग कर दिया गया है। इस मामले में मुंबई के  वकीलों ने भी एक याचिका लगाई है। इस याचिका में कहा गया है कि जज के घर पर बड़ी मात्रा में पैसा मिलना एक आपराधिक मामला है। इसके लिए तीन जजों की जांच कमेटी बनाने की बजाय पुलिस समेत दूसरी एजेंसियों को जांच के लिए कहना चाहिए।


 

याचिका में यह कहा गया है कि 14 मार्च को जज के घर में जली हुई नकदी मिलने के तुरंत बाद एफआईआर दर्ज होनी चाहिए थी और गिरफ्तारी भी होनी चाहिए थी, लेकिन अब जजों की जांच कमेटी को मामला सौंप दिया गया है, जो कि सही नहीं है। जिस तरह आम नागरिकों के खिलाफ आपराधिक मामले में एफआईआर दर्ज होती है, वैसा ही इस मामले में भी होना चाहिए था। याचिका में दावा किया गया है कि जजों को अलग दर्जा दे देने के चलते कुछ मौकों पर पॉक्सो जैसे गंभीर मामलों में भी वह एफआईआर से बच गए हैं। नेशनल लॉयर्स कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल ट्रांसपेरेंसी एंड रिफॉर्म्स नाम की संस्था से जुड़े इन याचिकाकर्ताओं ने याद दिलाया है कि जजों के भ्रष्टाचार और दूसरे गलत आचरण की जांच के लिए 2010 में संसद में ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड्स एंड अकाउंटेबिलिटी बिल लाया गया था, लेकिन वह कानून नहीं बन सका।



उल्लेखनीय है कि 14 मार्च को जस्टिस वर्मा के सरकारी बंगले में आग लग गई थी। जज के निजी सचिव ने पीसीआर को बुलाया। इसके बाद आग पर तो काबू पा लिया गया लेकिन इस दौरान पुलिस और दमकल कर्मियों को बंगले के अंदर एक कमरे में कई बोरियों में बड़ी मात्रा में नोटों का ढेर दिखा। यह ढेर आधा जलकर खाक हो गया था। यह बात बड़े अधिकारियों तक पहुंची और फिर सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंच गया। जानकारी के अनुसार चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने इस मामले में एक्शन लेते हुए फौरन सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की बैठक बुलाई जिसमें जस्टिस वर्मा का ट्रांसफर इलाहाबाद हाई कोर्ट करने का फैसला लिया गया। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपने स्तर पर जांच शुरू कर दी। अब तक जांच में जो कुछ सामने आया है, वह सब सुप्रीम कोर्ट ने पब्लिक डोमेन में उपलब्ध करा दिया है। इसमें नोटों के ढेर की अधजली तस्वीर भी शामिल है।



14 मार्च की रात जज के निजी सचिव ने आग लगने की सूचना दी थी। फायर ब्रिगेड को अलग से कॉल नहीं किया गया था। दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने 15 मार्च की सुबह मामले की जानकारी दी। पुलिस कमिश्नर ने अधजले कैश की तस्वीरें और वीडियो भी हाईकोर्ट चीफ जस्टिस को भेजीं। कमिश्नर ने बाद में दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को यह भी बताया कि जज के बंगले के एक सिक्युरिटी गार्ड ने उन्हें बताया कि 15 मार्च को कमरे से मलबा साफ किया गया है। इसके बाद मामले को दबाने झुठलाने का सिलसिला शुरू हो गया।कभी फायर सर्विस के एक अधिकारी के बयान से कोई नकदी नहीं मिलने की बात कही गई तो कभी जज साहब का स्थानांतरण नियमित प्रक्रिया में होने के बयान आए। लेकिन सोशल मीडिया के जमाने में जज साहब के घर की आग में अधजले नोटों के बोरों की तस्वीर वायरल हो गई और अंततः जिम्मेदार बड़ी अदालत को इस सबको लेकर अपना नजरिया साफ करना पड़ा। 



