Upgrade Jharkhand News. भारतीय राजनीति के इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जिनका नाम केवल सत्ता या पद से नहीं, बल्कि स्मृतियों, संवेदनाओं और मूल्यों से जुड़ जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे ही एक नेता थे। मेरी नजरों में वे राजनेता कम, राष्ट्रपुरुष अधिक थे। उनकी राजनीति में जितनी वैचारिक दृढ़ता थी, तो व्यवहार में उतनी ही सौम्यता। उनके शब्दों में कविता थी, तो निर्णयों में राष्ट्रहित का कठोर साहस। अटल जी को समझना केवल चुनावी जीत-हार के आंकड़ों या राजनीति के हानि लाभ से संभव नहीं है, उन्हें समझने के लिए उस दौर की सामाजिक चेतना, जनता का भावनात्मक जुड़ाव और साधारण नागरिक के मन में उनके प्रति बसे सम्मान को महसूस करना पड़ता है। मेरे लिए अटल बिहारी वाजपेयी केवल इतिहास की किताबों या संसद के अभिलेखों में दर्ज नेता नहीं हैं, बल्कि स्मृतियों में बसे हुए एक जीवंत अनुभव हैं। वर्ष 1991 का वह समय आज भी स्मृति-पटल पर जीवंत है, जब अटल जी ने विदिशा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था। उस समय मेरी आयु मतदान करने योग्य नहीं थी, लेकिन राजनीति और लोकतंत्र का उत्सव मैं पूरी चेतना से देख और महसूस कर रहा था। विदिशा की गलियों में, चौराहों पर और स्कूल के मैदानों में एक अलग ही उत्साह था। अटल जी के नाम का जादू केवल वयस्कों तक सीमित नहीं था,मेरी उम्र के और मुझसे भी छोटे बच्चे अपनी शर्ट पर ‘अटल जी को वोट दो’ का बिल्ला लगाकर गर्व और चाव से घूमते थे। उस समय हम वोट डालने की संवैधानिक पात्रता भले ही नहीं रखते थे, लेकिन लोकतंत्र की भावना हमारे मन में पूरी तरह जीवित थी। उस समय बड़ों ही नहीं बल्कि बच्चों के मन में भी अटल जी के प्रति एक सहज सरल विश्वास और आकर्षण था,जिसे मैंने स्वयं भी बखूबी महसूस किया।
मैंने बिल्ला तो नहीं लगाया, लेकिन अटल जी की सभा सुनने अवश्य गया। वह मेरी राजनीतिक चेतना का शुरुआती और गहरा अनुभव था। मंच पर खड़े अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व किसी आक्रामक भाषणबाज़ नेता जैसा नहीं था। उनके शब्दों में उत्तेजना नहीं, बल्कि तर्क, संवेदना और आत्मविश्वास था। हमेशा की तरह एक सरल सी कहानी से उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत की। उनकी वाणी में कविता की सी लय थी और बातों में राष्ट्र के भविष्य की स्पष्ट तस्वीर। उनका धीर गंभीर लेकिन ओजस्वी भाषण सभी ने बड़े ही ध्यान से सुना। उस समय मेरे पूज्य पिताजी विदिशा से साप्ताहिक समाचार पत्र वचनबद्ध का भी प्रकाशन करते थे। पत्रकारिता हमारे घर में केवल पेशा नहीं, बल्कि समाज के प्रति दायित्व थी। अटल जी का पत्रकारों के प्रति विशेष सम्मान जगजाहिर था। वे जानते थे कि लोकतंत्र में पत्रकार केवल समाचार लिखने वाला नहीं, बल्कि समाज की नब्ज पहचानने वाला संवेदनशील प्रहरी होता है। यही दृष्टि उस मुलाकात में भी स्पष्ट दिखाई दी, जिसका मैं साक्षी बना।
अटल बिहारी वाजपेयी अपना नामांकन भरने विदिशा आए। यह समय आमतौर पर नेताओं के लिए औपचारिकता निभाने का होता है, लेकिन अटल जी के लिए यह संवाद का अवसर था। विदिशा में मेरे पिताजी और अटल जी की मुलाकात हुई। अटल जी मेरे पिताजी को “संपादक जी” कहकर संबोधित करते थे। यह संबोधन मात्र शब्द नहीं था, बल्कि पत्रकारिता के प्रति उनके सम्मान का प्रमाण था। इस मुलाकात में अटल जी ने मेरे पिताजी से करीब एक घंटे तक बातचीत की। वह बातचीत किसी चुनावी रणनीति की औपचारिक बैठक नहीं थी, बल्कि एक गंभीर, सूक्ष्म और व्यापक संवाद था। अटल जी ने पूरे लोकसभा क्षेत्र की स्थिति विस्तार से जानी। किस क्षेत्र में कैसी सामाजिक संरचना है, किसानों की क्या समस्याएं हैं, युवा किस दिशा में सोच रहे हैं, और आम जनता के मन में क्या अपेक्षाएं हैं। इसके साथ ही उन्होंने मध्यप्रदेश में भाजपा की स्थिति पर भी लंबी चर्चा की। तब मैंने समझा कि अटल जी राजनीति को केवल आंकड़ों या नारों के आधार पर नहीं, बल्कि जमीनी सच्चाई और समाज की नब्ज के आधार पर समझते थे।
