- व्यक्ति और समाज का अंतर्संबंध – आंतरिक द्वंद्व में उभरती सामाजिक
- जैनेंद्र कुमार की कहानियों में सामाजिक स्वरूप का सूक्ष्म अनुशीलन
Upgrade Jharkhand News. हिंदी कथा-साहित्य के इतिहास में जैनेंद्र कुमार एक ऐसे कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिन्होंने कहानी को बाहरी घटनाओं और सामाजिक नाटकीयता से हटाकर मानव मन के गहन अंतर्लोक में स्थापित किया। प्रेमचंद के बाद जिस मनोवैज्ञानिक कथा-धारा का विकास हुआ, उसमें जैनेंद्र कुमार का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी कहानियों में समाज किसी प्रत्यक्ष मंच की तरह उपस्थित नहीं होता, बल्कि व्यक्ति की चेतना और आत्मसंघर्ष के माध्यम से अभिव्यक्त होता है।जैनेंद्र कुमार के कथा-संसार में समाज और व्यक्ति का संबंध बाहरी टकराव का नहीं, बल्कि आंतरिक द्वंद्व का है। उनके पात्र सामाजिक नियमों, मर्यादाओं और अपेक्षाओं से बँधे हुए हैं, परंतु इन बंधनों को वे विद्रोह की भाषा में नहीं, बल्कि मौन पीड़ा और आत्ममंथन के रूप में व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ शांत होते हुए भी गहरी बेचैनी पैदा करती हैं।
व्यक्ति बनाम समाज की - मानसिक लड़ाई -जैनेंद्र कुमार की कहानियों में समाज एक अदृश्य दबाव की तरह मौजूद रहता है। पात्र समाज से सीधे संघर्ष नहीं करते, बल्कि उसके प्रभाव को अपने भीतर झेलते हैं। कहानी ‘त्यागपत्र’ का नायक हो या ‘सुनीता’ के पात्र—सभी अपने निजी भावों और सामाजिक दायित्वों के बीच फँसे हुए दिखाई देते हैं। यह द्वंद्व उस मध्यवर्गीय समाज की सच्चाई को उजागर करता है, जहाँ प्रतिष्ठा, मर्यादा और लोकलाज व्यक्ति की स्वतंत्रता पर हावी रहती है।
नारी चेतना और सामाजिक -जैनेंद्र कुमार ने हिंदी कहानी में नारी पात्रों को नई गरिमा प्रदान की। उनकी स्त्री पात्र दबी हुई, निरीह या केवल सहनशील नहीं हैं, बल्कि विचारशील और आत्मसजग हैं। वे सामाजिक बंधनों को स्वीकार करती हुई भी उनके औचित्य पर प्रश्न उठाती हैं। ‘पाजेब’, ‘पत्नी’ और ‘त्यागपत्र’ जैसी कहानियों में स्त्री की आंतरिक स्वतंत्रता की आकांक्षा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।यह स्त्री-चित्रण सामाजिक विद्रोह की उग्रता नहीं रखता, लेकिन उसकी मौन असहमति समाज की रूढ़ियों पर तीखा प्रहार करती है। जैनेंद्र कुमार के यहाँ नारी समस्या केवल सामाजिक अन्याय का प्रश्न नहीं, बल्कि मानवीय अस्मिता का प्रश्न बन जाती है।
नैतिकता के सामाजिक मानदंडों पर प्रश्न-जैनेंद्र कुमार की कहानियों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वे स्थापित नैतिक मूल्यों को अंतिम सत्य नहीं मानते। उनके पात्र अक्सर यह सोचते हुए दिखाई देते हैं कि समाज द्वारा स्वीकृत आचरण ही क्या वास्तविक नैतिकता है, या फिर व्यक्ति की अंतरात्मा की आवाज़ अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह प्रश्न आधुनिक समाज के नैतिक संकट को उजागर करता है।उनकी कहानियों में नैतिकता कोई कठोर नियम नहीं, बल्कि स्थितिजन्य और मानवीय अनुभव से निर्मित तत्व है। इसी कारण उनके पात्र अपराधबोध, आत्मग्लानि और आत्मस्वीकृति की जटिल मानसिक अवस्थाओं से गुजरते हैं।
मध्यवर्गीय समाज का यथार्थ -जैनेंद्र कुमार का सामाजिक संसार मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग से संबंधित है। यह वह वर्ग है जो आर्थिक सीमाओं, सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के बीच निरंतर संघर्षरत रहता है। इस वर्ग का मानसिक तनाव, दुविधा और आत्मसंघर्ष उनकी कहानियों में अत्यंत सूक्ष्मता से चित्रित हुआ है।उनकी कहानियों में न तो क्रांतिकारी नारे हैं और न ही प्रत्यक्ष सामाजिक आंदोलन, लेकिन मध्यवर्गीय जीवन की घुटन पाठक को भीतर तक छू जाती है।
रूढ़ियाँ और सामाजिक जकड़न -जैनेंद्र कुमार सामाजिक रूढ़ियों—जैसे विवाह संस्था, पारिवारिक मर्यादा और सामाजिक प्रतिष्ठा—को सीधे तोड़ने का आह्वान नहीं करते, बल्कि उनके दुष्प्रभावों को पात्रों की मानसिक पीड़ा के माध्यम से उजागर करते हैं। यह शैली अधिक प्रभावशाली इसलिए है क्योंकि पाठक स्वयं इन रूढ़ियों की अमानवीयता को महसूस करने लगता है।
समाज के प्रति - संवेदनशील दृष्टि-जैनेंद्र कुमार समाज के क्रांतिकारी आलोचक नहीं, बल्कि संवेदनशील विश्लेषक हैं। वे मानते हैं कि समाज का परिवर्तन बाहरी विद्रोह से नहीं, बल्कि व्यक्ति की चेतना के परिवर्तन से संभव है। उनकी कहानियों में यही दृष्टि बार-बार उभरती है।
निष्कर्ष कहा जा सकता है कि जैनेंद्र कुमार की कहानियों में सामाजिक स्वरूप सूक्ष्म, मनोवैज्ञानिक और मानवीय है। वे समाज को व्यवस्था के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्ति के अंतर्मन में बसे दबाव और संस्कार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं और आधुनिक समाज के भीतर छिपे नैतिक व मानसिक संकटों पर गहरी रोशनी डालती हैं।


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