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Bhopal व्यंग्य -सहभोज पर चर्चा :राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक Satire - Discussion on dining: harmful to political health

 


Upgrade Jharkhand News. बचपन से ही सुना था, कि सहभोज से मेल बढ़ता है। गरीब अमीर का भेद मिटता है। सहभोज में अनेक प्रकार के व्यंजनों का स्वाद चखने को मिलता है। संग बैठ कर भोजन करने से स्वाद द्विगुणित हो जाता है। लगता है कि सहभोज सामाजिक समरसता तक अधिक सीमित है राजनीतिक क्षेत्र में सहभोज किसी की नींद हराम करने का कारण भी बन सकता है। सहभोज चर्चा को आगे बढ़ाएँ, तो सहभोज की वर्तमान स्थिति चिंतनीय है, विशेषकर यदि आप किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हैं, तो आपके लिए सहभोज आयोजन में सावधानी ही बचाव है। अपने घर में मित्रों को आमंत्रित करने या उनके साथ सहभोज करने के लिए कुछ निश्चित नियमों का अनुपालन करने में ही आपकी भलाई है, अन्यथा आपके जीवन भर के समर्पित आचरण पर प्रश्न खड़ा हो सकता है। आपको राजा के कोप का भाजन बनना पड़ सकता है। यह मैं नही कहता अखबारों की सुर्खियां कहती हैं। ई मीडिया रिपोर्ट कहती हैं। 


बरसों से किसी भी प्रकार के पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक, सार्वजनिक आयोजन के लिए प्रस्तावना अपेक्षित होती है, जिसमें पहले किसी आयोजन की कल्पना की जाती है, फिर उसके आयोजन हेतु विचार किया जाता है, फिर आयोजन के औचित्य व उपलक्ष्य को स्पष्ट किया जाता है। उसके बाद वरिष्ठ सलाहकारों के साथ मीटिंग की जाती है। भाई बंधुओं के अनुभवों से आयोजन को भव्य बनाने हेतु मंथन किया जाता है। इस मंथन में ऐसे लोग शामिल रहते हैं, जो आयोजन कर्ता के मन की बात सुन सकें, उस बात का समर्थन कर सकें तथा आयोजक को आयोजन करने की ज़िद्द पर टिके रहने के लिए विवश कर सकें। इसके बाद बनाई जाती है आयोजन को भव्य बनाने के लिए प्रभावशाली समझे जाने वाले मेहमानों को आमंत्रित करने की सूची। यह व्यक्तिगत मामला है और व्यक्ति से जुड़ा है। 


यदि मामला व्यक्तिगत न हो, किसी राजनीतिक दल के व्यक्ति से जुड़ा हो। यदि कोई राजनीतिक व्यक्ति, कोई जन प्रतिनिधि, मुहल्ले का सभासद, किसी क्षेत्र का विधायक, सांसद अपनी पसंद के मित्रों, जन प्रतिनिधियों के साथ बैठकर गपशप करना चाहे, अपने मन के अतिथियों को अपने घर बुलाकर चाय पिलाना चाहे, तब क्या वह ऐसा अपनी इच्छा अनुसार, स्थिर बुद्धि व स्वस्थ इंद्रियों की दशा में कर सकता है? यह सवाल कुछ अलग है, व्यक्ति की आजादी और उसके मौलिक अधिकारों से जुड़ा है। ऐसा ही मामला संज्ञान में आया है, एक मित्र महोदय ने अपने कुछ साथियों को अपने घर पर चाय पर बुलाया, जिन्हें बुलाया, वे खुशी खुशी आए, खाया पीया, हँसी ठहाके लगाए। जिसे नहीं बुलाया, उसके माथे पर शिकन उभर आयी। आखिर ऐसा क्यों हुआ ? मेरी मर्जी के बिना किसी ने किसी को क्यों बुलाया ? किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को  पारिवारिक समारोह में अपने जातिगत मित्रों को बुलाने का अधिकार कैसे प्राप्त हुआ ? क्या उसके लिए पार्टी हाई कमान से आज्ञा ली। यदि जन प्रतिनिधि किसी से जुड़ा है, तो उसे स्वयं को स्वतंत्र मानकर कोई स्वतंत्र आयोजन करने का अधिकार मिल सकता है ? 


यही सवाल गंभीर बन गया, कि किसी राजनीतिक दल से जुड़े होने पर वह व्यक्ति भले ही समृद्धि के चाहे जितने पायदान ऊपर चढ़ जाए, पर रहेगा बंधुआ ही। उसे पार्टी हाईकमान फटकार सकता है, दुत्कार सकता है, उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की धमकी दे सकता है। उसे नसीहत दे सकता है, कि मिलजुल कर बैठने के लिए एकता की शक्ति का प्रदर्शन न किया जाए। वास्तव में ऐसी बातें सोचने के लिए विवश करती ही हैं, कि व्यक्ति बड़ा या व्यक्ति से बड़ा हाईकमान ? क्या विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा खेली जा रही सत्ता की शतरंज में जन प्रतिनिधि किसी राजा का गुलाम या प्यादा भर है, कि जब चाहा, तब उसे बुलाया, डाँटा, फटकारा, नसीहत दी और उसकी आड़ में अपने बंधुआ सेवकों में भी खौफ रोप दिया, कि बिना हाई कमान को सूचना दिए यदि किसी को अपने घर पर चाय पर बुलाया, तो यह सम्बंधित जन प्रतिनिधि के राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। सुधाकर आशावादी



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