यह घटना अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की मूल विशेषता को उजागर करती है। वे सुनते थे। भारतीय राजनीति में यह गुण दुर्लभ है। अधिकतर नेता बोलने में विश्वास रखते हैं, लेकिन अटल जी सुनने में विश्वास रखते थे। वे जानते थे कि सत्ता का अहंकार सबसे पहले कानों को बंद करता है और जो नेता सुनना छोड़ देता है, वह जनता से कट जाता है। अटल जी ने कभी अपने आसपास दीवारें नहीं खड़ी कीं। वे पत्रकार से, कार्यकर्ता से, कवि से और सामान्य नागरिक से समान सहजता से संवाद करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीति विचारधारा से प्रेरित थी, लेकिन कट्टरता से मुक्त थी। वे संघ की वैचारिक पृष्ठभूमि से आए, भाजपा के संस्थापक नेताओं में रहे, लेकिन उनका व्यक्तित्व किसी संकीर्ण खांचे में कैद नहीं हुआ। विपक्ष भी उनका सम्मान करता था। संसद में जब अटल जी बोलते थे, तो विरोधी दलों के नेता भी ध्यान से सुनते थे। यह सम्मान डर से नहीं, विश्वास से उपजा था। प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी ने देश को कई ऐतिहासिक निर्णय दिए। पोखरण में परमाणु परीक्षण कर उन्होंने भारत की सामरिक क्षमता को दुनिया के सामने स्थापित किया, लेकिन उसी दृढ़ता के साथ उन्होंने शांति का संदेश भी दिया। लाहौर बस यात्रा उनके राजनीतिक जीवन की सबसे संवेदनशील पहल थी। वे जानते थे कि शक्ति और शांति दोनों का संतुलन ही राष्ट्र को सुरक्षित बनाता है। कारगिल युद्ध के समय उनका नेतृत्व दृढ़ था, लेकिन युद्धोन्माद से मुक्त। उन्होंने सेना को पूरा समर्थन दिया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की नैतिक स्थिति भी मजबूत रखी।
अटल जी का सबसे बड़ा योगदान शायद यह था कि उन्होंने राजनीति को मानवीय चेहरा दिया। वे सत्ता में रहते हुए भी संवेदनशील बने रहे। वे कविता लिखते रहे, साहित्य पढ़ते रहे और संवाद करते रहे। उनकी कविताएं आज भी बताती हैं कि उनके भीतर का मनुष्य राजनीति के बोझ से कभी दबा नहीं। हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा यह पंक्ति केवल कविता नहीं, उनके जीवन का सार है। आज जब राजनीति में भाषा कठोर होती जा रही है, संवाद की जगह आरोप-प्रत्यारोप ले रहे हैं और संवेदना को कमजोरी समझा जाने लगा है, तब अटल बिहारी वाजपेयी और भी अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं। वे याद दिलाते हैं कि राजनीति केवल सत्ता प्राप्त करने की कला नहीं, बल्कि समाज को जोड़ने का माध्यम है। वे यह भी सिखाते हैं कि दृढ़ विचारधारा और उदार व्यवहार एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हो सकते हैं। विदिशा की वह स्मृति, बच्चों के बिल्ले, सभा का वह मौन, मेरे पिताजी और अटल जी की वह लंबी बातचीत,मुझे देखकर अटल जी का मुस्कुरा कर यह पूछना कि और पढा़ई-बढ़ाई कैसी चल रही है? ये सब मिलकर अटल बिहारी वाजपेयी को मेरे लिए केवल एक पूर्व प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि लोकतंत्र के ऐसे सेनानी नजर आते हैं जो हर एक से स्नेह रखते हैं। आज लगता है कि अटल जी जैसे नेता विरले होते हैं, लेकिन उनकी विरासत केवल स्मारकों में नहीं, बल्कि उस राजनीतिक संस्कृति में जीवित रहनी चाहिए, जो संवाद, सम्मान और संवेदना पर आधारित हो। पवन वर्मा
अटल बिहारी वाजपेयी वास्तव में देश की एक अद्भुत शख्सियत थे,ऐसी शख्सियत, जिनकी कमी आज भी उतनी ही महसूस होती है, जितनी उनके रहते उनकी उपस्थिति सुकून देती थी। मेरी स्मृतियों में तो उनकी मोहक और मधुर मुस्कान सदैव जीवंत रहेगी।


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