इस मामले में जब दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने जस्टिस वर्मा से मुलाकात की तो जस्टिस वर्मा ने किसी कैश की जानकारी होने से इनकार किया। यह भी कहा कि वह कमरा सब इस्तेमाल करते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने उन्हें वीडियो दिखाया तो उन्होंने इसे साजिश बताया। दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस ने भारत के मुख्य न्यायधीश को भेजी चिट्ठी में गहराई से जांच की जरूरत बताई है। भारत के मुख्य न्यायधीश के निर्देश पर जस्टिस वर्मा का पिछले छह महीने का कॉल रिकॉर्ड निकाला गया है। जस्टिस वर्मा से यह भी कहा गया है कि वह अपने फोन को डिस्पोज न करें, न ही चैट मिटाएं। इस घटनाक्रम में संविधान के अनुसार, किसी भी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के खिलाफ भ्रष्टाचार, अनियमितता या कदाचार के आरोपों की जांच के लिए 1999 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन-हाउस प्रक्रिया तैयार की गई थी। इस प्रक्रिया के तहत, सीजेआई पहले संबंधित न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगते हैं। यदि जवाब संतोषजनक नहीं होता या मामले में गहन जांच की जरूरत महसूस होती है, तो सीजेआइ सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश और दो उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की एक इन-हाउस जांच समिति गठित कर सकते हैं। हालांकि फिलहाल केवल वर्मा के ट्रांसफर का फैसला लिया गया है,उनका  निलंबन नहीं हुआ है । जांच के बाद जज वर्मा के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई करने की बात कही जा रही है। कुछ जज इस मामले में सिर्फ तबादले की कार्रवाई को ठीक न मानते हुए न्यायमूर्ति वर्मा से इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। जजों का कहना है कि अगर वे इस्तीफा देने से मना करें तो सीजेआई उनके खिलाफ 1999 की प्रक्रिया के अनुसार जांच शुरू कराएं। इस मामले में किसी भी जज के खिलाफ शिकायत मिलने पर जांच कराई जाती है। चलिए जानें कि ऐसे मामलों में कहां और कैसे एक्शन लिया जाता है।



इस तरीके के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की 1999 में बनाई गई इन-हाउस प्रक्रिया के तहत कार्रवाई की जाती है। इस प्रक्रिया में न्यायालयों के जजों के खिलाफ गलत काम, अनुचित व्यवहार और भ्रष्टाचार जैसे आरोपों से निपटा जाता है। इस प्रक्रिया के तहत सीजेआई को किसी जज के खिलाफ शिकायत मिलने पर वह उससे जवाब मांगते हैं। अगर जवाब से सीजेआई संतुष्ट नहीं होते हैं या अगर उनको लगता है कि इस मामले की गंभीर तरीके से जांच की जानी चाहिए तो वह एक इन-हाउस जांच पैनल बनाते हैं। इस पैनल में सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश और हाईकोर्ट के दो मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं। फिर जांच के नतीजों के अनुसार उनका इस्तीफा मांगा जाता है या फिर महाभियोग चलता है। जज के आवास से नकदी की बरामदगी से संबंधित मामला राज्यसभा में भी उठाया गया। सभापति जगदीप धनखड़ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर एक व्यवस्थित चर्चा एवं बहस कराने की कोशिश करेंगे।  नकदी की कथित बरामदगी के मुद्दे पर धनखड़ ने कहा कि उन्हें जिस बात की चिंता है वह यह है कि यह घटना हुई लेकिन तत्काल सामने नहीं आई। उन्होंने कहा कि अगर ऐसी घटना किसी राजनेता, नौकरशाह या उद्योगपति से जुड़ी होती तो संबंधित व्यक्ति तुरंत निशाना बन जाता। उन्होंने ऐसे मामलों में ऐसी प्रणालीगत प्रक्रिया की वकालत की जो पारदर्शी, जवाबदेह और प्रभावी हो।



सोचने वाली बात है कि किसी अन्य नौकरी में भ्रष्टाचार उजागर होने पर तुरंत निलंबन और जांच होती है। लेकिन यहाँ न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को ताक पर रखकर केवल स्थानांतरण कर दिया गया। जब ऐसे घटनाक्रम होते हैं, तो न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठना लाज़मी है। अगर चीफ जस्टिस खुद न्यायपालिका की साख को बचाने की चिंता नहीं करेंगे, तो आम जनता किससे उम्मीद करे? दरअसल देश में भ्रष्टाचार चरम पर है और कई बार न्यायपालिका के फैसलों और न्यायिक अधिकारियों की कार्यप्रणाली और गतिविधियों पर भी सवाल किए जाते रहे हैं। अब इन हालातों में  न्यायिक अधिकारियों पर भी पैसे लेकर फैसले देने के आरोप लग रहे हैं,तब समाज में कानून व्यवस्था को लेकर अविश्वास का माहौल पनपना स्वाभाविक है। और अब तो बाकायदा एक हाइकोर्ट के जज के आवास से नोटों के अधजले बंडल चीख चीख कर कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहराईयों तक पहुंच चुकी है। न्याय की कुर्सी पर बैठ कर इस तरह अवैध अकूत संपदा एकत्र करने वाले व्यवस्था के सरमाएदार बने  लोग समाज में कितना गलत संदेश दे रहे हैं, यह लोकतांत्रिक देश में न्याय पालिका की गैरजिम्मेदाराना स्थिति को बयान करता है। ऐसे मामलों में तत्काल सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए ताकि भविष्य में कोई सरकारी अधिकारी देश के आम आदमी के विश्वास से खिलवाड़ न कर सके। मनोज कुमार अग्रवाल



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