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Bhopal. राष्ट्रपति के प्रश्न और सर्वोच्च न्यायालय की अति सक्रियता, President's questions and Supreme Court's hyperactivity


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  तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के पास विचारार्थ भेजे गए विधेयकों को खुद ही मंजूरी देकर उन्हें कानून बना दिया और एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों की शक्तियों को अपने हाथ में ले लिया। इससे सिद्ध हो गया कि सुप्रीम कोर्ट अपने आपको राष्ट्रपति से ऊपर समझने लगा है। सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति द्वारा पारित किसी भी विधेयक की व्याख्या तो कर सकता है पर उसे  रोकने का किसी भी तरह का आदेश देना या किसी विधेयक को कानून बनाना संविधान से ऊपर उठकर उसकी अति सक्रियता ही माना जाएगा। इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों पर रोक लगाकर अपनी सीमा लांघी थी। वैसे संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के पास ऐसे आदेश देने वाले न्यायाधीशों को  तत्काल बर्खास्त कर देने की शक्ति भी है। पर फिलहाल   राष्ट्रपति ने 14 प्रश्न भेज कर सुप्रीम कोर्ट से उन पर राय मांगी है। सुप्रीम कोर्ट को इन प्रश्नों का जवाब देना आसान नहीं होगा। सवाल यह है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर तय समय सीमा पर फैसला लेने का आदेश सुप्रीम कोर्ट कैसे दे सकता है जबकि खुद सुप्रीम कोर्ट में ही सत्तर हजार से भी अधिक मुकदमें  दशकों से लटके पड़े हैं। 


 

राज्यों की बहुमत वाली सरकारें अपने आपको राज्यपाल और राष्ट्रपति से भी ऊपर मानते हुए संविधान से हटकर अलग-अलग तरह के विधेयकों को पास कर देती है। संविधान के अनुसार सभी राज्यों में सभी विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति राज्यपाल होता है। जिसको राज्य के सभी विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त करने का अधिकार होता है  परंतु हरियाणा और बंगाल में सरकारों ने कुलपति की नियुक्ति का अधिकार अपने पास ले लिया है। इस संवैधानिक परिवर्तन पर सुप्रीम कोर्ट मौन क्यों रहा ? सुप्रीम कोर्ट के एक जज  के पास कमरा भरकर नोटों का जखीरा मिला। उसके बाद भी उसके खिलाफ ना तो एफ आई आर हुई और ना ही उसको गिरफ्तार किया गया। ऐसे में राष्ट्रपति को अपने अधिकारों का पालन कर उस  जज को तुरंत प्रभाव से बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए था और उसके खिलाफ कानूनी करवाई और सीबीआई जांच करवानी चाहिए थी, उसे तुरंत जेल में भेजा जाना चाहिए था। ऐसे भी आरोप लगे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में कुछ वकीलों का कोकस बना हुआ है,जो मुकदमों को मनचाहे जज की अदालत में लगवाते हैं  और उससे सेटिंग कर अपने पक्ष में  निर्णय करवा लेते हैं। यह बात भी अब सार्वजनिक होती जा रही है। वैसे भी आम जनता भारतीय न्याय प्रणाली में भ्रष्टाचार और लंबित कार्यशैली से परेशान है। जजों का पेशकार खुलेआम जजों के सामने ही जनता से पैसे लेता है। जब निर्णय का समय आता है तो वकीलों से सेटिंग कर मोटे पैसे लेते हैं।



पूरे देश में करोड़ों मुकदमे दशकों से पेंडिंग पड़े हैं,कुछ तो पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं। ऐसे  में सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट या किसी भी न्यायालय द्वारा दूसरों को उपदेश देना और समय सीमा तय करना कहां तक उचित है ? और वह भी सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे हुए राष्ट्रपति जैसे व्यक्ति को। उपराष्ट्रपति पहले ही सुप्रीम कोर्ट की इस अतिसक्रियता पर प्रश्न उठा चुके हैं और अब राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न रखकर उसके विवेक पर ही प्रश्न उठा दिया हैं । सुप्रीम कोर्ट के लिए राष्ट्रपति के प्रश्नों का उत्तर देना आसान नहीं होगा। इंजी. अतिवीर जैन 'पराग'



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