Upgrade Jharkhand News. जस्टिस बी.आर. गवई का यह विचार कि संपन्न लोगों को आरक्षण से बाहर करना चाहिए, भारत में सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। यह विचार आरक्षण नीति को और समावेशी और प्रभावी बनाने की तथा सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित लोगों को समान अवसर प्रदान करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम हो सकता है। हालांकि, इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियां हैं, जिनमें सामाजिक भेदभाव की निरंतरता, संवैधानिक प्रावधानों का पालन, और प्रशासनिक जटिलताएं शामिल हैं। भारत में आरक्षण नीति सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों को समान अवसर प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण साधन रही है। यह नीति संविधान के तहत अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए विशेष प्रावधानों के माध्यम से लागू की गई है। हालांकि, समय के साथ आरक्षण के दुरुपयोग, इसके लाभों के असमान वितरण, और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों ने इस नीति की प्रासंगिकता और प्रभावशीलता पर सवाल उठाए हैं। इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई का यह विचार कि "संपन्न लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए" एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दा बनकर उभरा है।
जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई, जिन्होनें 14 मई 2025 को भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के रूप में शपथ ग्रहण की, सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय से नियुक्त होने वाले पहले जजों में से एक हैं। महाराष्ट्र के अमरावती में जन्मे जस्टिस गवई ने अपने करियर में संवैधानिक और प्रशासनिक कानून के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके पिता, आर.एस. गवई, एक प्रसिद्ध राजनेता और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता थे, जिसने उनके सामाजिक न्याय के प्रति दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया। जस्टिस गवई ने कई मौकों पर आरक्षण नीति में सुधार की वकालत की है। उनका मानना है कि आरक्षण का लाभ उन लोगों तक पहुंचना चाहिए जो वास्तव में सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित हैं। उन्होंने "क्रीमी लेयर" (संपन्न वर्ग) की अवधारणा को अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए भी लागू करने की सिफारिश की है, जैसा कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए पहले से लागू है। उनका तर्क है कि जब कोई व्यक्ति या उसका परिवार आरक्षण के माध्यम से उच्च पदों, जैसे कि आईएएस, आईपीएस, या अन्य प्रतिष्ठित सेवाओं में पहुंच जाता है, तो उनकी अगली पीढ़ी को सामाजिक और आर्थिक असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ता। ऐसे में, उन्हें आरक्षण का लाभ देना नीति के मूल उद्देश्य को कमजोर करता है।
जस्टिस गवई ने एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी, "जो वर्गीकरण का विरोध कर रहे हैं, वह उस मुसाफिर की तरह है, जो रेल के डिब्बे में घुस जाता है, फिर दूसरों को डिब्बे में आने से रोकता है।" यह कथन उनके इस विश्वास को दर्शाता है कि संपन्न दलित या अन्य आरक्षित वर्ग के लोग, जो पहले ही आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं, अब वंचितों के हक को छीन रहे हैं। "क्रीमी लेयर" की अवधारणा पहली बार 1992 में इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पेश की गई थी। इस फैसले में कोर्ट ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण में क्रीमी लेयर को बाहर करने का प्रावधान किया, ताकि आरक्षण का लाभ केवल उन लोगों तक पहुंचे जो वास्तव में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। क्रीमी लेयर की पहचान आय, पेशा, और सामाजिक स्थिति जैसे मापदंडों के आधार पर की जाती है। उदाहरण के लिए, उच्च आय वाले परिवार, वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के बच्चे, या पेशेवर डिग्री धारक क्रीमी लेयर के अंतर्गत आ सकते हैं। हालांकि, यह अवधारणा अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए लागू नहीं की गई थी, क्योंकि इन समुदायों को ऐतिहासिक रूप से गहरे सामाजिक भेदभाव और छुआछूत का सामना करना पड़ा है। लेकिन जस्टिस गवई सहित कई विशेषज्ञों का मानना है कि समय के साथ इन समुदायों में भी आर्थिक और सामाजिक असमानता उभरी है। कुछ परिवारों ने आरक्षण के माध्यम से उच्च सामाजिक-आर्थिक स्थिति प्राप्त कर ली है, जबकि अन्य अभी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। ऐसे में, क्रीमी लेयर की अवधारणा को एससी/एसटी के लिए लागू करना सामाजिक न्याय को और समावेशी बना सकता है।
आरक्षण का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित लोगों को मुख्यधारा में लाना था। संपन्न लोग, जो पहले ही उच्च शिक्षा, नौकरी, या संपत्ति प्राप्त कर चुके हैं, इस नीति के मूल लक्ष्य से बाहर हो जाते हैं। उन्हें आरक्षण का लाभ देना संसाधनों का दुरुपयोग है। सरकारी नौकरियों, शैक्षिक संस्थानों, और अन्य क्षेत्रों में आरक्षित सीटें सीमित हैं। यदि संपन्न लोग इनका लाभ उठाते हैं, तो वास्तविक जरूरतमंदों को अवसर नहीं मिलते। क्रीमी लेयर को बाहर करने से आरक्षण का लाभ उन तक पहुंचेगा जो अभी भी सामाजिक भेदभाव और आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं। इससे समुदाय के भीतर असमानता कम होगी। जस्टिस गवई का तर्क है कि संपन्न लोग, जो पहले ही समाज में उच्च स्थान प्राप्त कर चुके हैं, नैतिक रूप से उन लोगों के हक पर दावा नहीं कर सकते जो अभी भी वंचित हैं। जस्टिस गवई का यह विचार भारत की सामाजिक और राजनीतिक गतिशीलता को गहराई से प्रभावित कर सकता है। यह नीति को और समावेशी और न्यायसंगत बना सकता है।
जस्टिस गवई के विचार को लागू करने के लिए संसद की मंजूरी और व्यापक सामाजिक सहमति की आवश्यकता होगी। इसके लिए आरक्षित समुदायों में आर्थिक और सामाजिक असमानता का आकलन करने के लिए एक व्यापक सर्वेक्षण किया जाए। इस मुद्दे पर सभी हितधारकों, जैसे कि सामाजिक संगठनों, राजनीतिक दलों, और बुद्धिजीवियों के बीच खुली बहस आयोजित की जाए। क्रीमी लेयर की अवधारणा को पहले कुछ राज्यों या क्षेत्रों में प्रयोगात्मक रूप से लागू किया जाए, ताकि इसके प्रभावों का आकलन हो सके। क्रीमी लेयर की पहचान और लागू करने के लिए पारदर्शी और भ्रष्टाचार-मुक्त कानूनी ढांचा तैयार किया जाए। आरक्षण के उद्देश्य और क्रीमी लेयर की अवधारणा के बारे में लोगों को शिक्षित किया जाए, ताकि सामाजिक तनाव कम हो। इस मुद्दे पर एक संतुलित और समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो सामाजिक न्याय के मूल सिद्धांतों को बनाए रखे और साथ ही नीति को समय के साथ प्रासंगिक बनाए। जस्टिस गवई का यह दृष्टिकोण न केवल आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करने का अवसर प्रदान करता है, बल्कि भारत के सामाजिक ताने-बाने को और मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। संदीप सृजन
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