Upgrade Jharkhand News. हिन्दी साहित्य के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो अपने समय की सीमाओं को लांघकर आने वाली पीढ़ियों के लिए भी विचार और प्रेरणा का स्रोत बन जाते हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964) ऐसा ही एक नाम है, जिसने न केवल कविता की दिशा बदली बल्कि साहित्य को सामाजिक ईमानदारी और वैचारिक प्रतिबद्धता का साहस भी दिया। उन्हें प्रगतिशील हिन्दी कविता का प्रमुख स्तंभ माना जाता है, वहीं नयी कविता के बीच उन्हें एक सशक्त सेतु के रूप में भी देखा जाता है। कवि, आलोचक, कहानीकार और चिंतक—इन सभी रूपों में मुक्तिबोध ने हिन्दी साहित्य में गहरी छाप छोड़ी।
प्रारंभिक जीवन और साहित्य से जुड़ने की प्रक्रिया-मुक्तिबोध का जन्म मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में हुआ। बचपन से ही पढ़ाई, पुस्तकों और लिखने के प्रति उनका झुकाव था। शुरुआती जीवन आर्थिक कठिनाइयों और अस्थिरताओं से भरा रहा, जिसने उनके संवेदनशील मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। शिक्षक, संपादक, पत्रकार जैसे कई पेशों में उन्हें काम करना पड़ा, पर साहित्य-साधना उनके जीवन का मूल केंद्र बनी रही।यह संघर्ष और असुरक्षा ही उनकी रचनाओं की वैचारिक शक्ति बनी, जो बाद में उनकी कविता में स्पष्ट दिखाई देती है।
प्रगतिशीलता और नयी कविता का सेतु-मुक्तिबोध को प्रगतिशील धारा का समर्थक माना जाता है, पर उनका लेखन इस धारा की सामान्य सीमाओं से बहुत आगे जाता है। वे समाज की वर्ग-विरोधी संरचना, शोषण, भ्रष्ट राजनीति और बौद्धिक पाखंड के खिलाफ कठोर शब्दों में बात करते हैं।उनका मानना था कि साहित्य केवल सौंदर्यबोध की वस्तु नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का माध्यम भी है। इस दृष्टि ने उन्हें नयी कविता के उन कवियों के निकट ला दिया, जो व्यक्ति के भीतर के संघर्ष को समझना चाहते थे।इस तरह मुक्तिबोध दोनों धाराओं को जोड़ने वाले कवि बने—जहाँ प्रगतिशीलता समाज का यथार्थ देती है और नयी कविता मनुष्य का अंतर जगत।
काव्य-दृष्टि: आत्मसंघर्ष और सामाजिक विवेक की अभिव्यक्ति-मुक्तिबोध की कविताएँ पाठकों को अनायास नहीं मिलतीं। उनकी भाषा, बिंब और विचार इतने गहरे और बहुस्तरीय होते हैं कि उन्हें पढ़ने के लिए पाठक को भीतर उतरना पड़ता है। वे मानते थे कि मनुष्य का सबसे बड़ा संघर्ष उसके भीतर का संघर्ष है—अंधकार, भय, अंतर्द्वंद्व और नैतिक प्रश्नों का संघर्ष। उनकी कविता “अँधेरे में” इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। यह रचना हिन्दी साहित्य की मील का पत्थर मानी जाती है। इसमें न केवल एक व्यक्ति की मानसिक बेचैनी है, बल्कि पूरा सामाजिक यथार्थ सिमट आया है—राजनीतिक भ्रष्टाचार, नैतिक पतन, योजनाबद्ध शोषण और आम आदमी की विवशता।
इस कविता ने मुक्तिबोध को हिन्दी साहित्य में अमर कहानीकार और आलोचक के रूप में उनका योगदान-अधिकतर लोग मुक्तिबोध को एक बड़े कवि के रूप में जानते हैं, पर वे एक उत्कृष्ट कहानीकार भी थे। उनकी कहानियों में प्रतीक और रूपक का सुंदर मिश्रण मिलता है।उनकी कहानियाँ ऐसे पात्रों को लेकर आती हैं जो सामाजिक अन्याय से पीड़ित हैं, और जिनके भीतर आदर्श और वास्तविकता का संघर्ष लगातार चलता रहता है। वे कहानी को मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि बौद्धिक जागरूकता का माध्यम मानते थे। आलोचना के क्षेत्र में भी मुक्तिबोध का काम अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी आलोचना में बौद्धिकता, निर्भीकता और गहन विश्लेषण का अनूठा संयोजन मिलता है। उन्होंने साहित्य को समाज से जोड़कर देखने पर जोर दिया और कहा कि साहित्यकार का दायित्व है कि वह न्याय, सत्य और मानवीय संवेदना के पक्ष में खड़ा हो।
राजनीतिक और सामाजिक चेतना-मुक्तिबोध ने अपने समय की राजनीति को गहराई से समझा। वे सत्ता की पाखंडी प्रवृत्तियों, पूँजीवादी ढांचे और जनविरोधी नीतियों के प्रखर आलोचक थे। उनकी कविताओं में एक बेचैनी, एक तड़प दिखाई देती है—मानो वे लगातार समाज से सवाल पूछ रहे हों।वे मानते थे कि लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब जनता के भीतर विवेक, चेतना और प्रतिरोध की क्षमता हो। उनके लेखन में यही चिंता बार-बार लौटती है।
संघर्षपूर्ण जीवन और असमय मृत्यु-मुक्तिबोध का जीवन आर्थिक असुरक्षा, अल्पवेतन, बीमारियों और लगातार नौकरी बदलने के बीच गुजरा। उन्होंने कभी अपने विचारों से समझौता नहीं किया, इसलिए सुविधाएँ उन्हें कभी नहीं मिलीं।उनकी अंतिम रचनाएँ तब प्रकाशित हुईं जब वे जीवन के अंतिम दिनों में थे। 11 सितंबर 1964 को वे दुनिया से विदा हो गए।विडंबना यह है कि जिस ख्याति और सम्मान के वे हकदार थे, उसका अधिकांश भाग उन्हें मृत्यु के बाद मिला।
मरणोपरांत ख्याति और साहित्य में स्थायी स्थान-मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद उनकी रचनाएँ एक-एक कर सामने आईं और साहित्य-जगत ने महसूस किया कि यह व्यक्तित्व आधुनिकता का सबसे सशक्त प्रतिनिधि था।आज हिन्दी साहित्य का इतिहास मुक्तिबोध के बिना पूरा नहीं माना जा सकता। आधुनिक कविता, आलोचना और विचारधारा पर उनका प्रभाव आज भी स्पष्ट दिखाई देता है।
समकालीन प्रासंगिकता-आज जब समाज कई चुनौतियों से जूझ रहा है—राजनीतिक भ्रम, सामाजिक असमानता, वैचारिक उथल-पुथल—ऐसे समय में मुक्तिबोध का साहित्य और भी अधिक प्रासंगिक हो उठता है।उनकी कविताएँ हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या हम अपने दायित्व, अपनी नैतिकता और अपनी संवेदना के प्रति सचेत हैं?मुक्तिबोध हमें सिखाते हैं कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और मानवीय विवेक की पुकार है।



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