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Jamshedpur ढाका से पहलगाम तक : अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हिंसा — इतिहास, पीड़ा और चेतावनी From Dhaka to Pahalgam: Violence against minority Hindus – History, Pain and Warning

 


Upgrade Jharkhand News. दक्षिण एशिया का इतिहास केवल स्वतंत्रता आंदोलनों, सीमाओं के पुनर्निर्धारण और राजनीतिक सत्ता-संघर्ष की कहानी नहीं है, बल्कि यह उन लाखों निर्दोष लोगों की भी कथा है जो साम्प्रदायिक हिंसा, कट्टरता और राज्य की विफलताओं के शिकार बने। ढाका से लेकर कश्मीर के पहलगाम तक, अलग-अलग कालखंडों में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हुए हमले इस क्षेत्र के लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों पर गहरे प्रश्नचिह्न लगाते हैं।


विभाजन और पूर्वी बंगाल की त्रासदी-1947 का विभाजन इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में से एक था। पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में रह रहे हिंदू समुदाय को उस दौर में व्यापक हिंसा, संपत्ति लूट, जबरन धर्मांतरण और पलायन का सामना करना पड़ा। यह प्रक्रिया केवल विभाजन तक सीमित नहीं रही, बल्कि दशकों तक चलती रही। 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान स्थिति और भयावह हो गई। राजनीतिक संघर्ष, सैन्य दमन और कट्टरपंथी तत्वों की सक्रियता ने हिंदू आबादी को विशेष रूप से निशाना बनाया। लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए। यह केवल सीमा पार करने की कहानी नहीं थी, बल्कि जड़ों से उखड़ने की पीड़ा थी।


कश्मीर : भय, खामोशी और विस्थापन -यदि पूर्वी बंगाल का दर्द सीमा पार का है, तो कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों का पलायन भारत के भीतर घटित हुई सबसे गंभीर मानवीय त्रासदियों में से एक है।1989–90 के बाद आतंकवाद के उभार ने घाटी का सामाजिक ताना-बाना तोड़ दिया। लक्षित हत्याएँ, धमकियाँ और भय का वातावरण ऐसा बना कि हजारों कश्मीरी पंडित परिवारों को रातोंरात अपने घर छोड़ने पड़े। पहलगाम और आसपास के क्षेत्रों में हुई हत्याएँ केवल जान लेने की घटनाएँ नहीं थीं, बल्कि एक समुदाय की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक उपस्थिति को मिटाने का प्रयास थीं। यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह हिंसा किसी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि आतंकवादी और अलगाववादी विचारधाराओं का परिणाम थी, जिनका उद्देश्य भय के माध्यम से नियंत्रण स्थापित करना था।


हिंसा का कोई धर्म नहीं -इन घटनाओं पर चर्चा करते समय संतुलन और संवेदनशीलता अनिवार्य है। यह स्वीकार करना होगा कि हिंसा का कोई धर्म नहीं होता, अपराधी विचारधाराएँ होती हैं, समुदाय नहीं, और पीड़ित की पहचान सबसे पहले एक इंसान की होती है।फिर भी, किसी समुदाय के खिलाफ बार-बार हुई हिंसा को अनदेखा करना या उसे राजनीतिक सुविधा के अनुसार दबा देना भी अन्याय है। सत्य को स्वीकार करना और पीड़ा को मान्यता देना ही न्याय की पहली सीढ़ी है।


राज्य और समाज की भूमिका -ढाका हो या पहलगाम, इन त्रासदियों में एक साझा तत्व दिखाई देता है—राज्य की असफलता। समय रहते सुरक्षा न दे पाना, अपराधियों को दंडित न करना और पीड़ितों के पुनर्वास में उदासीनता, हिंसा को और गहरा करती है।साथ ही समाज की चुप्पी भी कम दोषी नहीं है। जब बहुसंख्यक समाज अन्याय के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठाता, तो पीड़ित खुद को अकेला और असहाय महसूस करता है।


आगे का रास्ता -आज आवश्यकता है कि इतिहास की इन घटनाओं को केवल स्मृति-दिवसों या राजनीतिक भाषणों तक सीमित न रखा जाए। पीड़ित समुदायों को न्याय, सुरक्षा और सम्मानजनक पुनर्वास मिले,अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को नीतिगत प्राथमिकता बनाया जाए,और शिक्षा व संवाद के माध्यम से कट्टरता के विरुद्ध सामाजिक प्रतिरोध खड़ा किया जाए।


निष्कर्ष -ढाका से पहलगाम तक बहा खून हमें चेतावनी देता है कि यदि समाज और राज्य समय रहते नहीं चेते, तो इतिहास स्वयं को दोहराता है। सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि हम अतीत की पीड़ाओं को स्वीकार करें, पीड़ितों के साथ खड़े हों और यह संकल्प लें कि किसी भी निर्दोष नागरिक को उसकी पहचान के कारण डर में जीने को मजबूर नहीं होने देंगे। मानवता, लोकतंत्र और सहिष्णुता—यही किसी भी सभ्य समाज की असली कसौटी है।



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