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Bhopal. "मौन हैं वो, पर उनके दर्द की आवाज़ अब गूंजनी चाहिए, "They are silent, but the voice of their pain must resonate now..


Upgrade Jharkhand News.  क्या आपने कभी मोर की आंखों में आँसू देखे हैं?  या किसी घायल हिरण की कंपकंपाती सांसों को महसूस किया है?  क्या आपको पता है कि वह खरगोश, जो कभी बच्चों के खेल का साथी था आज किसी क्रूर शिकारी की भूख का शिकार बनता है?हैदराबाद के जंगलों में जो हो रहा है, वह सिर्फ जंगल की त्रासदी नहीं है यह हमारी इंसानियत की हार है।  वो मोर जो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है,  वो हाथी जो गणेशजी का वाहन है,  वो हिरण जो हर जंगल का सौंदर्य है, वो कुत्ता जो हमारी वफादारी का प्रतीक है, वो खरगोश जो मासूमियत की मिसाल है। वो गाय जो हम सबकी माता हे ये सब अब खतरे में हैं। शिकार, तस्करी, जहर, आग कितनी अमानवीयता और सहेंगे ये?हम इंसान हैं, हम बोल सकते हैं, लड़ सकते हैं, सवाल उठा सकते हैं।  तो फिर सवाल यह है कि क्या हम इनके लिए खड़े होंगे? क्या हम इन बेजुबानों की जुबान बनेंगे "आओ, खामोशी नहीं करुणा चुनें।  उनके लिए बोलें, जिनके पास शब्द नहीं हैं। जब गाय कटती है, मोर रोता है, हाथी घायल होता है तो इंसानियत भी मरती है। अब समय है- 

- अपनी संवेदनाओं को जगाने का।  

- जंगलों की रक्षा में स्वर उठाने का।  

- और हर उस मासूम प्राणी के लिए आवाज़ बनने का,जिसकी आंखें तो हैं, पर जुबान नहीं।

“एक मोर की चीख, एक हाथी का आँसू, एक खरगोश की दौड़... ये सब अब हमसे जवाब मांगते हैं।”

क्या हम जवाब देंगे?  

या फिर हमेशा चुप रहेंगे?

आओ, आवाज़ बने हम इन बेज़ुबानों की!  

"वो चीख नहीं सकते, पर हम तो बोल सकते हैं!"




प्रकृति ने हमें बुद्धि दी, भाषा दी, संवेदनाएँ दीं तो क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं बनता कि हम उनकी रक्षा करें, जो कुछ कह नहीं सकते? हैदराबाद के जंगलों में हाल ही में जो अमानवीय क्रूरता हुई, उसने हमारी आत्मा को झकझोर दिया है। निरीह जानवरों पर हुए अत्याचार, उनके जीवन के साथ किया गया खिलवाड़, न केवल पशु-अधिकारों का हनन है, बल्कि हमारे समाज की नैतिकता पर भी सवाल है। जंगल केवल पेड़ और जानवरों का घर नहीं है, वह इस धरती का फेफड़ा है, एक संतुलन है,और उन जीवों का अधिकार है जो इंसान से पहले वहां बसते थे।  जब हम इनका हक़ छीनते हैं, जब हम इनकी चीखों को अनसुना करते हैं, तब हम सिर्फ एक जानवर नहीं मारते हम इंसानियत की जड़ों को काटते हैं।



अब वक्त आ गया है कि हम केवल पर्यावरण दिवस पर भाषण न दें, बल्कि असल में बेज़ुबानों के लिए आवाज़ बनें। हम कानून से सख्त कार्रवाई की माँग करते हैं।  हम चाहते हैं कि जंगलों में सुरक्षा और संरक्षण की ठोस व्यवस्था हो। हम, एक संवेदनशील समाज की नींव बनना चाहते हैं।

आइए, खामोशी नहीं, करुणा चुनें।  

उनके लिए बोलें, जिनके पास शब्द नहीं हैं

मनीषा जैन



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