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Jamshedpur अमर शहीद ऊधम सिंह : जलियाँवाला बाग़ का प्रतिशोध नहीं, न्याय की अमर गाथा Amar Shaheed Udham Singh: Not revenge for Jallianwala Bagh, but an immortal saga of justice

 


  • औपनिवेशिक अत्याचार के, विरुद्ध एक अकेले क्रान्तिकारी का निर्णायक प्रहार

Upgrade Jharkhand News. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल आंदोलनों और घोषणाओं का नहीं, बल्कि उन अमर बलिदानों का भी है, जिन्होंने अन्याय के विरुद्ध अपने प्राणों की आहुति देकर राष्ट्र की आत्मा को झकझोर दिया। ऐसे ही विरल, साहसी और संकल्पशील क्रान्तिकारी थे अमर शहीद ऊधम सिंह, जिनका जीवन जलियाँवाला बाग़ नरसंहार की पीड़ा, स्मृति और प्रतिरोध का जीवंत प्रतीक बन गया। 31 जुलाई 1940 को ब्रिटेन की पेंटनविले जेल में फाँसी पाकर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि अन्याय चाहे जितना बड़ा हो, इतिहास में उसका हिसाब अवश्य लिखा जाता है।उधम सिंह का पहला नाम शेर सिंह था. उधम सिंह की माता का नाम नरैणी और पिता का नाम चूहड़ राम था.


बचपन में अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद जब उधम सिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में रहना पड़ा तो वहां भी उनका नाम शेर सिंह लिखा हुआ था. इसकी पुष्टि डॉ. नवतेज सिंह ने की है. राकेश कुमार के अनुसार, बचपन में उनका नाम शेर सिंह था, लेकिन जब 1927 में उधम सिंह को अमृतसर में गिरफ्तार किया गया तो उनके दो नाम उदय सिंह और फ्रैंक ब्राज़ील सामने आए. “अपनी रिहाई के बाद वह नए ब्रिटिश पासपोर्ट के साथ उधम सिंह बन गए. ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड में मोहन सिंह, यूएस सिद्धू, मोहन सिंह, यूएस आजाद, सिद्धू सिंह आदि नाम दर्ज हैं. जब 1940 में कैक्सटन हॉल में ओ ड्वाएर की हत्या के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया, तो उन्होंने अपना नाम मुहम्मद सिंह आज़ाद बताया था.


“उसके बाद जेल से लिखे गए सभी पत्र मुहम्मद सिंह आज़ाद के नाम या हस्ताक्षर से लिखे गए थे. उन्होंने खास तौर पर एक पत्र भी लिखा कि उन्हें किसी अन्य नाम से न बुलाया जाए.''


प्रारंभिक जीवन : पीड़ा से संकल्प तक -अमर शहीद ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के सुनाम (वर्तमान संगरूर जिला) में हुआ। उनका बचपन अभावों और संघर्षों में बीता। माता-पिता का साया कम उम्र में ही उठ गया, जिससे उनका जीवन अनाथालय में गुजरा। यही प्रारंभिक पीड़ा उनके व्यक्तित्व में कठोरता, आत्मनिर्भरता और सामाजिक अन्याय के प्रति तीव्र संवेदनशीलता लेकर आई।


जलियाँवाला बाग़ : जिसने इतिहास मोड़ दिया -13 अप्रैल 1919 का दिन भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय माना जाता है। बैसाखी के अवसर पर अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में एकत्र निहत्थे, निर्दोष भारतीयों पर जनरल डायर के आदेश पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई गईं। सैकड़ों लोग मारे गए, हजारों घायल हुए। युवा ऊधम सिंह उस समय वहीं मौजूद थे। उन्होंने लाशों के ढेर, घायल कराहते लोगों और मातम में डूबे भारत को अपनी आँखों से देखा। यही घटना उनके जीवन का निर्णायक मोड़ बनी। जलियाँवाला बाग़ केवल एक हत्याकांड नहीं था, वह औपनिवेशिक अहंकार और बर्बरता की पराकाष्ठा थी। इस नरसंहार के लिए पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ'डायर नैतिक और राजनीतिक रूप से उत्तरदायी थे, जिन्होंने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन है।


 ऊधम सिंह ने यह ठान लिया कि इस अन्याय का उत्तर इतिहास की अदालत में दिया जाएगा। वे ग़दर आंदोलन और अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े। ब्रिटिश शासन की नजरों से बचते हुए उन्होंने देश और विदेश में संघर्ष का मार्ग अपनाया। उनका उद्देश्य स्पष्ट था—दोषियों को दंड और भारत की पीड़ा को विश्व के सामने लाना।


लंदन की धरती पर इतिहास -13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में एक सभा आयोजित थी, जहाँ माइकल ओ'डायर भी उपस्थित थे। ऊधम सिंह ने उचित अवसर देखकर ओ'डायर को गोली मार दी। यह घटना केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं थी, बल्कि जलियाँवाला बाग़ के शहीदों को दी गई श्रद्धांजलि और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सीने पर निर्णायक प्रहार था। गिरफ्तारी के बाद अदालत में ऊधम सिंह ने निर्भीकता से अपने कृत्य की जिम्मेदारी ली। उन्होंने कहा कि उन्होंने यह कार्य किसी व्यक्तिगत द्वेष में नहीं, बल्कि निर्दोष भारतीयों के न्याय के लिए किया। उनकी आवाज़ में न पश्चाताप था, न भय—केवल दृढ़ विश्वास और सत्य की शक्ति थी।


अदालत से फाँसी तक -ब्रिटिश अदालत ने उन्हें मृत्यु-दंड सुनाया। 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में उन्हें फाँसी दे दी गई। फाँसी से पहले भी उनका आत्मविश्वास अडिग रहा। वे जानते थे कि उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। उनकी शहादत ने भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई को अंतरराष्ट्रीय मंच पर नई धार दी।


