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Bhopal व्यंग्य को साहित्यिक गरिमा प्रदान करने वाले लेखक थे हरिशंकर परसाई Harishankar Parsai was the writer who gave literary dignity to satire

 


Upgrade Jharkhand News. मेरी नजर में भारतीय व्यंग्य का वह नाम,जो किसी परिभाषा या आकलन में बंधता ही नहीं, हरिशंकर परसाई है। उन्हें पढ़ो तो वे व्यंग्यकार कम और समाज के इतिहासकार ज्यादा लगते हैं। इतिहास तो तारीखों और घटनाओं का ब्यौरा भर देता है, पर परसाई उन तारीखों और घटनाओं के बीच छिपे मनुष्य के मनोभाव, उसकी दोहरी सोच और उसके छलावे को पकड़ते हैं। वे ऐसी टार्च वाले हैं, जो समाज के अंधेरे कोनों में प्रकाश डाल कर वहां की गंध, वहां की सड़ांध, वहां की विडंबना को पाठक के सामने सजीव कर देती है।    उनको पढ़ते हुए लगता है जैसे हमारे ही घर के आंगन में कोई आईना रख दिया गया है। हम अक्सर समाज की आलोचना बड़े आराम से करते हैं लेकिन जब वही समाज हमारे भीतर की कमज़ोरियों को उजागर कर देता है, तब हम बरबस चौंकते हैं। परसाई की यही ताकत है। वे हंसाते हैं, और उसी हंसी में हमें हमारा कुरूप प्रतिबिंब दिखा देते हैं।



वो व्यक्तिगत कटाक्ष नहीं करता, बल्कि पूरी व्यवस्था की पोल खोलता है। नेता, अफसर, बाबू, पंडित, साधु सब उनकी दृष्टि में समान रूप से कटघरे में खड़े होते हैं।  ऐसा बिलकुल नहीं कि वे स्वयं बहुत आदर्श के पुतले ही थे लेकिन वे सिर्फ दूसरों पर नहीं, अपने ही वर्ग और अपने ही जीवन पर भी तंज कसने से पीछे नहीं हटे। यही उनकी ईमानदारी है, यही उनकी प्रामाणिकता है। हरिशंकर परसाई हिंदी के पहले लेखक थे, जिन्होंने नए स्वरूप में व्यंग्य को साहित्य की मुख्यधारा में स्थापित किया। उन्होंने व्यंग्य को अखबारी स्तंभ से उठाकर साहित्यिक गरिमा दी। उन्होंने साबित किया कि व्यंग्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि चिंतन है। उनकी लेखनी किसी तलवार से कम नहीं थी, पर यह तलवार लहू नहीं बहाती थी, बल्कि पाठक की आंखें खोल देती थी। मेरी नजर में परसाई सिर्फ व्यंग्यकार नहीं, बल्कि एक सामाजिक पर्यवेक्षक तथा दार्शनिक थे। उन्होंने यह दिखाया कि हास्य और व्यंग्य सिर्फ हंसाने की कला नहीं है, बल्कि समाज को बदलने का सबसे सशक्त उपकरण है। परसाई को पढ़ते हुए लगता है कि जैसे वे हमारे सामने बैठे हों और हमारी ही भाषा में हमारी कमियों को हमें सुना रहे हों।



हर दौर में परसाई प्रासंगिक हैं, क्योंकि उनकी व्यंग्य दृष्टि किसी समय विशेष तक सीमित नहीं है। वे आदमी की उस आदत पर चोट करते हैं, जो हर युग में वही रहती है, पाखंड, लालच, ढोंग, सत्ता का दुरुपयोग शाश्वत प्रवृत्ति है। यही कारण है कि आज भी जब हम उन्हें पढ़ते हैं तो लगता है कि वे हमारे आज पर लिख रहे हैं, जबकि वे दशकों पहले चले गए। मेरे लिए परसाई की लेखनी वह चेतावनी है कि यदि समाज अपनी कमजोरियों को पहचान कर सुधार नहीं करेगा तो उसका पतन निश्चित है। वे हंसते-हंसते हमें रुला जाते हैं और यही उनका सबसे बड़ा साहित्यिक अवदान है। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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