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Jamshedpur कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला : समुद्र की लहरों में अमर हुई वीरता की गाथा Captain Mahendra Nath Mulla: A saga of bravery immortalised in the waves of the sea

 


  • महावीर चक्र से सम्मानित देशभक्त जिसकी शहादत इतिहास का स्वर्ण अध्याय बनी

Upgrade Jharkhand News. 1971 के भारत-पाक युद्ध में भारतीय नौसेना के रणबांकुरों ने जिस शौर्य और अदम्य साहस का प्रदर्शन किया, उसके इतिहास में एक नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है—कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला। आईएनएस खुकरी के इस बहादुर कमांडिंग ऑफिसर ने अपने कर्तव्य, नेतृत्व और बलिदान की जो मिसाल पेश की, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत है। यह मात्र एक कहानी नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति, नेतृत्व क्षमता और देश के प्रति सर्वोच्च निष्ठा का जीवंत प्रमाण है।


प्रारंभिक जीवन और नौसेना में प्रवेश-कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला का जन्म 15 मई 1926 को गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। बचपन से ही उनमें अनुशासन, दृढ़ संकल्प और देशसेवा की भावना जागृत थी। आगे की शिक्षा पूरी करने के पश्चात वे भारतीय नौसेना में शामिल हुए। प्रशिक्षण के दौरान ही उन्होंने असाधारण नेतृत्व क्षमता और तकनीकी समझ का परिचय दिया, जिसके चलते उन्हें उच्च जिम्मेदारियों वाली नियुक्तियाँ मिलती रहीं। अपने शांत, सौम्य और व्यवहारकुशल व्यक्तित्व के कारण वे नौसैनिकों में अत्यंत लोकप्रिय थे।


1971 का युद्ध और आई.एन.एस. खुकरी-दिसम्बर 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान भारतीय नौसेना की पश्चिमी कमान को अरब सागर में शत्रु की गतिविधियों पर निगरानी का आदेश मिला। इसी अभियान के अंतर्गत आई.एन.एस. खुकरी को मोर्चे पर लगाया गया। जहाज पर कुल 176 जवान और अधिकारी तैनात थे जिनका नेतृत्व कर रहे थे कैप्टन मुल्ला। यह समय अत्यंत संवेदनशील था क्योंकि पाकिस्तान ने उच्च तकनीक वाली पनडुब्बी हैंगोर को युद्ध क्षेत्र में भेजा था, जो भारतीय युद्धपोतों के लिए सीधी चुनौती थी।



14 दिसम्बर 1971 की रात लगभग 8 बजकर 50 मिनट पर पाकिस्तानी पनडुब्बी ने खुकरी पर अचानक टॉरपीडो हमला किया। पहला प्रहार इतना भीषण था कि जहाज का एक बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया। कुछ ही पलों में दूसरा टॉरपीडो जहाज के मध्य भाग से टकराया, जिससे खुकरी तेजी से डूबने लगा। युद्धपोत पर अंधेरा, अफरातफरी और चीख-पुकार के बीच भी कैप्टन मुल्ला अदम्य साहस और शांति के साथ अपने सैनिकों का मार्गदर्शन करते रहे। रियर एडमिरल बने तसनीम अहमद के अनुसार- "पूरा का पूरा भारतीय फ़्लीट हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा और हम हाथ मलते रह गए, क्योंकि हमारे पास हमला करने के आदेश नहीं थे; क्योंकि युद्ध औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था। नियंत्रण कक्ष में कई लोगों ने टॉरपीडो फ़ायर करने के लिए बहुत ज़ोर डाला, लेकिन हमने उनकी बात सुनी नहीं। हमला करना युद्ध शुरू करने जैसा होता। मैं उस समय मात्र लेफ़्टिनेंट कमांडर था। मैं अपनी तरफ़ से तो लड़ाई शुरू नहीं कर सकता था।"


बलिदान का वो क्षण जिसने इतिहास रचा-जहाज पानी में डूब रहा था, परंतु कप्तान ने घबराने के बजाय अपने सैनिकों को पहले सुरक्षित बाहर निकलने का आदेश दिया। लाइफबोट उपलब्ध होने के बावजूद उन्होंने स्वयं उसमें बैठने से इंकार कर दिया। वे अपने अधीनस्थों को हौसला देते हुए कहते रहे—"ऑल द बेस्ट... गो अहेड!"