*फ़िल्मों में काम किया- महाराजा दलीप सिंह, पंजाब और सिखों के इतिहास पर शोध करते हैं.पीटर बताते हैं, ''2004 में, मैंने 'सिख्स इन ब्रिटेन' नाम से अपनी किताब लिखी. उस समय मेरी मुलाकात ब्रिटेन में रहने वाले कई पंजाबी परिवारों से हुई. उनमें से कुछ बुजुर्ग थे जो उधम सिंह से मिले थे.”"उन्होंने मुझे बताया कि 1930 के दशक में ब्रिटेन में रहने वाले कई पंजाबियों को फिल्मों में छोटी भूमिकाएँ मिलीं."“ब्रिटेन में खालसा जत्था एक बहुत पुराना गुरुद्वारा साहिब है. इसे पटियाला के महाराजा, महाराजा भूपिंदर सिंह की मदद से बनाया गया था और उस समय इसका नाम 'महाराजा भूपिंदर सिंह धर्मशाला' रखा गया था.''


"फ़िल्म कंपनियां सीधे खालसा जत्थे से संपर्क करती थीं और जत्था, फ़िल्म कंपनियों में भारतीयों को भीड़ और अन्य पात्रों की भूमिका निभाने के लिए भेजता था."''इनमें से आसा सिंह ग्रेवाल और बब्बू सिंह बैंस कई फिल्मों में नजर आए. इसी तरह उधम सिंह ने भी कुछ फिल्मों में काम किया है.''रोजर पर्किन्स ने पिछले 40 वर्षों में ब्रिटिश सेना और नौसेना के इतिहास पर कई किताबें लिखी हैं. उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड और उधम सिंह द्वारा माइकल ओ ड्वाएर की हत्या पर एक किताब लिखी है.उस किताब का नाम है 'द अमृतसर लिगेसी'. 1989 में प्रकाशित इस किताब में उधम सिंह के फिल्मों में काम करने का ज़िक्र है.


रॉजर्स लिखते हैं, "हंगेरियन पत्रकार और फिल्म निर्माता अलेक्जेंडर कोर्डा ने डेन्हम में अपना स्टूडियो स्थापित किया.""1930 के दशक में उन्होंने दो फ़िल्में बनाईं जिनमें गैर-यूरोपीय सहायक अभिनेताओं की आवश्यकता थी."''उधम सिंह ने 'साबू द एलीफेंट बॉय' और 'द फोर फेदर्स' में सहायक कलाकार के तौर पर काम किया था. वे इन फिल्मों में भीड़ के हिस्से के रूप में दिखाई दिए थे." साल था 1933, जगह थी अविभाजित पंजाब की राजधानी लाहौर. जिस शख्स को ब्रिटिश पुलिस और खुफिया एजेंसियां उदय सिंह, शेर सिंह और फ्रैंक ब्राज़ील के नाम से जानती थीं, अब पासपोर्ट में उसका नाम उधम सिंह दर्ज था.फर्ज़ी ब्रिटिश पासपोर्ट पर उधम सिंह के नाम से हस्ताक्षर थे और नंबर था 52753 है।


पुलिस रिकॉर्ड में उदय सिंह के नाम से दर्ज व्यक्ति अब ऊधम सिंह बन गया था. इस पासपोर्ट को हासिल करने के पीछे उधम सिंह का मकसद पुलिस की नज़रों से बचकर भारत से बाहर जाना था.यह जानकारी पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में इतिहास के प्रोफेसर डॉ. नवतेज सिंह ने अपनी किताब 'द लाइफ स्टोरी ऑफ शहीद उधम सिंह' में और पटियाला के गवर्नमेंट कीर्ती कॉलेज के इतिहास के प्रोफ़ेसर सिकंदर सिंह ने अपनी किताब 'ए सागा ऑफ फ्रीडम मूवमेंट एंड जलियांवाला बाग' में भी लिखी है.


दोनों ने अपनी किताब में ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड का ज़िक्र किया -शहादत का ऐतिहासिक महत्व अमर शहीद ऊधम सिंह का बलिदान यह संदेश देता है कि स्वतंत्रता केवल मांगने से नहीं मिलती, बल्कि उसके लिए साहस, त्याग और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। उन्होंने दिखाया कि एक अकेला व्यक्ति भी साम्राज्यवादी सत्ता को चुनौती दे सकता है। उनका कृत्य बदले की भावना से नहीं, बल्कि न्याय की स्थापना के लिए था।


भारत में सम्मान और स्मृति -स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने ऊधम सिंह को उनका उचित सम्मान दिया। 1974 में उनके पार्थिव अवशेष भारत लाए गए और पंजाब में पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। आज उनका नाम शहीदों की उस पंक्ति में दर्ज है, जहाँ भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुखदेव जैसे महान क्रान्तिकारी अमर हैं।


आज के संदर्भ में ऊधम सिंह -आज जब देश स्वतंत्र है, तब भी अमर शहीद ऊधम सिंह का जीवन हमें अन्याय, शोषण और अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने की प्रेरणा देता है। वे केवल इतिहास के पात्र नहीं, बल्कि चेतना हैं—जो हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता की रक्षा उतनी ही आवश्यक है, जितनी उसकी प्राप्ति। अमर शहीद ऊधम सिंह का जीवन और बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वह ज्वाला है, जो समय के साथ और प्रखर होती गई। जलियाँवाला बाग़ के निर्दोष शहीदों की स्मृति को उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। उनकी शहादत यह सिखाती है कि इतिहास अन्याय को भूलता नहीं—और न्याय के लिए दिया गया बलिदान सदैव अमर रहता है।



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