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Bhopal आज भी जीवंत है आदिवासी जीवन में उलगुलान और भगवान बिरसा मुंडा की ध्वनि, The voice of Ulgulan and Lord Birsa Munda is still alive in the tribal life

 


बिरसा मुंडा शहादत दिवस 9 जून पर विशेष

Upgrade Jharkhand News. यह सर्वविदित  है कि लेखिका महाश्वेता देवी ने अपना साहित्य  आदिवासी व वंचित समुदायों के जन-जीवन को गहराई से देखकर रचा और उनके संघर्ष को उभारने की कोशिश की। उन्होंने आदिवासी जीवन पर ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर' उपन्यास लिखा। यह उपन्यास आदिवासी जीवन के साथ ही उनके जिस नायक के संघर्ष पर केन्द्रित है, वे है बिरसा मुंडा। ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में महाश्वेता देवी ने आदिवासियों द्वारा अपनी आजादी छिन जाने की आहट से बेचैन होने और बिरसा मुंडा के नेतृत्व में उस आजादी को बचाने के संघर्ष को बड़ी खूबसूरती से गूंथा है। बिरसा मुंडा वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई के महानायक थे।  झारखंड में अंग्रेजों के आने से पहले झारखंडियों का राज था लेकिन अंग्रेजी शासन लागू होने के बाद झारखंड के आदिवासियों को अपनी स्वतंत्र और स्वायत्ता पर खतरा महसूस होने लगा। आदिवासी सैकड़ों सालों से जल, जंगल और जमीन के सहारे खुली हवा में अपना जीवन जीते रहे हैं। आदिवासी समुदाय के बारे में ये माना जाता है कि वह दूसरे समुदाय की अपेक्षा अपनी स्वतंत्रता व अधिकारों को लेकर ज्यादा संवेदनशील रहा है। इसीलिए वह बाकी चीजों को खोने की कीमत पर भी आजादी के एहसास को बचाने के लिए लड़ता और संघर्ष करता रहा है। अंग्रेजों ने जब आदिवासियों से उनके जल, जंगल, जमीन को छीनने की कोशिश की तो उलगुलान यानी आंदोलन हुआ। इस उलगुलान का ऐलान करने वाले बिरसा मुंडा ही थे। बिरसा मुंडा ने 'अंग्रेजों अपनो देश वापस जाओ' का नारा देकर उलगुलान का ठीक वैसे ही नेतृत्व किया जैसे बाद में स्वतंत्रता की लड़ाई के दूसरे नायकों ने इसी तरह के नारे देकर देशवासियों के भीतर जोश पैदा किया। खास बात यह भी मानी जाती है कि बिरसा मुंडा से पहले जितने भी विद्रोह हुए वह जमीन बचाने के लिए हुए लेकिन बिरसा मुंडा ने तीन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उलगुलान किया। पहला, वह जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधनों की रक्षा करना चाहते थे। दूसरा, नारी की रक्षा और सुरक्षा तथा तीसरा, वे अपने समाज की संस्कृति की मर्यादा को बनाये रखना चाहते थे। 1894 में सभी मुंडाओं को संगठित कर बिरसा ने अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आन्दोलन चलाया। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गई। दो साल बाद बिरसा जेल से बाहर आये तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि विद्रोह के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है क्योंकि ब्रिटिश सत्ता कानूनों की आड़ में आदिवासियों को घेर रही है और उनसे किसी राहत की मांग करना फिजूल है। 


 इतिहास गवाह है कि 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। 1897 में बिरसा और उनके चार सौ साथियों ने तीर कमानों से खूंटी थाने पर धावा बोला। जंगलों में तीर और कमान उनके सबसे कारगर हथियार रहे हैं। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेजी सेनाओं से हुई जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई। बाद में उस इलाके से बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुई। जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत से बच्चे और औरतें भी मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। दरअसल बिरसा के जेल से आने के बाद अंग्रेजी सरकार ने समझ लिया कि बिरसा उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। उन्हें घेरने की हर संभव कोशिश भी बेकार साबित हो रही थी। अंग्रेजी सरकार ने यह रणनीति बनाई कि कई तरह के अभावों से जूझ रहे आदिवासियों के बीच उस व्यक्ति की खोज की जाए जो कि सबसे कमजोर हो और जो उनके लालच में आ सके।4 फरवरी 1900 को जराई केला के रोगतो गांव के सात मुंडाओं ने 500 रुपये इनाम के लालच में सोते हुए बिरसा को खाट सहित बांधकर बंदगांव लाकर अंग्रेजों को सौंप दिया। अदालत में बिरसा पर झूठा मुकदमा चला और उसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया। वहां उन्हें अंग्रेजों ने धीमा जहर दिया, जिससे 9 जून 1900 को बिरसा की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने यह संदेश देने की कोशिश की उनकी मृत्यु स्वभाविक हुई, क्योंकि बिरसा की मौत की बजाय हत्या की खबर फैलती तो आदिवासियों के गुस्से को रोक पाना असंभव हो जाता।


बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को बिहार के उलीहातू गांव-जिला रांची में हुआ था। उन्होंने हिंदू और ईसाई धर्म दोनों की शिक्षा ली थी। बिरसा को 25 साल में ही आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का काफी ज्ञान हो गया था। बिरसा मुंडा का जीवन सिर्फ 25 साल का रहा। उस समय के भगत सिंह बिरसा ही थे जिनसे सत्ता सबसे ज्यादा घबराती थी। बिरसा ने अपने छोटे से जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों को एकत्रित कर विद्रोह का सूत्र तैयार कर लिया और उन्हें आवाज उठाने की राजनीति सिखाई। बिरसा हमेशा अपनी संस्कृति और धर्म को बचाना और बरकरार रखना चाहते थे। उन्होंने मुंडा परंपरा और सामाजिक संरचना को नया जीवन दिया। दरअसल यह स्थानीयता की सुरक्षा की राजनीतिक लड़ाई का एक रूप था। इसीलिए बिरसा मुंडा को न केवल झारखंड में बल्कि समाज और राष्ट्र के नायक के रूप में देखा जाता है।



झारखंड और आदिवासी समाज समस्याओं की तरफ धकेला जा रहा है इसे बिरसा मुंडा ने पहले ही भांप लिया था। उन्हें यह लगा कि यह अंग्रेजों का राज का उनके जीवन में प्रवेश नहीं है बल्कि उनकी आजादी और आत्म निर्भरता में बाहरी आक्रमण है। 18वीं एवं 19वीं सदी के दौरान और भी विद्रोह व संघर्ष हो रहे थे। मसलन बाद में महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह जैसे नायक भी अंग्रेजी सत्ता से आजादी के लिए लड़ रहे थे। महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो, सुभाष चन्द्र बोस ने जय हिन्द और भगत सिंह ने इन्‍कलाब जिंदाबाद जैसे नारे दिये। लेकिन इन सबकी पृष्ठभूमि तैयार करने वालों में यदि सर्वाधिक महत्वपूर्ण नारा है तो वह बिरसा मुंडा का उलगुलान कहा जा सकता है। मुंडाओं के विद्रोह से अंग्रेजों को तब अपने पांव जमाने का खतरा सबसे ज्यादा दिखा इसलिए उन्हें जेल में रखकर जहर से मारा गया। दरअसल कई नायक संघर्ष के प्रतीक बन जाते हैं। उन्हें वैसे ही प्रतीकों के साथ दिखना स्वाभाविक लगता है। झारखंड में बिरसा की बेड़ियों वाली प्रतिमाएं और तस्वीरें ही मिलती है। झारखंड के लोग बेडियों वाली तस्वीरें व प्रतिमाओं को ही अपनी प्रेरणा का स्त्रोत मानते हैं और इतिहास से खुद को जुड़ा महसूस करते हैं। महाश्वेता देवी ने उपन्यास लिखा है तो आजादी के इस महानायक के लिए आदिवासी समुदाय में कई गीत भी है। आदिवासी साहित्य में उलगुलान की ध्वनि आज भी गूंजती है।



