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Bhopal. व्यंग्य-फोन के चार्जर में फंसी साहित्य की गरिमा, Satire- Dignity of literature stuck in phone charger


Upgrade Jharkhand News.  एक ज़माना था जब साहित्य लिखा भी जाता था और पढ़ा भी। पाठकों को नई रचनाओं की प्रतीक्षा रहती थी, लेखक लेखन के प्रति गंभीर रहते थे, और आलोचना को प्रोत्साहन समझा जाता था। परंतु अब समय बदल चुका है। अब लेखक को पाठकों की तलाश है, और पाठक... वे शायद अब 'रील' में रम गए हैं। आज का साहित्य सोशल मीडिया के किसी कोने में पड़ा, "सीन बाई " की व्यथा रो रहा है। रचनाएं लिखी जा रही हैं, साझा की जा रही हैं, पर पढ़ी जा रही हैं, इसका कोई प्रमाण नहीं। व्हाट्स अप समूह में सैकड़ों लोग जुड़े होते हैं पर सक्रिय केवल कुछ ही होते हैं। लेखकों के लिए अब सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं है कि “कहानी में कथानक ठीक है या नहीं?”, बल्कि यह कि “पोस्ट पर कितने कमेंट आए?”     साहित्यिक समूहों में एडमिन महोदय बड़े जोश से प्रतिदिन  कविताएं,  कहानियां और गद्यांश  डालते हैं। पर हर रचना के नीचे एक ही बेचैनी होती है—"अभी तक सिर्फ दो कमेंट? और उनमें से एक में तो बस एक  इमोजी है!" लगता है साहित्य का स्तर अब भावनाओं से नहीं, ‘एंगेजमेंट रेट’ से मापा जा रहा है।



कुछ लोग तो कमेंटिंग को भी 'आर्ट फॉर्म' बना चुके हैं। उन्हें रचना पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।  रचना पोस्ट होते ही उसे पढ़ने के लिए जरूरी समय से भी पहले फटाफट ‘अद्भुत’, ‘वाह’, ‘सुंदर प्रस्तुति’ जैसे शब्द कॉपी-पेस्ट कर देते हैं। कुछ तो इतने व्यस्त हैं कि इमोजी ही काफी समझते हैं — एक फूल, एक दिल, एक 'हाथ जोड़े हुए' वाला इमोजी और काम खत्म। अब तो लेखक भी व्यूज़ और कमेंट के लिए पोस्ट के साथ ट्रेलर जोड़ते हैं — “यह कहानी मैंने उस दिन लिखी जब ऑफिस से लौटते वक्त चाय की चुस्की ले रहा था…”। बस, यह सुनते ही पहला पाठक कमेंट करता है — “चाय से जुड़ी रचनाएं तो हमेशा दिल को छू जाती हैं।” कहानी पढ़ने की जरूरत किसे है? लेखक ने चाय का ज़िक्र किया, पाठक ‘दिल छू गया’ कहकर कर्तव्य निभा देते हैं। कुछ समूहों में तो यह खेल और भी विकसित हो गया है। वहां "गोपनीय लेखक समीक्षा सत्र" होता है — मतलब रचना पोस्ट होती है, पर लेखक का नाम छुपा दिया जाता है ताकि निष्पक्ष टिप्पणियां मिलें। लेकिन टिप्पणी देने से पहले ही इनबॉक्स में वास्तविक लेखक का मैसेज आ जाता है — “भाई, आज मेरी रचना लगी है, कुछ अच्छा लिख देना।” अब बताइए, जब खुद लेखक अपनी रचना की मार्केटिंग कर रहा हो, तो निष्पक्षता की उम्मीद क्यों  और कैसे?



जब एक भी कमेंट नहीं आता, तो एडमिन साहब गंभीर हो उठते हैं। एक ब्रॉडकास्ट संदेश आता है “साथियों, आपकी टिप्पणी से ही समूह की गरिमा बनी रहती है। कृपया दो मिनट निकाल कर प्रतिक्रिया दें।”  मतलब, अब साहित्यिक प्रतिक्रिया देना भी ‘समूह धर्म’ बन चुका है। आपको कुछ अच्छा लगे या नहीं, टिप्पणी करना अनिवार्य है। ऐसा न करने पर एडमिनजी को लगता है कि समूह की ‘टीआरपी’ गिर रही है। फिर वे उस सदस्य को ‘वार्निंग’ देते हैं जिसने तीन दिनों से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। अब आप कहेंगे, “अरे, टिप्पणी तो सराहना का माध्यम है।” बिल्कुल है। पर क्या ये टिप्पणियां रचना पढ़कर दी गई हैं, या बस दोस्ती निभाने के लिए? क्या ‘वाह-वाह’ करना साहित्यिक उत्तरदायित्व है, या बस एक अनिवार्य सामाजिक औपचारिकता?



आज लेखक लिखने से ज़्यादा इस बात से परेशान है कि पोस्ट के नीचे कितने लोग 'रिएक्ट' करेंगे। और पाठक पढ़ने से ज़्यादा इस दुविधा में है कि 'वाह' लिखूं या बढ़िया है, या कोई इमोजी भेजूं। अब तो "आपकी टिप्पणी से गरिमा बढ़ेगी" जैसी पंक्तियां आम हो गई हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि ‘गरिमा’ अब फोन चार्जर में फंसी हुई है और हम सब, सिर्फ ‘टिप्पणी संख्या’ बढ़ाने के लिए टाइप कर रहे हैं। ऐसे में साहित्य नहीं, ‘लाइक लिप्सा’ पल रही है। और हम सब एक सामूहिक अभिनय कर रहे हैं— लेखक लेखन का, पाठक पठन का, और एडमिन प्रशंसा के आंकड़े संजोने का। साहित्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है — अब रचना पढ़ी नहीं जाती, बस उसका रिएक्शन काउंट होता है। शायद अब समय आ गया है कि हम ‘पढ़ो, सोचो और फिर लिखो’ के बजाय ‘पोस्ट करो, इमोजी दो और आगे बढ़ो’ का युग स्वीकार कर लें। क्योंकि आजकल साहित्य में ‘कमेंट’ आना जरूरी है,  ‘कंटेंट’ गया भाड़ में! विवेक रंजन श्रीवास्तव



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