मुल्ला द्वारा जहाज़ छोड़ने से इंकार-मनु शर्मा और लेफ़्टिनेंट कुंदनमल आईएनएस खुखरी के ब्रिज पर महेन्द्रनाथ मुल्ला के साथ थे। महेन्द्रनाथ मुल्ला ने उनको ब्रिज से नीचे धक्का दिया। उन्होंने उनको भी साथ लाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। जब मनु शर्मा ने समुद्र में छलांग लगाई तो पूरे पानी में आग लगी हुई थी और उन्हें सुरक्षित बचने के लिए आग के नीचे से तैरना पड़ा। थोड़ी दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री को कोण बनाते हुए लगभग सीधा हो गया है। पूरे पोत मे आग लगी हुई है और महेन्द्रनाथ मुल्ला अपनी सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए थे और उनके हाथ में अब भी जलती हुई सिगरेट थी।



जहाज के अंतिम क्षणों में वे ब्रिज पर खड़े रहे, सिगार होंठों में दबाए, हाथ में पाइप लिए, समुद्र की गर्जनाओं से बेखौफ़। यह दृश्य वीरता की पराकाष्ठा था—एक कप्तान अपने जहाज के साथ ही जल समाधि लेने के लिए तत्पर। कुछ मिनटों में खुकरी अरब सागर की लहरों में समा गया और 176 में से 194 बहादुर योद्धाओं ने शहादत पाई। कैप्टन मुल्ला भी उसी समुद्र की गहराइयों में अमर हो गए।यह घटना मात्र एक सैन्य क्षति नहीं थी, बल्कि भारत के इतिहास में बलिदान और नेतृत्व की सर्वोच्च मिसाल बनी। उनकी वीरता, सूझबूझ और कर्तव्यनिष्ठा के लिए उन्हें मरणोपरांत देश का दूसरा सर्वोच्च सैन्य सम्मान “महा वीर चक्र” प्रदान किया गया।


क्यों अद्वितीय है कैप्टन मुल्ला की गाथा

आज भी सैन्य अकादमियों में यह प्रसंग नेतृत्व प्रशिक्षण की आदर्श कथा के रूप में पढ़ाया जाता है। कारण स्पष्ट है—

कर्तव्य को जीवन से ऊपर रखने की मिसाल है lसंकट की घड़ी में धैर्य और नेतृत्व है lअपने जवानों को पहले सुरक्षित भेजना – सही कमांडर की पहचान है l

शहादत के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना है lउनका यह अदम्य साहस केवल नौसेना ही नहीं, पूरे भारत के लिए गौरव का विषय है।

समुद्र तट पर बनी स्मृतियाँ और राष्ट्र का सम्मान है l



गुजरात के दीव के निकट आज आई.एन.एस. खुकरी मेमोरियल उनकी शहादत की याद दिलाता है। समुद्र किनारे स्थापित यह स्मारक उन क्षणों की याद दिलाता है जब एक कप्तान ने मातृभूमि के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी। हर वर्ष नौसेना दिवस (4 दिसम्बर) और युद्ध स्मरण अवसरों पर देश उनके बलिदान को नमन करता है।उनके नाम पर कई विद्यालय, सड़कों और पार्कों का नामकरण हुआ है। नौसेना के जवान उन्हें "मैन ऑफ स्टील" कहकर याद करते हैं—क्योंकि उन्होंने डूबते जहाज में भी साहस का ध्वज ऊंचा रखा।


समापन-कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक भावना हैं। वे उस भारतीय सैनिक की छवि प्रस्तुत करते हैं जो राष्ट्र के सम्मान को सर्वोपरि मानता है। उनकी वीरता हमें याद दिलाती है कि असली नेतृत्व वही है जो कठिन परिस्थिति में सबसे आगे खड़ा हो, जो सेवक होकर भी सेनापति बने और सेनापति होकर भी सबसे पहले अपने सैनिकों को बचाए। 14 दिसम्बर 1971 की रात का वह दृश्य आज भी इतिहास के पन्नों में जीवंत है—एक कप्तान अपने जहाज के साथ डूबता हुआ, पर सिर ऊँचा, मन में गर्व और होंठों पर विदाई के शब्द। ऐसी शहादत शब्दों में नहीं, हृदय में संजोई जाती है।



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