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Bhopal. पुस्तक चर्चा - "शिव और शिवालय": एक दार्शनिक एवं सांस्कृतिक अन्वेषण, Book Discussion - "Shiva and Shivalaya": A philosophical and cultural exploration


Upgrade Jharkhand News.  लेखिका डॉ.सुलभा कोरे की पुस्तक "शिव और शिवालय" भारतीय संस्कृति, दर्शन, और इतिहास के प्रतीक शिव के बहुआयामी स्वरूप का जन उपयोगी विश्लेषण है।  शिव के निराकार से साकार स्वरूप , शिव मंदिरों के वास्तुशिल्प, और समकालीन संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता को समझने का एक सुव्यवस्थित प्रयास है।  भारतीय समाज,  सृष्टि की उत्पत्ति से आधुनिक समय तक की गहन शिव संदर्भों की व्याख्या सुबोध भाषा में पाठक को शिवत्व को सिलसिले से समझाती है। पुस्तक के प्रथम अध्याय में डॉ. कोरे शिव के अस्तित्व को वैदिक संदर्भों और आधुनिक विज्ञान के समानांतर रखकर विश्लेषित करती हैं। वे बताती हैं कि वेदों में सृष्टि के उद्भव को "बिंदु और नाद" से जोड़ा गया है, जो आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान के "बिग बैंग" सिद्धांत से मेल खाता है। इस संदर्भ में शिव को "ब्रह्म" के रूप में चित्रित किया गया है—एक ऐसी अविनाशी ऊर्जा जो सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, और संहार का केंद्र है। गीता के उद्धरणों के साथ लेखिका यह स्पष्ट करती हैं कि शिव "अक्षर" (अविनाशी) और "अव्यक्त" (अप्रकट) के समन्वय हैं, जो समय के साथ अपने साकार रूपों में प्रकट होते हैं।



शिव के निराकार स्वरूप को समझाने के लिए पुस्तक शिवलिंग की प्रतीकात्मकता और आध्यात्मिक व्यंजना पर प्रकाश डालती है। यह आकृति ब्रह्मांडीय ऊर्जा और सृजन का प्रतीक है, जिसकी पूजा का आधार वैदिक ऋषियों द्वारा रखा गया। डॉ. कोरे इस बात पर जोर देती हैं कि शिवलिंग मात्र एक पाषाण नहीं, बल्कि "सत्य, शिव, और सुंदर" के त्रिआयामी दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है।भारतीय जन सामान्य में गांव टोले में जहां भी लोगों ने निवास किया,किसी वृक्ष के नीचे सहजता से किसी पत्थर में शिव की कल्पना की संस्कृति ने सदियों आक्रांताओं के बीच भी भारतीयता का मूल तत्व हममें बनाए रखा । आदिवासी जनजातियों ने शिव को बड़ादेव मान कर पूजा। क्षेत्रीय दूरियों से पूजन पद्धति में किंचित बदलाव भले हुए हों पर मूल अवधारणा वही है। शैव दर्शन और मंदिरों का इतिहास , वेदों से लेकर पुराणों तक सम्पूर्ण विवेचन और शैव दर्शन के विकास को वेदों, पुराणों, और आगम ग्रंथों के माध्यम से द्वितीय अध्याय में लेखिका ने समझाया है। लेखिका के अनुसार, ऋग्वेद में "रुद्र" के रूप में शिव की आराधना शैवमत का मूल है, जबकि अथर्ववेद में उन्हें "पशुपति" कहा गया। मत्स्य पुराण और वामन पुराण में लिंग पूजा और शैव संप्रदायों (जैसे पाशुपत, कापालिक) का विस्तृत वर्णन मिलता है। डॉ. कोरे इस बात को रेखांकित करती हैं कि शैव धर्म ने वैदिक परंपराओं को चुनौती देते हुए भी भारतीय समाज में गहरी पैठ बनाई।



