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Bhopal. पुस्तक चर्चा - शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे, Book Discussion - My words, your meaning


Upgrade Jharkhand News. कुछ किताबें होती हैं जो अपने पन्नो में गहरे अर्थ संजोए होती हैं। वे मन मस्तिष्क को मथती हैं। "शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे" हेमन्त बावनकर  की ऐसी ही कृति है।  बावनकर  की रचनाएँ हिंदी साहित्य में उसी पंक्ति में खड़ी दिखती हैं, जिसमें निराला की विद्रोही चेतना, धूमिल के यथार्थवाद, और अज्ञेय की आत्मपरकता ने मुक्त काव्य  को अस्त्र बनाया।  यह कृति निस्संदेह समकालीन हिंदी काव्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिस पर हिंदी जगत में विमर्श वांछित है। हेमन्त जी के संवेदन शील हृदय पर देश दुनियां की समकालीन सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, कोरोना काल की त्रासदी, और मानवीय जिजीविषा, संवेदनाओं का मर्म स्पर्शी प्रभाव हुआ है , जिसे उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त कर स्वयं को वेदना मुक्त किया है।


भाषा की सहजता से वे पाठकों को रचना के संग बाँधते हैं ।  हिंदी काव्य परंपरा के साथ साम्य रखते हुए नवीन प्रयोगों को भी रचनाएं समेटती हैं। कविता "आजमाइश" में बावनकर जी लिखते हैं-"बचपन से पढ़ा था मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, अब किससे बैर रखना है सिखाने लगे हैं लोग।"ये पंक्तियाँ धूमिल के "सूनी घाटी का सूरज" जैसी व्यंग्यात्मक शैली की याद दिलाती हैं ।  "लोकतंत्र का उत्सव" जैसी कविताएँ राजनीतिक व्यवस्था पर प्रहार करती हैं, जिसमें नागार्जुन की शैली जैसी प्रखरता झलकती है। बावनकर  का यह अभिव्यक्ति पक्ष हिंदी काव्य में  कटाक्ष व्यंग्य  की समृद्ध परंपरा को बढ़ाता है।


कोरोना काल पर केंद्रित छोटी रचनाएं जैसे-"ऑक्सीज़न"और "कफन" नपे तुले शब्दों में बड़ी बात कहने की उनकी क्षमता की परिचायक है। करुणा काव्य की ताकत होती है।  

"ऑक्सीजन तो कायनात में बेहिसाब थी...  एक सांस न खरीद सके।"

             इन पंक्तियों में मुक्तिबोध की "अंधेरे में" जैसी अस्तित्ववादी पीड़ा  की सामूहिक विसंगति दिखती है। "वेंटिलेटर" और "पॉज़िटिव रिपोर्ट" जैसी कविताएँ महामारी में मनुष्य की असहायता को चित्रित करती हैं । विष्णु खरे को जिन्होंने पढ़ा है वे उनके यथार्थवाद से बावनकर  में साम्य ढूंढ सकते हैं। बावनकर पारंपरिक मूल्यों और आधुनिकता के बीच तनाव को दर्शाते  हैं ...



"आज ‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है? और ‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?" यह प्रश्न अज्ञेय के "असाध्य वीणा" की तरह सांस्कृतिक पहचान के संकट को उजागर करता है। इसी तरह,"विरासत"  में वे परंपरा के प्रति आग्रह और उसके विघटन के बीच झूलते मन की अभिव्यक्ति करते हैं।भाषा की सहजता और प्रतीकात्मकता बावनकर  का अभिव्यक्ति कौशल है। रचनाओं की भाषा सरल होते हुए भी  प्रतीकात्मक है। "बिस्तर" कविता में .."घर पर बिस्तर उसकी राह देखता रहा...    अस्पताल में उसे कभी बिस्तर ही नहीं मिला।" यहाँ "बिस्तर"  कोरोना काल की स्वास्थ्य व्यवस्था के चरमराते संकट  का प्रतीक है, जो  सांकेतिक अभिव्यक्ति की ताकत है। इसी तरह, "कॉमन मेन बनाम आम आदमी" जैसी कविताएँ राजनीतिक शब्दजाल को उधेड़ती हैं, जिसमें भाषाई चातुर्य झलकता है।"लखनऊ से मैं कमाल खान" में जिस सहजता से वे पाठकों से जुड़ते हैं अद्भुत है।



कुल मिलाकर सचमुच  हेमन्त जी के ये शब्द , पाठक के लिए केलिडॉस्कोप की तरह हजार अर्थ देते हुए उसे मंथन के लिए प्रभावी बौद्धिक संपदा प्रदान कर रहे हैं। मुझे लगता है कि बहुआयामी प्रतिभा संपन्न हेमन्त जी को निरंतर काव्य सृजन करते रहना चाहिए , इस संग्रह से उनमें मुझे संभावना से भरपूर कवि के दर्शन हुए हैं।  विवेक रंजन श्रीवास्त-



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