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Bhopal वंदेमातरम्:मातृभूमि के प्रति समर्पण और स्वतंत्रता का आदर्श मंत्र Vande Mataram: The ideal mantra of devotion to the motherland and freedom

 


Upgrade Jharkhand News. वंदेमातरम् गीत पर लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि 'वंदे मातरम्' गीत की गूंज ने न सिर्फ अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी बल्कि पूरे भारत में उत्साह का ऐसा माहौल तैयार किया था जो न सिर्फ स्वतंत्रता का मंत्र बना बल्कि आजाद भारत के लिए भी विजन बनकर सामने आया। यह गीत आजादी का उद्‌गार बन गया था और हर देशवासी इस गीत से प्रेरित होकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ रहा था। इस गीत से देश में बने नये माहौल को देखकर अंग्रेज बौखला गये थे इसलिए उन्होंने इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया और इसे गाने को अपराध मानकर लोगों पर जुल्म ढहाने शुरू कर दिए थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि 'वंदे मातरम्' पर चर्चा में कोई पक्ष और प्रतिपक्ष नहीं है क्योंकि इसी गीत से मिली प्रेरणा के कारण हम सब यहां बैठे हैं और यह हम सबके लिए पावन पर्व है।



वंदे मातरम को 1950 में भारत की संविधान सभा द्वारा भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया गया। वंदे मातरम की  रचना शुरू में स्वतंत्र रूप से की गई थी और बाद में इसे बंकिम चंद्र चटर्जी के 1882 में प्रकाशित उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया गया। इसे पहली बार रवींद्रनाथ टैगोर ने 1896 में कोलकाता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। एक राजनीतिक नारे के रूप में वंदे मातरम का पहली बार प्रयोग 7 अगस्त 1905 को हुआ था। इस वर्ष, 7 नवंबर 2025 को भारत के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम की 150 वीं वर्षगांठ थी, जिसका अनुवाद मां, मैं आपको नमन करता हूं, है। सदन में इस पर चर्चा हुई। जिस पर सरकार एवं विपक्षियों ने अपनी अपनी राय रखी। वंदेमातरम ने स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्र निर्माताओं की अनगिनत पीढ़ियों को प्रेरित किया है, जो भारत की राष्ट्रीय पहचान और सामूहिक भावना के स्थायी प्रतीक के रूप में खड़ा है। बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित, वंदे मातरम पहली बार साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में 7 नवंबर 1875 को प्रकाशित हुआ था। बाद में, बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपने अमर उपन्यास आनंदमठ में भजन को शामिल किया, जो 1882 में प्रकाशित हुआ था। इसे रवींद्रनाथ टैगोर ने संगीतबद्ध किया था। यह राष्ट्र की सभ्यता, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना का एक अभिन्न अंग बन गया है। इस मील के पत्थर को मनाने का अवसर एकता, बलिदान और भक्ति के कालातीत संदेश की पुष्टि करने का अवसर प्रदान करता है। राज्यसभा बुलेटिन में वंदे मातरम को भी जय हिंद और दूसरे शब्दों के साथ शामिल किया गया है। 



इस सब के बीच ममता बनर्जी का भी इस मुद्दे पर मुखर हो जाना, वंदे मातरम के बंगाल कनेक्शन की तरफ खास इशारे कर रहा है। संसद में राष्ट्रगीत वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर चर्चा हुई। पक्ष और विपक्ष दोनों ने इस विषय पर अपनी राय रखी। वंदे मातरम् पर यह बहस केवल एक रस्म नहीं है बल्कि यह ऐसे समय पर हो रही है जब इस गीत को लेकर राजनीति गरम है। नवंबर महीने में इस गीत के 150 साल पूरे होने पर पीएम मोदी ने कहा था कि कांग्रेस ने 1937 के अधिवेशन में राष्ट्रगीत वंदे मातरम् के कुछ जरूरी हिस्से हटा दिए। कांग्रेस का यह कदम विभाजन के बीज बोने जैसा था। पीएम मोदी का आरोप था कि राष्ट्रगीत को टुकड़ों में बांटकर इसकी मूल भावना कमजोर कर दी गई है। सबसे पहले वंदे मातरम् की रचना की बात करें तो बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस राष्ट्रगीत की रचना की थी। इसे पहली बार सात नवंबर 1875 को साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में प्रकाशित किया गया था। उस दिन से लेकर आज तक यह गीत करोड़ों देशवासियों के हृदय में देशभक्ति को अलख जगा रहा है। मातृभूमि की आराधना के प्रतीक इस गीत को सुनते ही ब्रिटिश अफसरों के कान खड़े हो जाते। अंग्रेजों द्वारा वंदे मातरम् गीत को गाने या छापने पर भी बैन लगा दिया गया था। आगे चलकर यह छह छंदों वाला गीत मूल रूप से बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंदमठ का हिस्सा बना जो 1882 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में सन्यासी विद्रोह की कहानी के माध्यम से बंकिम चंद्र ने भारत को मां दुर्गा के रूप में चित्रित किया इसमें उन्हें सुजलाम्, सुफलाम्, मलयजशीतलाम्...कहा गया। यह गीत गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत को समृद्धि और शक्ति का सपना दिखाता था। 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इस गीत को एक नई पहचान मिली। रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे संगीतमय रूप दिया और इसे कलकत्ता के अधिवेशन में गाया।