बिरसा मुंडा के काल से वर्तमान दौर का समय कहीं ज्यादा प्रतिकूल है। भारत में अधिकांश विकास परियोजना संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित की जा रही है ।क्योंकि संसाधनों के मामले में आदिवासी क्षेत्र समृद्ध रहा है और अब भी है । इस इलाके में देश का 71 फीसदी जंगल, 92 फीसदी कोयला, 78 फीसदी लोहा, 100 फीसदी यूरेनियम, 85 फीसदी तांबा, 65 फीसदी डोलोमाइट इत्यादि की भरमार है । भारत के जल स्रोत का 70 फीसदी जल आदिवासी इलाके में है। अधिकांश  कारखानों के लिए कच्चा माल इन्ही क्षेत्रों से मिलता है । यह प्रकृति की ओर से मिला वरदान है । लेकिन यही वरदान इनके लिए चुनौती भी है, क्योंकि इन्ही संसाधनों की लूट और कब्जे को लेकर देश और दुनिया के कार्पोरेट की गिद्ध दृष्टि लगी है । इन संसाधनों पर काबिज होने की प्रक्रिया काफी तेज हो गयी है। द्रुत गति से बढ़ रही कथित विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन का समाधान निकालने के लिए अब तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। तेजी से बढ़ते विस्थापन की सबसे अधिक मार देश के आदिवासियों पर पड़ रही है। 2016 में जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी की गई वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार,1950 से 1990 के बीच देश में 87 लाख आदिवासी विस्थापित हुए थे जो कुल विस्थापितों का चालीस फीसदी है। 



आदिवासी समाज हजारों वर्षों से प्राकृतिक संसाधनों यथा जंगल, पहाड़, नदियां, झरने, वनस्पति,पेड़-पौधों एवं भूगर्भ में विद्यमान संसाधन की रक्षा कर रहे हैं। उनके जीवन की प्रवृत्तियां एवं उनका जीवन जीने का तरीका ही ऐसा है जिससे उपर्युक्त संसाधनों की अनायास रक्षा होती रहती है। इसके विपरीत भूमंडलीकरण का यह,वह दौर है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए की मानसिकता काम कर रही है। प्राकृतिक संसाधन अधिकतर उन्हीं क्षेत्रों में है जहां आदिवासी हजारों वर्षों से निवास करता आया है और साथ - साथ संसाधनों की रक्षा करता आया है। किन्तु उसने कभी उन संसाधनों पर अपना मालिकाना हक जताने का दावा नहीं किया है। आज वैश्वीकरण के समय में पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि इन संसाधनों पर टिकी हुई है।ऐसी स्थिति में आदिवासी समाज को इस संसाधनों की कार्पोरेट लूट से बचाना होगा। इस घुसपैठ से आदिवासी समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। आदिवासी समाज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करता आया है और वर्तमान में भी उनका संघर्ष जारी है। देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनेता, प्रशासकों व बिचौलियों को यह लगता है कि  प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ आवाज उठाने वालों को डराकर या प्रलोभन देकर अपना रास्ता साफ किया जाए।



उपरोक्त संवैधानिक स्थिति पर राष्ट्रीय  अनुसूचित जनजाति आयोग की 14 वीं रिपोर्ट (2018- 19) में दिये गए सुझाव और अवलोकन पर कार्यवाही करते हुए गृह मंत्रालय,दिल्ली द्वारा  29 अप्रैल 2022 को राज्यपाल के सभी प्रमुख सचिव व सचिव को पत्र लिख कर दिशा-निर्देश जारी किया गया है। पत्र में लिखा गया है कि राज्यपाल कार्यालय को पांचवी अनुसूची के क्षेत्रों में लागू होने वाले कानून, विनियमन, अधिसूचना को सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए। यह अधिकार संविधान से मिला हुआ है।परन्तु वाकई में राज्यपाल इस शक्ति का इस्तेमाल करते हैं? अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और सुशासन के लिए राज्यपाल को पांचवी अनुसूची के पैरा(2) के तहत विनिमय बनाने का व्यापक अधिकार दिया गया है। जिसमें राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार को सीमित किया गया है परन्तु राज्यपाल को व्यापक विधायी और प्रशासनिक अधिकारों से सक्षम किया है। संविधान के अनुच्छेद 244 में व्यवस्था है कि किसी भी कानून को पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्र में लागू करने के पूर्व राज्यपाल उसे जनजातीय सलाहकार परिषद को भेजकर अनुसूचित जनजातियों पर उसके दुष्प्रभाव का आकलन करवाएंगे और तदनुसार कानून में फेरबदल के बाद उसे लागू किया जाएगा। दुर्भाग्य से संविधान की यह चेतना स्पष्ट होते हुए भी सभी आदिवासी क्षेत्रों के लिए संविधान में विस्तृत व्यवस्था नहीं की गई जिसका मुख्य कारण था उनकी स्थितियों की विभिन्नता। इसलिए प्रत्येक समाज की विशिष्ट स्थिति को देखते हुए उनके अनुरूप न्यायसंगत व्यवस्था स्थापित करने का दायित्व और अधिकार पांचवीं अनुसूची में राज्यपालों को सौंपे गए हैं। कुमार कृष्णन



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