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Bhopal अयोध्या का नया अध्याय: आस्था, स्मृति, संघर्ष और पुनर्निर्माण की गाथा Ayodhya's New Chapter: A Saga of Faith, Memory, Struggle and Reconstruction

 


Upgrade Jharkhand News. समय के प्रवाह में अयोध्या  एक ऐसी नदी की तरह दिखने लगी है जिसकी धारा कभी आस्था से चमकती है, कभी राजनीति की धूल से मटमैली, और कभी संस्कृति के ऐतिहासिक न्याय की ओस से निर्मल। अयोध्या केवल एक भौगोलिक नाम नहीं रहा, वह हर भारतीय मन का वह कोना बन गया है जहाँ स्मृति, विश्वास और इतिहास एक दूसरे के कंधों पर हाथ रखकर चलते हैं। समय इस यात्रा को बार बार टटोलता है, कसौटी पर परखता है जैसे  जानना चाहता हो कि बीते वर्षों की हलचल अब जन मानस के मन के किस हिस्से में है।  उन्नीस सौ नब्बे के आसपास अयोध्या का नाम पूरे देश के मानस में एक तीव्र कंपन की तरह उभरा। कारसेवा की खबरों, नारों की आवाज़ों और उत्तेजनाओं की परतों के बीच शहर वैसे ही कांप उठा। सांस्कृतिक इतिहास की दास्तान लंबे समय तक सुलगने के बाद एकाएक जागृत हवन बन पड़ी। आडवाणी जी की यात्रा ,उसके बाद की घटनाओं ने पूरे भारत को अपने साथ एक चेतन प्रवाह में बहा लिया।



बाबरी ढांचे का ढहना सिर्फ एक इमारत का गिरना नहीं था, वह अनेक पीढ़ियों की लड़ाई का मूर्त होना था । वर्षों तक दंगों की राख और अविश्वास की धूल लोगों की स्मृति में धुंध बनकर तैरती रही। न्याय और इतिहास की कसौटियां बार बार बदलती रहीं, मानो हर दर्शक अपने तरीके से उसी सवाल को पूछना चाहता हो कि कौन सा सच किसकी दृष्टि में वजन रखता है।  यह प्रश्न अदालतों में  सुना गया, गलियों और मोहल्लों की बातचीत में भी, और राजनीतिक घोषणाओं में भी। धीरे धीरे न्याय की लंबी सुरंग में एक किरण उभरी और दो हजार उन्नीस में आया वह फैसला जिसने भूमि के स्वामित्व का विवाद सुलझा दिया। अदालत ने इतिहास की बहस को उन सीढ़ियों पर उतार दिया जहाँ कानून की ठोस बुनियाद और आस्था की संवेदनशीलता दोनों को बराबर जगह मिली। एक पीढ़ी के जीवन का सबसे बड़ा विवाद उसी दिन अपने औपचारिक अंत तक पहुँचा, भले ही उसके प्रभाव अभी भी राजनैतिक अनकही परतों में बचे जब तब नजर आते हैं। 



फैसले के बाद अयोध्या ने  एक नया रूप खोजना शुरू किया। मंदिर निर्माण की भव्य गति में शहर एक परियोजना और भारतीयता का प्रतीक  बन गया। ईंटों पर ईंटो का चढ़ना, शिल्पियों की हथौड़ी की ताल, चौतरफा पुनर्रचना, सड़कें, रोशनियाँ, मेले, संतों का आवागमन, श्रद्धालुओं का सैलाब, स्थानीय बाज़ारों का नवजीवन , सरयू तट पर दीपावली यह सब मिलकर अयोध्या को एक नए वर्तमान में ढालने लगे। यह आस्था का उत्सव भी था और आधुनिकता का उभरता चेहरा भी। शहर अब केवल इतिहास की स्मृति नहीं रहा, वह पर्यटन, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का उभरता केंद्र बनने लगा।  आज अयोध्या में जहाँ विकास की चकाचौंध है, वहाँ स्मृतियों की परछाइयाँ भी हैं। पुराने दिनों की खरोंचें बराबर पूछती हैं कि क्या नया वैभव उन संवेदनशीलताओं को पूरी तरह भर पाएगा जो विवाद के दशकों में हर कदम पर चुभती रहीं। क्या लोग अब इस प्रसंग को केवल आस्था के चश्मे से देखेंगे या इसमें छिपी सीख को भी याद रखेंगे। क्या यह सफर हमें संवैधानिक व्यवस्था के बहु रंग में एक साथ रहने की कला सिखाएगा ? 



अयोध्या आज एक धार्मिक प्रतीक से आगे बढ़कर एक राष्ट्रीय चेतना  बन चुका है। सरयू का प्रवाह आज़माता है कि भारत कितना संवेदनशील रह सकता है, कितना समावेशी बन सकता है, कितनी परिपक्वता से अपनी विविधताओं को संभाल सकता है। सरयू आज भी बह रही है, पर किनारों पर खड़े हम सब उस प्रवाह को अपने अपने अर्थ देते रहते हैं। किसी के लिए वह आस्था का देवालय है, किसी के लिए न्याय की जीत, किसी के लिए इतिहास की दुविधा, और किसी के लिए एक ऐसा मोड़ जहाँ से देश ने अपना राजनैतिक रास्ता बदल लिया।      उन्नीस सौ नब्बे से दो हजार पच्चीस तक का अयोध्या का सफर यही सिखाता है कि इतिहास कभी केवल बीत नहीं जाता, वह मन के भीतर बैठकर वर्तमान को आकार देता रहता है। आस्था और कानून, स्मृति और परिवर्तन, संघर्ष और पुनर्निर्माण , ये सभी धागे मिलकर अयोध्या की वह गाथा बुनते हैं जो आज भी लिखी जा रही है। यह सफर अभी पूरा नहीं हुआ, बस एक नया अध्याय खुला है जिसमें भविष्य यह देखेगा कि हम इतिहास को कितना समझ सके और उससे कितनी परिपक्वता के साथ आगे बढ़ पाए। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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