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Bhopal समाजवादी आन्दोलन के जनक आचार्य नरेन्द्रदेव Acharya Narendra Dev, the father of the socialist movement

 


जन्मदिवस  31 अक्टूबर  

Upgrade Jharkhand News. भारतीय समाजवादी आंदोलन के तीन प्रमुख स्तम्भ आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण ने समाजवाद की जड़ों को भारत में गहराई तक पहुंचाने में अपनी महती भूमिका निभाई। इनकी अमिट छाप जनमानस पर ऐसी पड़ी कि भले ही आज समाजवादी आंदोलन के संगठन एकजुट नहीं हैं फिर भी इन नेताओं की व्यक्तिगत ऊर्जा समय-समय पर समाजवाद को जागृत करती रही हैं।        आचार्य नरेन्द्र देव का जन्म 31 अक्टूबर 1889 को सीतापुर (उ.प्र.) में हुआ था। इनके पिता बाबू बलदेव प्रकाश पेशे से वकील थे और इन्हें विरासत में अपने पिता से भारतीय संस्कृति व साहित्य मिले। इनके घर जाने माने साहित्यकारों का आना-जाना था। 'दे शेर कथा' नामक प्रसिद्ध बंगाली पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करने वाले प्रसिद्ध लेखक माधव प्रसाद ने इनका नाम अविनाशी लाल से बदलकर नरेन्द्र देव रखा था। आचार्य नरेन्द्र देव पर स्वामी रामतीर्थ के प्रवचनों का खासा असर पड़ा था, जिससे उन्होंने बचपन में ही रामायण, महाभारत, बेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, चन्द्रकान्ता, सूरसागर व  गीता का गहराई से अध्ययन किया।



आचार्य नरेन्द्र देव भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने पिता के साथ प्रथम बार 1905 में बनारस में कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा लेने पहुंचे थे। मैट्रिक पास करने के पश्चात् जब वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढऩे गये तो इनका परिचय महामना मदनमोहन मालवीय से हुआ, लेकिन बाद में जैसे ही कांग्रेस का विभाजन हुआ तो नरेन्द्र देव तिलक और विपिन चन्द्र पाल की ओर आकृष्ट होकर उनके सानिध्य में कार्य करने लगे। जब लोकमान्य तिलक ने कलकत्ता में एक नयी पार्टी की स्थापना की तो आचार्य नरेन्द्र देव के हिन्दी भाषण से वे बहुत प्रभावित हुए। कलकत्ता अधिवेशन के बाद जब नरेन्द्र देव इलाहाबाद लौटे तो इनका भव्य स्वागत किया गया। सन् 1913 में एम.ए. और 1915 में एल.एल.बी. करने के बाद वे भी वकालत करने लगे। कांग्रेस ने जब परिषदों का बहिष्कार किया तो तिलक के अनुयायी होने के नाते इन्होंने इस बहिष्कार को सफल बनाने के लिए जी-जान से कार्य किया। नागपुर अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव स्वीकार होने पर, वकालत छोड़ दी और राष्ट्रीय कार्यों में जुट गये। पंडित नेहरू ने उन्हें फैजाबाद छोड़कर बनारस में काशी विद्यापीठ का कार्यभार सौंपा। 1926 में डॉ. भगवानदास के त्याग पत्र देने के बाद इन्हें विद्यापीठ का अध्यक्ष बनाया गया। भगवानदास के पुत्र ने इनके नाम के आगे आचार्य शब्द जोड़ दिया। आचार्य नरेन्द्र देव ने, बौद्धधर्म को बखूबी पढ़कर माक्र्सवाद के गहन अध्ययन के पश्चात् एक ऐसा मानस तैयार किया कि वे भारत के जाने-माने नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। उनके पुराने व नवीन विचारों के संगम के कारण वे कांग्रेस में समाजवादी विचारों वाले धड़े के निर्विवाद नेता मान लिये गये। पटना में मई 1934 को वे कांग्रेस समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष चुने लिये गये। यहीं से भारत में समाजवादी विचारधारा का उदय हुआ और यह विचारधारा इतनी तीव्रगति से पूरे देश में फैली कि आम जन-जीवन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। आचार्य नरेन्द्र देव ने अपनी समाजवादी विचारधारा में 'निरन्तर बढ़ते जाना ही संस्कृति का मूलाधार है' को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता पर बल दिया।



