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Bhopal व्यंग्य - अकादमी सम्मान की रुकी हुई घोषणा Satire - Academy Award announcement delayed

 


Upgrade Jharkhand News. सचिव का इंतजार था जो संस्कृति मंत्रालय में निदेशक भी हैं।अकादमी सम्मान घोषित होने थे । इंतजार सिर्फ एक घोषणा का नहीं था , उस व्यवस्था का था जो कहती है कि साहित्य स्वायत्त है । देश दुनियां में साहित्य के मेरे जैसे जागरूक पाठक , सुधी रचनाकार , साहित्यिक पत्रकार सब इंतजार करते रह गए और कोई ब्यूरोक्रेट गले में आई कार्ड डाले हाल में आया , दबी जुबान में कह गया कि आज घोषणा नहीं होगी।  शब्द सहम जाते हैं,दृश्य किसी रंगमंच का लगता है, पर है देश की साहित्य अकादमी का। काना फूसी है ऊपर से आदेश आया दो नाम जोड़ो किसी ने कहा जूरी और सरकार में टकराव हुआ है,  किसी ने कहा नाम तय है पर घोषणा रुकी है। इस सारी गासिप में सच्चाई कहीं बीच में छिपी बैठी जरूर होगी पर उसे कुर्सी नहीं मिली, और सब हाल की कुर्सियां खाली होते देखते रहे। जिस हाल में कैमरे सज चुके हों , सवालों की फेहरिस्त तैयार हों और समय की सुई प्रेस कांफ्रेंस के तय समय पर अटक गई हो,वहां  पर्दा उठने से पहले ही गिरा दिया गया और दर्शक तालियां बजाने के बजाय सिर खुजाते हाल से बाहर निकलने के लिए मजबूर हुए। साहित्य अकादमी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि न प्रेस कांफ्रेंस हुई न प्रेस रिलीज जारी की गई। 



पत्रकार घर लौट आया पर खबर वहीं की वहीं अटकी रह गई। भीतर क्या हुआ यह कोई बताने को तैयार नहीं पर बाहर बैठे हर आदमी को पता है कि भीतर कुछ न कुछ जरूर हुआ है। मंत्री जी, सफेद शर्ट वाले आका जी , बड़े प्रकाशक, कोई ना कोई तो है जो घोषणा रोकने की ताकत रखता है। सरकारी गलियारों की यह खासियत होती है कि वहां जब कुछ नहीं होता तब भी भीतर ही भीतर बहुत कुछ हो रहा होता है और जब बहुत कुछ होता है तब भी उसे कुछ भी नहीं कहा जाता। सवाल है कि  इस उठापटक के बाद जो पुरस्कार घोषित होंगे , उन्हें सम्मान कहा जाए या जुगाड़ , प्रेशर पॉलिटिक्स या प्रतिभा,कलम का अपमान अथवा समझौता,  उपलब्धि या अनुकंपा।  साहित्य का मौलिक स्वभाव प्रश्न करना है पर पुरस्कार का स्वभाव अक्सर चुप करा देना होता है। जो कल तक व्यवस्था की विसंगतियों पर कलम चलाता था आज उसी व्यवस्था की चुप्पी पर मौन साध ले तो आम पाठक के भीतर का आदमी सरे आम ठगा ठगा सा रह जाता है। यह वह बिंदु है जहां व्यंग्य जन्म लेता है , और रोता नहीं हंसता है ताकि रोने की आवाज कहीं दब न जाए।



नोबेल पुरस्कार की राजनीति की बातें अब फुसफुसाहट नहीं रहीं। साम दाम दंड भेद के सूत्र वहां भी खुली किताब की तरह पढ़े जा रहे हैं। जब विश्व का सबसे प्रतिष्ठित मंच भी सत्ता समीकरणों से अछूता नहीं तो अपने यहां के छोटे बड़े मंचों से मासूमियत की उम्मीद करना बाल सुलभ ही है। उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के सम्मान , पुरस्कार वर्षों से लंबित हैं और फाइलें धूल खा रहीं हैं। सम्मान अब महज योग्यता का नहीं धैर्य का इम्तहान भी बन गये है।  इस पूरी कथा में सबसे रोचक यह है कि सबको सब पता है पर कोई कुछ नहीं जानता। यह अनभिज्ञता नहीं एक संस्थागत अभिनय है। जब अकादमी जैसे मंच पर  प्रेस कांफ्रेंस का रद्द होना एक रहस्य बने , तो समझ लेना चाहिए कि साहित्य से ज्यादा राजनीति और साहित्य की जुगलबंदी की गोपनीयता फलफूल रही है।  समाधान क्या है? समाधान वही पुराना है। पुरस्कारों की प्रक्रिया को सार्वजनिक किया जाए , जूरी की राय को संक्षेप में सामने रखा जाए , सरकार का दखल अगर है तो उसे स्वीकार कर,स्पष्ट वैधानिक नामांकन नीति बनाई जाए ताकि पर्दे के पीछे की फुसफुसाहट मंच के खुले संवाद में बदल सके। और सबसे जरूरी यह कि लेखक पुरस्कार को अंतिम सत्य न माने बल्कि पाठक को ही अपना स्थायी निर्णायक समझे।



व्यंग्यकार के लिए यह समय उपजाऊ है क्योंकि विसंगति खुलेआम मुस्कुरा रही है। यह पूरा प्रसंग किसी प्रहसन से कम नहीं जहां पात्र गंभीर हैं, संवाद गुप्त हैं और मंच पर अंधेरा है। फर्क बस इतना है कि यहां शो के प्रवेश पत्र पाठक ने, लेखकों ने और साहित्य प्रेमियों ने ले रखे हैं पर शो रद्द कर दिया गया है। ऐसे में हंसी ही बचाव है और सवाल ही उम्मीद है। साहित्य अगर जीवित है तो वह इन रहस्यों पर हंसेगा भी और उन्हें उजागर भी करेगा। यही साहित्य की सदा से  जिद रही है ,यही उसका दायित्व भी है। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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