Upgrade Jharkhand News. भगवान जगन्नाथ की नगरी पुरी और सूर्य देवता की नगरी कोणार्क के नजदीक बसा है भुवनेश्वर नगर। इसी भुवनेश्वर नगर में देवाधिदेव महादेव का विश्व प्रसिद्ध विशाल लिंगराज मन्दिर है। यह मंदिर अपनी अनुपम स्थापत्य कला के लिए तो दुनिया भर में प्रसिद्ध है ही लेकिन यहां भक्ति की भी अविरल रसधार बहती है। यहां यह निश्चित करना बड़ा ही कठिन होता है कि आप भक्ति की रसधार में डूब जाएं या यहां की मूर्तियों और कलाकृतियों के सौंदर्य को नेत्रों के समन्दर में समाहित कर लें। धार्मिक कथाओं के अनुसार यहां देवी पार्वती ने 'लिट्टी' तथा 'वसा' नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है। मान्यता है कि बिंदुसागर सरोवर में भारत के प्रत्येक झरने तथा तालाब का जल संग्रहित है और उसमें स्नान करने से पापों का नाश होता है। उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है।
यहां प्रत्येक पत्थर पर अद्भुत कलाकारी है। इस विशाल मंदिर का प्रांगण 150 मीटर वर्गाकार का है तथा कलश की ऊँचाई 40 मीटर है। मन्दिर के शिखर की ऊँचाई 180 फुट है। इस मन्दिर का शिखर नीचे से तो प्रायः सीधा तथा समकोण है किन्तु ऊपर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और शीर्ष पर वर्तुल दिखाई देता है। मन्दिर की दीवारों पर सुन्दर नक़्क़ाशी की गई है। मन्दिर के हर एक पत्थर पर कोई न कोई अलंकरण उत्कीर्ण है। जगह-जगह सुन्दर मूर्तियां है। यहां मुख्य मंदिर तो त्रिभुवन के स्वामी अर्थात त्रिभुवनेश्वर श्री लिंगराज जी का है। साथ ही यहां गणेश जी,श्री कार्तिकेय जी तथा माता पार्वती के तीन छोटे मन्दिर भी मुख्य मन्दिर के विमान से संलग्न हैं। माता गौरी मन्दिर एवं माता पार्वती मन्दिर में पार्वती जी की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मन्दिर के चतुर्दिक गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। मंदिर के गर्भग्रह के अलावा जगमोहन तथा भोगमण्डप में सुन्दर सिंह मूर्तियों के साथ देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ हैं। यहाँ पास ही में बिन्दुसरोवर है। परंपरागत रुप से पूजा एवं दर्शन करने वाले श्रद्धालु मंदिर में दर्शन करने से पूर्व यहां स्नान करते हैं, फिर क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं। अनंत वासुदेव के दर्शन के बाद गणेश पूजा,फिर गोपालनी देवी की पूजा,उसके उपरांत शिवजी के वाहन नंदी की पूजा के बाद ही लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य मंदिर में प्रवेश किया जाता है। त्रिभुवनेश्वर भगवान शंकर और माता पार्वती के दर्शन तत्पश्चात भोग पाने के बाद पूजा संपन्न होती है । इस स्थान को ब्रह्म पुराण में एकाम्र क्षेत्र बताया गया है।
मान्यता है कि यहां भगवान हरिहर विराजते हैं। हरि का मतलब है विष्णु और हर का मतलब शिव, ऐसे में यहां शिव और विष्णु की एक साथ पूजा होती है। भगवान शिव की पूजा में तुलसी दल का प्रयोग वर्जित है लेकिन, यह एक अनोखा मंदिर है जहां भगवान शिव को बेलपत्र के साथ तुलसी दल भी अर्पित किया जाता है। यहां शिव के हृदय में श्रीहरि का वास है। यहां श्रीहरि शालिग्राम के रूप में मौजूद हैं। इसीलिए इसे शिवलिंगों के राजा लिंगराज महादेव की उपाधि दी गयी है। यहां स्थित शिवलिंग स्वयंभू है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में भगवान भोलेनाथ एवं श्रीहरि विष्णु की संयुक्त प्रतिमा है। प्रतिमा में आधा हिस्सा शिवजी का है और आधा श्रीहरि का है। इसीलिए यहां पर शिव और हरि की साथ-साथ पूजा-अर्चना होती है। भगवान शिव और विष्णु एक साथ विराजते हैं और भगवान विष्णु का भोग बिना तुलसी दल के संपूर्ण नहीं होता इसलिए यहां बेल पत्र और तुलसीदल दोनों ही चढ़ाए जाते हैं। यहां एक छोटा सा कुआं भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह मरीची कुंड है जहां संतान से जुड़ी परेशानियों से मुक्ति के लिए महिलाएं स्नान करती हैं। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण सोमवंशी राजा ययाति प्रथम ने करवाया था। यहां विराजे लिंगराज स्वयंभू हैं।
सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर पूर्वोत्तर भारत में शैवसम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है। माना जाता हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हजार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब लगभग पाँच सौ ही शेष बचे हैं। इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति केशरी ने ग्यारहवीं शताब्दी में करवाया था। उसने तभी अपनी राजधानी को जाजपुर से भुवनेश्वर में स्थानांतरित किया था। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर या उड़ीसा ही नहीं बल्कि देश के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह भगवान त्रिभुवनेश्वर (शिव) को समर्पित है । इस मंदिर के ऊपर कई जगह गोंड राजवंशों के ग़ज़शोडूम (हाथी के ऊपर शेर) भी अंकित है। इस मंदिर के कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। अंजनी सक्सेना
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