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Bhopal लोक आस्था, पौराणिकता और संस्कृति का उजियारा बिखेरता छठ महापर्व Chhath Mahaparva spreads the light of folk faith, mythology and culture.

 


Upgrade Jharkhand News. भारतीय संस्कृति के पर्वों में छठ पूजा वह अनूठा पर्व है जिसमें पौराणिकता, धार्मिकता, लोक संस्कृति और प्रकृति की आराधना का अद्भुत संगम दिखाई देता है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि लोक जीवन का उत्सव है। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें धरती, जल, सूर्य और वायु सबको समान रूप से पूजनीय मानकर मनुष्य अपनी जड़ों से जुड़ता है। भारतीय समाज में छठ पर्व केवल आस्था का नहीं, बल्कि आत्मीयता और पहचान का पर्व है। यह हमारे समाज का वह जीवंत उत्सव है, जो गांवों की माटी, माँ की गोद, घाटों की गूंज और गीतों की मिठास में बसता है।  छठ, लोक का पर्व है, इसमें न कोई भेद है, न कोई दिखावा। यह उस श्रमशील, सहज और संतुलित भारतीय समाज की पहचान है, जो प्रकृति और मनुष्य के संबंध को सबसे पवित्र मानता है इसलिए इसे लोक आस्था का महापर्व कहा गया है। यहां न केवल ईश्वर की उपासना होती है, बल्कि इसे मानवता की एकता और आस्था के उत्सव के रुप में भी मनाया जाता है।



छठ पूजा का धार्मिक पक्ष जितना प्राचीन है, उतना ही गूढ़ भी। ऋग्वेद से लेकर स्कंद पुराण तक सूर्य की उपासना का उल्लेख मिलता है। कथाओं में कहा गया है कि देवताओं और असुरों की रक्षा के लिए अदिति ने सूर्यदेव का आव्हान किया था, और उसी से उत्पन्न हुए मार्तंड सूर्य की आराधना ही आगे चलकर छठ के रूप में स्थापित हुई।  हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य को प्राणों का आधार कहा है उनके बिना न प्रकाश है, न जीवन इसलिए छठ केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि जीवन के स्रोत सूर्य के प्रति कृतज्ञता का भाव है। इस पर्व की मूल भावना यही है सूर्य से ऊर्जा, सूर्य से जीवन, और सूर्य से संतुलन।  व्रतियों का विश्वास है कि सूर्योपासना से सारे कष्ट दूर होते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि आती है। डूबते और उगते दोनों सूर्य को अर्घ्य देने का अर्थ है  जीवन के हर चरण में प्रकाश और संतुलन का स्वागत करना। छठ की एक और बड़ी खूबसूरती इसके लोकगीतों में है। यह पर्व केवल पूजा नहीं, बल्कि संगीतमय साधना है।घरों, घाटों, आँगनों और गलियों में जब “कांच ही बांस के बहंगिया” या “केरवा जे फरेला घवद से” गूंजते हैं, तो वह केवल गीत नहीं होते वे भावनाओं की लहरें होती हैं जो हर मन को भक्तिभाव से भर देती हैं।



पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी,पद्मभूषण शारदा सिन्हा और विजया भारती के कंठों से निकले छठ गीतों में न केवल संगीत है, बल्कि लोकजीवन की आत्मा बसती है । इन गीतों में माँ की सादगी, व्रती की श्रद्धा और पूरे समाज की एकता की गूंज आज भी सुनाई देती है। इन गीतों को सुनते ही लगता है जैसे घर के आँगन में ही छठ मैया उतर आई हों।  छठ गीतों की परंपरा केवल भोजपुरी तक सीमित नहीं बल्कि मैथिली, अंगिका, वज्जिका, मगही  हर बोली में इनका अपना अलग स्वर है। मगही का “चल.. चल.. अरघ के बेरिया” और भोजपुरी का “कोपि कोपि बोलेली छठी माई” लोक भावना के दो छोर हैं, जो भक्ति और मातृत्व की गहराई में एक ही बिंदु पर मिलते हैं।        छठ पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है। इस दिन कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। हर व्यक्ति घाट पर समान भाव से खड़ा होता है, सब एक साथ, एक लय में, एक आस्था में। यह समरसता ही छठ की आत्मा है।  बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड से लेकर नेपाल तक, कश्मीर से  कन्याकुमारी तक हर जगह यह पर्व समाज को जोड़ता है। गांव-गांव में तालाबों के किनारे बने छठी मैया के मंदिर और घाट, केवल उपासना स्थल नहीं बल्कि लोक संस्कृति के जीवंत केंद्र हैं। यहां गीत, व्रत, परंपरा और सामूहिकता का ऐसा संगम होता है, जो किसी अन्य पर्व में विरले ही देखने को मिलता है।