उनका मत था कि हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन के साथ-साथ संस्कृति भी बदलती है। हमारा जीवन स्थिर और जड़ नहीं है। समाज के आर्थिक और सामाजिक जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं और यहीं से सांस्कृतिक जीवन मूल्य भी बदलते हैं। आचार्य नरेन्द्रदेव ने मजहब से ऊपर राष्ट्रीयता की भावना को बल दिया। उन्होंने परिवर्तन का अर्थ कदापि यह नहीं माना कि, अतीत के अंश जो उत्कृष्ट और जीवनप्रद है, उनकी रक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन नये मूल्यों का नरेन्द्र देव ने सदैव स्वागत किया तथा अनावश्यक आचार व्यवहार जो कि समाज व राष्ट्र के लिए हानिकारक है, उनका परित्याग करने पर भी जोर दिया। समाजवादी विचारधारा में परिवर्तन अवश्यंभावी है और हमें नये जीवन के लिए उद्देश्य स्थिर करने होंगे। हमारी संस्कृति सर्वोच्च है और इसमें वे सभी तथ्य व तत्व मौजूद हैं, जिससे नवयुग और नवसमाज का निर्माण हो सकेगा।



समाजवादी नेताओं में आचार्य नरेन्द्र देव के प्रति अगाध श्रद्धा थी। इसका संजीदा उदाहरण लोकनायक जयप्रकाश नारायण के उस पत्र से झलकता है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मेरा मन रो रहा है, कि, आपको क्या लिखूं? अगर हमें यह पता होता कि आप किसान मजदूर पार्टी और समाजवादी दल के विलय की बात से नाराज हैं तो हम ऐसा हरगिज नहीं करते।  इस विलय से आचार्य नरेन्द्रदेव को इसलिये धक्का लगा कि विलय से समाजवादी पार्टी का मार्क्सवादी चरित्र नष्ट हो जायेगा। 1948 में जब आचार्य नरेन्द्र देव और डॉ. लोहिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी, तब भी वे इस मत के थे कि, हमें कांग्रेस को नहीं छोडऩा था, परन्तु यह पार्टी के बहुमत का फैसला था, जिसे इन्होंने ध्यान रखकर पुन: कांग्रेस की ओर मुड़कर नहीं देखा। हालांकि पार्टी में कई संकट आये और विभाजन भी होता रहा। 



ट्रावनकोर कोचीन में जब प्रथम समाजवादी पार्टी की सरकार ने पुलिस द्वारा प्रदर्शन करने वालों पर गोली चलवाई जिसमें चार आदमी मारे गये, तब डॉ. लोहिया ने अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री से त्याग-पत्र मांग लिया था। तब पार्टी महामंत्री होने के कारण इनका कड़ा विरोध हुआ और अंतत: पार्टी के नागपुर सम्मेलन में डॉ. लोहिया से इस्तीफा मांगा गया, समाजवादी विचारधारा वाले दल के इस कार्य का मलाल आचार्य नरेन्द्र देव को अन्त तक रहा। समाजवादी पार्टी इससे दो गुटों में विभाजित हो गयी। लेकिन आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी में इसका विलय हो गया। जनता सरकार टूटने के बाद समाजवादी अलग-अलग पार्टियों में बिखर गये और अब तो यह आन्दोलन प्राय: खत्म सा ही लगता है।



आज नेता राष्ट्र में समाजवाद की बातें अवश्य करते हैं, लेकिन सच तो यह है कि जिन नेताओं ने समाजवाद के जरिये देश की दशा व दिशा बदलने का प्रयास किया, वे अब रह नहीं गये, बल्कि उनके बाद जिनके हाथों में इस आन्दोलन की डोर आयी वे सत्ता से समझौता कर बैठे। आचार्य नरेन्द्रदेव व उनके साथ जुड़े नेताओं ने कभी भी अपनी पार्टी के विलय को उचित नहीं समझा। भले ही समाजवादी आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पाया लेकिन इतना तो अवश्य था कि सैद्धान्तिक तौर पर इनके नेताओं में कितने भी मतभेद थे, किन्तु वैचारिक दृष्टि व व्यक्तिगत तौर से ये भीतर से एक रहे, जो कि उनकी दूरदर्शिता का ही परिचायक था।  चेतन चौहान



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