मंदिर निर्माण की यात्रा पर तृतीय अध्याय में एलोरा के कैलाश मंदिर, तंजौर के राजराजेश्वर मंदिर, और हड़प्पा सभ्यता के पुरातात्विक अवशेषों का उल्लेख है। ये मंदिर न केवल धार्मिक केंद्र थे, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण (जैसे खगोलीय संरेखण) और कलात्मक उत्कृष्टता के प्रतीक भी हैं। बारह ज्योतिर्लिंग , मिथक, इतिहास, और आस्था , ज्योतिर्लिंगों के निर्माण की पौराणिक कथा का सविस्तार वर्णन किया गया है। शिव और शक्ति के बीच हुए संघर्ष के फलस्वरूप विष्णु द्वारा शिवलिंग के बारह टुकड़े करके ब्रह्मांड में स्थापित किए जाने की कहानी, इन ज्योतिर्लिंगों के प्रतीकात्मक आध्यात्मिक महत्व को उजागर करती है। डॉ. कोरे इन्हें "सृजन और एकता" का प्रतीक मानती हैं, जो भारत के विभिन्न कोनों में फैले हैं और सांस्कृतिक एकता को बनाए रखते हैं। वे रेखांकित करती हैं कि सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का ऐतिहासिक विध्वंस और पुनर्निर्माण भारत की सांस्कृतिक सहनशीलता और पुनरुत्थान की कहानी कहता है। इसी प्रकार, केदारनाथ की भौगोलिक चुनौतियों के बावजूद उसकी आध्यात्मिक प्रासंगिकता आधुनिक युग में भी अक्षुण्ण है।


 समय के साथ शिवालयों का बदलता स्वरूप-एक पूरे अध्याय में वर्णित है । लेखिका शिव मंदिरों के वास्तुशिल्प और सामाजिक भूमिका में आए परिवर्तनों का विश्लेषण करती हैं। वे बताती हैं कि प्राचीन काल में मंदिर "सामुदायिक जीवन के केंद्र" थे—जहाँ शिक्षा, कला, और राजनीतिक चर्चाएँ होती थीं। आधुनिक युग में ये "पर्यटन स्थल" बन रहे हैं, परंतु इनकी वैज्ञानिकता (जैसे सूर्य की किरणों का शिवलिंग पर पड़ने वाला प्रभाव) सदा से शोध का विषय है। पारद शिवलिंग , स्फटिक शिवलिंग , नर्मदा  के हर कंकर को शिवलिंग की मान्यता भारतीय मानस में शिव के जीवंत साक्ष्य हैं। मानसरोवर से रामेश्वरम तक और सोमनाथ से बैद्यनाथ धाम तक शिव भारत में व्याप्त हैं। लेखिका का मानना है कि शिव मंदिरों की संरचना में छिपे वास्तु रहस्य (जैसे गर्भगृह की ध्वनि-अनुकूलता) और प्रतीकात्मकता (जैसे शिखर का ब्रह्मांडीय अक्ष से संबंध) को शोध दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। वे आधुनिक वास्तुकारों से आह्वान करती हैं कि वे इन प्राचीन तकनीकों को आधुनिक भवन निर्माण में समाहित करें। शिव और शक्ति द्वैत से अद्वैत की यात्रा का दर्शन है। शिव और शक्ति के अविभाज्य संबंध पर विश्लेषण केंद्रित लेख किताब में समाहित है। डॉ. कोरे शाक्त परंपरा के संदर्भ में बताती हैं कि शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना शिव अधूरे हैं—यही "अर्धनारीश्वर" की अवधारणा का मूल है। वेदों में "वागर्थाविव सम्पृक्तौ" (वाणी और अर्थ की एकता) की तरह, शिव-शक्ति का युग्म सृष्टि के संचालन का आधार है।



इस संदर्भ में पुस्तक संतोषी माता और मनसा देवी जैसे शक्ति स्वरूपों का उल्लेख करती है, जो शैव परंपरा में महत्वपूर्ण हैं। साथ ही, यह तांत्रिक मतों और भक्ति आंदोलनों के माध्यम से शिव-शक्ति के संयोग की व्याख्या भी है।शिव—एक अद्वितीय सांस्कृतिक संश्लेषण मूल्य हैं। डॉ. सुलभा कोरे की यह पुस्तक शिव को केवल एक देवता नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के विकास का प्रतीक आधार मानती है। शिवालयों की यात्रा मनुष्य की आंतरिक खोज की आध्यात्मिक खोज की यात्रा है, जो प्राचीन काल से आज तक हमारी संस्कृति में निरंतर है। पुस्तक का यह संदेश विशेष रूप से प्रासंगिक है कि "शिव का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है—जहाँ विज्ञान, कला, और आस्था का समन्वय हो।"इस प्रकार, "शिव और शिवालय" न केवल धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि भारतीय दर्शन और संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज़ है, जो पाठकों को शिव के माध्यम से स्वयं की खोज की प्रेरणा देता है। विवेक रंजन श्रीवास्तव



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