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‌Bhopal. व्यंग्य-सबसे बड़ा है कौन, Satire-Who is the greatest


Upgrade Jharkhand News.  सत्ता ,संगठन और राजनेता राजनीति की मुख्य धुरी हैं। कहा जाता है कि अगर इनमें तालमेल है तो सब कुछ ठीक नजर आता है मगर कभी कभी इनमें वर्चस्व की लड़ाई छिड़ जाती है और फिर यह तय करना मुश्किल होता है कि इन तीनों में से कौन बड़ा है ,सर्वश्रेष्ठ है या किसकी चलती है या किसकी सुनी जा रही है। देखा जाए तो संगठन ही सबसे बड़ा होता है क्योंकि संगठन ही सबको जोड़कर रखता है और संगठन के नीचे ही सब काम करते हैं और संगठन ही निर्णय करता है कि कौन चुनाव लड़ेगा और जीतकर सत्ता में जायेगा और कौन संगठन में काम करेगा। संगठन ही तय करता है कि कौन राजा बनेगा और कौन मंत्री । इसलिए संगठन और संगठन का मुखिया ही बड़ा होता है। संगठन से अलग होकर चुनाव लड़ने वाले चारों खाने चित ही दिखाई दिए हैं, लेकिन यदि कभी संगठन का मुखिया ही चुनाव लड़ ले और सत्ता पर काबिज हो जाए तो क्या होगा । अब संगठन से सत्ता में आकर यदि सत्ता का मुखिया अपनी ही किसी चरण पादुका को संगठन का मुखिया बना कर बैठा दे तो क्या होगा। तब संगठन का मुखिया ,सत्ता की सुनेगा या सत्ता का मुखिया संगठन को अपने इशारे पर चलाएगा। ऐसे में अब बड़ा तो सत्ता का मुखिया ही होगा और अब वही सब होगा जो वह चाहेगा और संगठन उसकी जेब में होगा और सत्ता बड़ी हो जाएगी।



अब यदि कोई राजनेता ऐसा है जिसे अपने आभामंडल से चुनाव में इतना बहुमत मिला है कि उसे अब अपने सहयोगी दलों,या जो दलबदल कर सत्ता का कभी सहारा थे , की भी कोई चिंता नहीं है तो अब वह राजनेता जो सत्ता का मुखिया भी है , सबसे बड़ा हो जाएगा और वह अब संगठन से बिना पूछे सभी निर्णय लेगा और तानाशाह बन जाएगा। वह अब किसी को भी कहीं से उठाकर कुछ भी बना देगा और सब चुप रहेंगे। वरिष्ठ और कनिष्ठ का भेदभाव राजनेता खत्म कर देगा और सबको समान अवसर देने का महनीय कार्य कर प्रशंसा पाएगा जबकि हो सकता है ऐसा वह इस डर से भी कर रहे हों कि कोई और राजनेता उनसे आगे न निकल जाए और सब सूत सांवल में रहे इसलिये वह ऐसे ऐसे निर्णय लेगा कि सब आश्चर्यचकित हो जाएं। उनके निर्णय योग्यता - अयोग्यता जैसी कसौटियों से परे भी हो सकते हैं और नहीं भी मगर कोई भी विरोध नहीं कर पाएगा क्योंकि भारी बहुमत उनके पास है | 



जाहिर है कि सत्ता ,संगठन और राजनेता में अपने बलवान समय के हिसाब से कोई भी बड़ा बन सकता है और सबको उसके हिसाब से चलना पड़ता है। मगर एक समय ऐसा आता है कि सत्ता , संगठन और राजनेता तीनों ही धृतराष्ट्र की तरह आंखे मूंदकर अकेले तो ठीक सामूहिक रूप से भी किसी बड़े मुद्दे पर कोई निर्णय नहीं ले पाते हैं । जैसे कभी अपने ही किसी बड़बोले राजनेता की गटर छाप राजनीति पर जब कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाते हैं तब जनता की आखरी उम्मीद न्यायपालिका को स्वयं संज्ञान लेकर इन तीनों पर चाबुक चलाना पड़ता है और राजनेता अपने कुकृत्य पर माफी मांगते दिखाई देते हैं। जाहिर है कि बड़ी तो न्यायपालिका ही रही है जिसने देश और धर्म की सदैव रक्षा की है। मगर रुकिए न्यायपालिका के सधे हुए इशारे के बाद भी अगर राजनेता की कुर्सी सलामत है तो इसका सबसे बड़ा कारण राजनेता का निजी वोट बैंक है जिससे सत्ता ,संगठन और राजनेता भी डर जाते हैं । इसलिए सबसे बड़ा है वोट और वोट बैंक। डॉ. हरीशकुमार सिंह



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