समय के साथ बहुत कुछ बदला है, लेकिन छठ की आत्मा आज भी वही है। आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया ने इस पर्व को वैश्विक पहचान दी है। अब छठ के गीत मुंबई के जुहू बीच से लेकर न्यूयॉर्क के हडसन नदी तक गूंजते हैं। विंध्यवासिनी देवी,शारदा सिन्हा,विजया भारती,मैथिली ठाकुर जैसी कलाकारों ने छठ गीतों को लोक धरोहर से उठाकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचाया है। आज युवा कलाकार भी नए सुरों में छठ गीत गाते हैं, लेकिन पारंपरिक धुनों की आत्मीयता अब भी अतुलनीय है।भले ही अब अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण, सोनू निगम जैसे प्रसिद्ध गायक इन गीतों को स्वर दे रहे हों, मगर जो पवित्रता और सहजता गांव की बूढ़ी नानी की आवाज़ में थी, वह किसी मंच पर नहीं मिल सकती। छठ का यह रूप आधुनिक भारत में परंपरा और प्रगति के समन्वय का उदाहरण है। छठ पूजा वर्ष में दो बार मनाई जाती है, चैत्र शुक्ल षष्ठी और कार्तिक शुक्ल षष्ठी को। कार्तिक मास की छठ सबसे लोकप्रिय है। यह तीन दिन का पर्व है, जिसमें हर चरण अपने भीतर एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है।



पहले दिन ‘नहाय-खाय’ में शरीर और मन की शुद्धि होती है। दूसरे दिन ‘खरना’ यानी पूर्ण उपवास और फिर प्रसाद का सेवन। तीसरे दिन शाम को डूबते सूर्य को अर्घ्य और चौथे दिन उगते सूर्य की वंदना के साथ यह पर्व संपन्न होता है।  व्रती महिलाओं की यह तपस्या केवल उपवास नहीं, बल्कि शरीर, मन और आत्मा के संतुलन की साधना है।व्रत के दौरान व्रती जमीन पर सोती हैं, नमक, तेल और मसाले से परहेज करती हैं। अर्घ्य के समय जब हजारों दीपक एक साथ जलते हैं, घाटों पर गीतों की ध्वनि गूंजती है, और सूर्यदेव की लालिमा जल में झिलमिलाती है  तब वह क्षण केवल दर्शन नहीं, परमानंद का अनुभव होता है। 


आज छठ केवल बिहार या उत्तर प्रदेश का नहीं रहा।

यह भारत की सीमाओं को लांघकर वैश्विक पर्व बन चुका है।

लंदन, न्यूयॉर्क, मॉरिशस, फिजी, दुबई, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका हर जगह जहां भारतीय समुदाय बसा है, वहां छठ घाट सजते हैं। छठ का हर प्रतीक जैसे मिट्टी का दीपक, गंगाजल, ठेकुआ, केला, नारियल, ईख, सूप सभी प्राकृतिकता और स्वदेशी भावना के प्रतीक हैं। यह पर्व हमें बताता है कि सच्ची भक्ति वही है जो प्रकृति के प्रति आभार से उपजे।छठ का हर अर्घ्य सूर्य को नहीं, बल्कि जीवन को समर्पित होता है। सूर्य, जो सृष्टि का स्रोत है, जिसे हमारे शास्त्रों ने ‘प्राण का अधिपति’ कहा है, वही इस पर्व का केंद्र है।सूर्य के सात घोड़े ऊर्जा के सात रूपों का प्रतीक हैं, और छठ का व्रत उसी ऊर्जा के संतुलित उपयोग की साधना है।  छठ न तो केवल स्त्रियों का पर्व है, न किसी एक क्षेत्र का। यह भारत की आत्मा का उत्सव है जहां सादगी, श्रद्धा और सामूहिकता एक साथ चलती हैं। जब घाटों पर व्रती सूर्य को अर्घ्य देती हैं, जल में झिलमिलाती लौओं के बीच गीत गूंजता है - “सेई ले शरण तोहार ए छठी मइया, सुनी लेहू अरज हमार...” तो लगता है जैसे पूरी सृष्टि प्रार्थना में डूबी हो। महापर्व छठ हमें हर वर्ष यही स्मरण कराता है कि हमारी संस्कृति, हमारी आस्था और हमारी लोक परंपरा सूर्य की तरह शाश्वत है। अंजनी सक्सेना



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