संगीतमय प्रस्तुति ने इस गीत को अमर कर दिया। यह गीत जनमानस में तेजी से लोकप्रिय होने लगा। हर तरफ वंदे मातरम् की गूंज सुनाई देने लगी। तब ब्रिटिश राज ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ खतरनाक मान लिया। उसके बाद 1905 के बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी आंदोलन में यह नारा बन गया। कालांतर में इस गीत को लेकर मुसलमानों की तरफ से आपत्ति जताई जाने लगी। 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् गायन के समय तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली जौहर मंच से उठकर चले गए थे। इस गीत को लेकर मुस्लिम पक्ष की आपत्ति है कि वंदे मातरम् के जरिए उन पर हिंदू देवी देवताओं की पूजा का दबाव डाला जा रहा है। वंदे मातरम् में मंदिर और दुर्गा शब्दों का इस्तेमाल हुआ है। कांग्रेस कार्यसमिति ने 1937 में तय किया कि राष्ट्रीय आयोजनों में इस गीत के केवल पहले दो पद ही गाए जाएंगे। यही कारण रहा कि 1937 में पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् के केवल दो छंद ही गाए गए। उस समय से इसी नियम का पालन किया जाने लगा। आजादी के बाद इसे नियम बनाते हुए 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत घोषित कर दिया। वंदे मातरम् को आज भी आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय गीत का दर्जा मिला हुआ है। लेकिन सरकारी समारोहों में इसके पहले के दो छंदों का ही गायन होता है। हालांकि बाल  गंगाधर तिलक ने इसे राष्ट्रीय प्रार्थना और अरविंदो घोष ने मंत्र कहते हुए इसे राष्ट्रगान का दर्जा देने की की मांग की थी। यह गीत राष्ट्रगान की जगह तो नहीं ले सका लेकिन राष्ट्रगीत के तौर पर आज भी करोड़ों देशवासियों को प्रेरणा दे रहा है। 



वंदे मातरम आनंद मठ के संतानों द्वारा गाया जाने वाला गीत है। यह देशभक्ति के धर्म के प्रतीक के रूप में खड़ा था, जो आनंद मठ का केंद्रीय विषय था। अपने मंदिर में, उन्होंने मातृभूमि का प्रतिनिधित्व करने वाली मां की तीन मूर्तियां स्थापित कीं। वंदे मातरम के रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-1894) 19 वीं सदी के बंगाल के सबसे प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। उन्नीसवीं सदी के दौरान बंगाल के बौद्धिक और साहित्यिक इतिहास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। एक प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवि और निबंधकार के रूप में, उनके योगदान ने आधुनिक बंगाली गद्य के विकास और उभरते भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। आनंदमठ (1882), दुर्गेशनंदिनी (1865), कपालकुंडला (1866) और देवी चौधरानी (1884) सहित उनकी उल्लेखनीय रचनाएं, आत्म-पहचान के लिए प्रयासरत एक उपनिवेशित समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक चिंताओं को दर्शाती हैं। वंदे मातरम की रचना को राष्ट्रवादी चिंतन में एक मील का पत्थर माना जाता है, जो मातृभूमि के प्रति समर्पण और आध्यात्मिक आदर्शवाद के संश्लेषण का प्रतीक है। वंदे मातरम में उन्होंने देश को मातृभूमि के दर्शन कराए, जिसे माता का रूप दिया गया। अक्टूबर 1905 में, मातृभूमि को एक मिशन और धार्मिक जुनून के रूप में बढ़ावा देने के लिए उत्तरी कोलकाता में एक वंदे मातरम् संप्रदाय की स्थापना की गई थी। हर रविवार को, समाज के सदस्य प्रभात फेरी  निकालते थे, वंदे मातरम् गाते थे और मातृभूमि के समर्थन में लोगों से स्वैच्छिक योगदान स्वीकार करते थे। रवींद्रनाथ टैगोर भी कभी-कभी कभी संप्रदाय की प्रभात फेरी में शामिल होते थे। 20 मई 1906 को, बारीसाल (अब बांग्लादेश में) में, एक अभूतपूर्व वंदे मातरम जुलूस निकला। इसमें दस हजार से अधिक प्रतिभागियों, हिंदू और मुस्लिम दोनों ने भाग लिया था।



इतिहास गवाह है कि जिन्ना को खुश करने के   लिए पं. जवाहर लाल नेहरू ने उनकी आपत्तियों के उत्तर में लिखा था कि कांग्रेस ने वंदे मातरम् को कभी राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार नहीं किया, जबकि सत्य यह है कि आनंदमठ के संन्यासी भवानन्द की तरह आज भी देशप्रेमियों के रगों में वंदे मातरम् गीत उबाल ला देता है और मां भूमि के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। जिस देश के पीछे न जाने कितनी मां की गोद सूनी हो गई, कितनी महिलाओं की मांग के सिंदूर धुल गए, बंग-भंग आन्दोलन के समय जो गीत धरती से आकाश तक गूंज उठा, बंगाल की खाड़ी से जिसकी लहरें इंगलिश चैनल पार कर ब्रिटिश पार्लियामेंट तक पहुंच गईं, जिस गीत के कारण बंगाल का बंटवारा नहीं हो सका, उसी गीत को अल्पसंख्यकों की तुष्टि के लिए खंडित किया गया। यहां तक कि उन्हें प्रसन्न करने के लिए मातृभूमि को खंडित किया गया। उसके बाद भी जनमानस को उद्वेलित करने वाले इस गीत को प्रमुख राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता है। आज संसद में वंदेमातरम को लेकर जो खींचतान हो रही है वह भी वंदेमातरम की गरिमा से खिलवाड़ ही है। मनोज कुमार अग्रवाल



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