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Bhopal कालबोध का द्वंद्व या एक सांस्कृतिक धर्मयुद्ध A conflict of time or a cultural crusade

 


एक जनवरी बनाम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा 

Upgrade Jharkhand News. ​किसी भी जीवंत राष्ट्र के लिए 'नववर्ष' उसकी सामूहिक चेतना, उसकी जीवन-दृष्टि और प्रकृति के साथ उसके तादात्म्य का उद्घोष होता है। भारतवर्ष में कालबोध कभी भी यांत्रिक नहीं रहा। यह सदैव ब्रह्मंडीय, प्राकृतिक और आध्यात्मिक रहा है ​किंतु, वर्तमान कालखंड की विडंबना यह है कि भारतीय समाज अपने सनातन 'कालबोध' से विमुख होकर एक जनवरी को नववर्ष के रूप में अंगीकार कर बैठा है, जबकि सृष्टि के नव-सृजन का पर्व 'चैत्र शुक्ल प्रतिपदा' विस्मृति के गर्त में धकेला जा रहा है।      यह मात्र दो तिथियों का संघर्ष नहीं, अपितु स्वबोध और परानुकरण के मध्य छिड़ा एक 'सांस्कृतिक धर्मयुद्ध' है।


​एक जनवरी : औपनिवेशिक दासता और परकीय कालबोध - एक जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित है, जिसका मूल पूर्णतः पाश्चात्य है। भौगोलिक और प्राकृतिक दृष्टिकोण से देखें तो भारत में एक जनवरी के समय प्रकृति सुप्त अवस्था में होती है। कड़ाके की ठंड, कोहरा और जड़ता का वातावरण होता है। न तो ऋतु में कोई परिवर्तन होता है, न ही वृक्ष-वनस्पतियों में कोई नया जीवन स्पंदित होता है। ​इस तिथि का भारतीय कृषि, नक्षत्र-विज्ञान या आध्यात्मिक परंपरा से कोई भी तार्किक संबंध नहीं है। यह औपनिवेशिक शासन की देन है, जिसे प्रशासनिक सुविधा के लिए हम पर थोपा गया था। स्वतंत्रता के दशकों पश्चात भी इस तिथि को 'नववर्ष' मानना हमारी मानसिक पराधीनता का प्रमाण है। ​आज यह दिवस दिशाहीन उल्लास और मदिरा-पान जैसे उन्मुक्त भोग का पर्याय बन गया है। इसमें न तो आत्म-चिंतन का अवकाश है और न ही नूतन संकल्प लेने की प्रेरणा। यह केवल  हमारी सांस्कृतिक जड़ों को खोखला कर रहा है।


​चैत्र शुक्ल प्रतिपदा: सृष्टि के नव-यौवन का पर्व -  भारतीय कालगणना में नववर्ष का आगमन 'चैत्र शुक्ल प्रतिपदा' से माना जाता है। यह वह समय है जब प्रकृति स्वयं अपना श्रृंगार करती है। 'वसंत ऋतु' अपने यौवन पर होती है, वृक्षों से जीर्ण-शीर्ण पत्ते गिर जाते हैं और उनमें नई कोंपलें (नवांकुर) फूटती हैं। खेतों में फसल पककर तैयार होती है, जो किसान के श्रम की सार्थकता का प्रतीक है। ​शास्त्रों के अनुसार, इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सृजन किया था। यही वह दिन है जब 'विक्रम संवत' का आरंभ होता है, जो भारत के सम्राट विक्रमादित्य के शौर्य और विजय का प्रतीक है। ​यह पर्व वैज्ञानिक और खगोलीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय सूर्य और चंद्रमा की स्थिति में विशेष परिवर्तन होता है, जो मानव शरीर और मन में नई ऊर्जा का संचार करता है। कश्मीर में 'नवरेह', दक्षिण में 'उगादी', महाराष्ट्र में 'गुड़ी पड़वा' और सिंध में 'चेटीचंड' के रूप में यह पर्व संपूर्ण भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोता है।


​विस्मृति का संकट: स्वधर्म का लोप -  ​यह संघर्ष केवल दिन या वर्ष बदलने का नहीं, अपितु 'चेतना' बदलने का है। जब कोई राष्ट्र अपने पर्व, अपने महापुरुष और अपनी कालगणना को भूलकर दूसरों के मापदंडों को श्रेष्ठ मानने लगता है, तो वह धीरे-धीरे अपनी 'आत्मा' खो देता है। एक जनवरी को नववर्ष मानना, अनजाने में ही सही, यह स्वीकार करना है कि हमारी अपनी वैज्ञानिक और प्राकृतिक परंपराएं हीन हैं। ​यह 'सांस्कृतिक विस्मृति' एक गंभीर संकट है। नई पीढ़ी को यदि यह ज्ञात ही नहीं होगा कि उसका वास्तविक नववर्ष कब और क्यों मनाया जाता है, तो वह अपनी जड़ों से कटकर एक ऐसे वृक्ष की भांति हो जाएगी जो तनिक भी आंधी (वैचारिक आक्रमण) आने पर धराशायी हो सकता है।


​चेतना के धर्मयुद्ध का आह्वान - आज जिस 'सांस्कृतिक धर्मयुद्ध' की बात हो रही है, वह अस्त्र-शस्त्र का युद्ध नहीं है। यह युद्ध 'स्मृति' और 'विस्मृति' के बीच है। यह संघर्ष 'स्वबोध' और 'आत्म-विस्मरण' के बीच है। ​आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम एक जनवरी का हिंसक विरोध करें, अपितु आवश्यकता इस बात की है कि हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को उसका खोया हुआ गौरव लौटाएं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा नववर्ष केवल कैलेंडर की तारीख न होकर, जीवन के नवनिर्माण का संकल्प बने। ​हमें परकीय कालबोध के अंधानुकरण से मुक्त होकर अपनी सनातन सांस्कृतिक चेतना का संवाहक बनना होगा। जिस दिन भारत का जनमानस चैत्र प्रतिपदा को उसी उत्साह और गौरव के साथ मनाएगा, उसी दिन इस सांस्कृतिक धर्मयुद्ध में हमारी वास्तविक विजय होगी। यह समय 'आत्मचिंतन' और 'प्रत्यावर्तन' (वापसी) का है। पवन वर्मा



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