Upgrade Jharkhand News. सभ्य समाज में वंशानुगत परंपराओं का निर्वहन करते हुए आगत पीढ़ी को पूर्वजों के इतिहास से परिचित कराना अनिवार्य होता है, ताकि आगत पीढ़ी पारिवारिक मर्यादाओं में रहकर अपने पूर्वजों के यश का विस्तार कर सके। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में प्रथमा से लेकर अमावस्या तक का पखवाड़ा श्राद्ध पक्ष कहलाता है। इससे पूर्व भाद्रपद की पूर्णिमा को प्रथम श्राद्ध के रूप में उन पुण्य आत्माओं का स्मरण किया जाता है, जिन्होंने पूर्णिमा के दिन नश्वर शरीर से प्रयाण किया हो। सनातन मान्यताओं में श्राद्ध पक्ष में सनातन धर्म के अनुयायी अपने मृत पूर्वजों का स्मरण करते हैं तथा उनकी स्मृति में उनकी पसंद का स्मरण करते हुए वही भोज्य पदार्थ बनाते हैं, जो मृतक की प्रिय लगते थे। बहरहाल तर्क शास्त्री भले ही श्राद्ध को तर्क की कसौटी पर खरा न स्वीकारते हों, लेकिन यह विशुद्ध आस्था एवं श्रद्धा का विषय है और धर्म के प्रति आस्था पर प्रश्न चिन्ह नही लगाया जाता।
श्राद्ध पक्ष में शुभ और अशुभ का विचार अधिक होता है। कुछ परिवारों में श्राद्ध पक्ष में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। यहाँ तक कि नई वस्तुओं की खरीदारी से भी परहेज किया जाता है। इस धारणा के पीछे कोई सटीक तर्क नहीं है, कि ऐसा परहेज़ क्यों करना चाहिए। मेरा मत है कि भारत में धर्मानुसार आस्था पर उंगली उठाने का कोई औचित्य नहीं है। इतना अवश्य है कि आधुनिक समाज में समयानुसार हो रहे परिवर्तन के साथ सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है। यूँ तो तार्किक समाज में श्राद्ध पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े करने का चलन शुरू हो गया है तथा खंडित होते परिवारों में स्वार्थ सर्वोपरि हैं। संयुक्त परिवार की अवधारणा लगभग समाप्त हो चुका है। ऐसे में श्राद्ध मन से कम और औपचारिकता से अधिक मनाए जाने की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वैसे भी सामाजिक बदलाव के दौर में व्यक्ति सुविधानुसार आचरण करने हेतु स्वतंत्र है। श्राद्ध पक्ष को यदि आस्था और श्रद्धा से न भी जोड़ा जाए तो श्राद्ध के औचित्य को इस प्रकार समझा जा सकता है, कि वंशानुगत परिचय से आज की पीढ़ी वंचित है। उसकी स्मृतियों में अपने पूर्वजों के नाम तक सुरक्षित नहीं हैं। पिता, दादा से ऊपर की पीढ़ी से आज की पीढ़ी अनभिज्ञ है। ऐसे में यदि सभ्य समाज आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में अपने पूर्वजों के मृत्यु दिवस को स्मरण करता है तथा उनकी स्मृति में भोजन, वस्त्र या अन्य वस्तुएँ अपनी श्रद्धा व सामर्थ्य के अनुसार दान करता है, तो इसे ग़लत कैसे कहा जा सकता है। हाँ इतना अवश्य है कि दान ऐसे सुपात्र को देना चाहिए, जो वास्तव में दीन हीन हो तथा अपने भरण पोषण की व्यवस्था करने में असमर्थ हो।
श्राद्ध दिवस पर अपने परिवार की उस पुण्यात्मा की चारित्रिक विशेषता से पूरे परिवार को अवगत कराना चाहिए, जिसकी स्मृति में श्राद्ध का आयोजन किया जा रहा है। कहने का आशय यह है कि भले ही हम अपनी पुरातन परंपराओं को तर्क की कसौटी पर खरा न पाएँ, मगर श्राद्ध मनाने के पीछे पूर्वजों के प्रति श्रद्धापूर्ण स्मरण की भावना को नकारा नही जा सकता। डॉ. सुधाकर आशावादी
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