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चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, कैसे खत्म होगा अंधविश्वास , Lack of medical facilities, how will superstition end?

 


गुवा। आखिर कैसे खत्म होगी सारंडा व कोल्हान जंगल के सुदूरवर्ती गांवों से अंधविश्वास व डायन प्रथा की जडे़ं! इन दोनों वजहों से अब तक सैकड़ों ग्रामीणों की मौत हो चुकी है या फिर हत्यायें कर दी गई। सरकार व विभिन्न संगठनों द्वारा चलाये जा रहे जागरूकता कार्यक्रमों की वजह से अंधविश्वास व डायन प्रथा से जुड़ी घटनाओं में काफी कमी आयी है, लेकिन यह समाप्त नहीं हो रही है। सारंडा व कोल्हान जंगल के कई गांवों में आज भी यह प्रथा कायम है।

इसका मुख्य वजह उक्त जंगल क्षेत्र के सुदूरवर्ती गांवों में चिकित्सा की कोई सुविधा नहीं होना है। बीमार ग्रामीण को जब समय पर चिकित्सा सुविधा नहीं मिले तो आखिर वह क्या करे ! ऐसा सवाल सारंडा के शिक्षित गांव जामकुंडिया निवासी पूर्व उप मुखिया देवेन्द्र देवगम ने कहा। पिछले दिनों इसी गांव की एक युवती को सांप काट दिया। अस्पताल व एम्बुलेंस की सुविधा नहीं होने की वजह से रातभर युवती घर पर रही, लोग झाड़-फूक कर बचाने की कोशिश करते रहे। 

हालांकि विषैला सांप नहीं काटने की वजह से युवती की जान बच गई। देवेन्द्र देवगम का भाई बीमार हुआ और समय पर इलाज नहीं मिलने से उसकी मौत हो गई। ऐसे सैकड़ों-हजारों मामलें सारंडा व कोल्हान के गांवों में भरे पडे़ हैं। पुलिस व मिडिया अंधविश्वास का सहारा नहीं लेने का आग्रह किया, लेकिन देवेन्द्र व कुछ ग्रामीणों ने कहा कि इसके लिये जिम्मेदार कौन है। देवेन्द्र के अलावे सारंडा के थोलकोबाद, बालिबा, कुदलीबाद, कोलायबुरू, आदि के अलावे कोल्हान के  कुलसुता, बुंडु, अगरवाँ, कदालसोकवा, हाकाहाटा, राजाबासा, पोखरीबुरू, बाँकी, बियुबेडा़, रूटागुटु, मटईबुरु आदि गांवों के ग्रामीणों ने बताया कि उनके क्षेत्र में इलाज की कोई सुविधा नहीं है। 

गांव से अस्पतालों की दूरी 40-60 किलोमीटर है। उन सरकारी अस्पतालों में जाने हेतु आवागमन, प्राईवेट वाहन व एम्बुलेंस की कोई सुविधा नहीं है। रात के समय कोई बीमार पड़ जाये या सांप काट ले तो झाड़-फूंक के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तो दिन हो या रात 108 एम्बुलेंस आती नहीं है। उक्त गांव आज भी संचार सुविधाओं से लैश नहीं हो पाया है, ताकि किसी के बीमार होने पर फोन कर एम्बुलेंस या चिकित्सा सुविधा हेतु गुहार लगाया जा सके। 

छोटानागरा स्थित अस्पताल आयुष चिकित्सक के भरोसे है जो सप्ताह में 2-3 दिन आते हैं। कुछ ऐसे शिक्षित, सम्पन्न बुद्धिजीवी भी हैं जो आज भी अंधविश्वास का सहारा लेते हैं। इनसे प्रेरित होकर अशिक्षित भी उनका अनुशरण करने लग जाते हैं। कुछ पुजारी भी चाहते हैं कि यह व्यवस्था कायम रहे जिससे उनकी दुकानदारी चलती रहे। उल्लेखनीय है कि सुदूरवर्ती गांवों में सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा की व्यवस्था नहीं है। जितनी पढ़ाई होती है उसमें बच्चों को अंधविश्वास मुक्त गाँव बनाने सम्बंधित पाठ नहीं पढ़ाई जाती। अंधविश्वास से मुक्ति पाना इतना कठिन नहीं है जितना की इसे समझा जाता है।

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