Upgrade Jharkhand News. बात उन दिनों की है जब बाज़ार में एक पैसा, दो पैसे , तीन पैसे, पाँच पैसे, दस पैसे , बीस पैसे, पच्चीस पैसे और पचास पैसे के सिक्के चला करते थे। पच्चीस पैसे को चवन्नी तथा पचास पैसे को अठन्नी कहते थे। चवन्नी और अठन्नी के पीछे का गणित भी सब बच्चे बखूबी समझते थे, उस समय गणित में रुपये और पैसे के सवाल सिखाये जाते थे। एक रूपये को सोलह आने में बांटा जाता था , एक आने का मतलब था छह पैसे जिस हिसाब से सोलह आने में छियानवे पैसे ही आते थे, मगर रुपया पूरा करना था तो चार आने का मतलब पच्चीस पैसे और आठ आने का मतलब पचास पैसे हुआ करता था। उस समय एक पैसे की बड़ी कीमत थी , एक पैसे में एक आइसक्रीम आ जाती थी, दुकानों पर खट्टी इमली बिका करती थी , दुकानदार दो पैसे के सिक्के के बदले चार इमली और तीन पैसे के सिक्के के बदले छह इमली बेचा करते थे, पांच पैसे में अनेक अच्छी चीजें खाने के लिए मिल जाया करती थी। उस समय दस पैसे की चाय , पाँच पैसे की मटरी , पाँच पैसे का बेसन का छोटा लड्डू मिला करता था, सो बच्चे स्कूल की आधी छुट्टी होने पर पाँच पैसे के सिक्के के बदले में ही नाश्ता कर लिया करते थे । उस समय इतनी महँगाई भी नहीं थी। इतने अधिक भौतिक साधन भी नहीं थे। कारें भी बहुत कम लोगों के पास हुआ करती थी। फ्रिज और कूलर को लोग जानते भी न थे। ठंडा पानी पीने के लिए मिट्टी के घड़ों का प्रयोग किया जाता था। हाथ के नल से ठंडा पानी निकालकर घड़ों में भर दिया जाता था ,फिर दिन भर उसी पानी से प्यास बुझाई जाती थी। उस समय किसी बच्चे के हाथ में कोई सिक्का होने का मतलब था , बाज़ार में जाकर अच्छी चीज खाना।
नगर पालिका के विद्यालयों में उस समय प्राथमिक शिक्षा बड़े मनोयोग से प्रदान की जाती थी, अध्यापकगण बच्चों के प्रति बहुत ही आत्मीय भाव रखते थे तथा उन्हें अधिक से अधिक ज्ञानवर्धक बातें समझाने के लिए प्रयासरत रहते थे। प्रत्येक शनिवार को नगर पालिका के स्कूलों में बाल सभाओं का आयोजन किया जाता था, जिनमे हिंदी के कवियों के कविताओं , दोहों , मुक्तकों , रामचरितमानस की चौपाइयों की अन्त्याक्षरी हुआ करती थी। इमला बोलकर भाषा ज्ञान में बच्चों को निपुण किया जाता था तथा गिनती,पहाड़े बच्चों को कंठस्थ कराये जाते थे। उस समय बच्चे सहयोग की भावना से अधिक कार्य किया करते थे। खेल खेल में गली मोहल्लों में दूर तक निकल जाया करते थे, आधी छुट्टी उनकी मौज मस्ती के लिए हुआ करती थी । लगभग आधे घंटे की छुट्टी में वह हल्का फुल्का नाश्ता करके छुआ-छाई , ऊँच-नीच,कबड्डी जैसे खेल खेल लिया करते थे। शैतान बच्चे अपनी शैतानी हरकतें भी आधी छुट्टी में ही किया करते थे तथा शरारत करने के बाद भोले भाले बनकर अपनी कक्षा में जाकर बैठ जाया करते थे।
एक दिन यही हुआ, स्कूल की आधी छुट्टी हुई तो अनिल ने अपने साथियों को एक सिक्का दिखाया, सिक्का घिसा हुआ था ,सुरेश और पवन ने सिक्का देखते ही कहा - 'सिक्का तो देखने से चवन्नी जैसा लग रहा है,मगर सिक्के पर कोई चिन्ह नहीं है , जिससे इसे चवन्नी के नाम से खर्च किया जा सके।'अनिल ने कहा- 'यही तो समस्या है कि यह सिक्का चवन्नी जैसा है मगर चवन्नी नहीं।'सुरेश और पवन ने चवन्नी को बारी-बारी से अपने हाथ में लेकर देखा,वजन भी चवन्नी जैसा ही था ,सो दोनों ने एक सुर में कहा - 'अनिल यह चवन्नी खोटी है,इसे किसी ऐसे दुकानदार के यहाँ चलाया जा सकता है ,जो अँधा हो।'अनिल की आँखे चमक उठी, उसे ध्यान आया कि स्कूल से कुछ ही दूरी पर एक अंधे की दुकान है और वह पान बेचता है , एक पान की कीमत पांच पैसे है ,सो ऐसा करते हैं कि अंधे की दुकान से तीन मीठे पान खरीद लेते हैं उसके बाद दस पैसे बचेंगे तो तीनो मिलकर आइसक्रीम खायेंगे। इस तरह से इस खोटी चवन्नी के बदले अच्छी अच्छी चीजों का स्वाद चख लेंगे।
सुरेश और पवन के मुँह में भी पानी आ गया , उनके मुंह में जैसे पान का स्वाद घुलने लगा था। उन्होंने खोटी चवन्नी को चलाने की योजना पर अमल करना शुरू कर दिया। तीनो मित्र सीधे पान की दुकान पर पहुँचे,वहाँ वही अँधा दुकान स्वामी बैठा था। अनिल ने उसकी ओर खोटी चवन्नी बढ़ाई और बोला - 'इस चवन्नी में तीन मीठे पान दे दो और दस का सिक्का वापिस भी दो।अंधे दुकानदार ने सिक्के को हाथ में लिया तथा उस पर अपने अंगूठे को रगड़ा, फिर उसे न जाने क्या सूझी , उसने दुकान के भीतर अपने घर में किसी को आवाज लगाते हुए कहा- अरे कोई आओ और आकर मेरे हाथ की चवन्नी को देखो कहीं यह खोटी तो नहीं ?अंधा दुकानदार खोटी चवन्नी की पहचान कराने के लिए किसी और को बुलाएगा, ऐसा तो उन तीनों ने सपने में भी नहीं सोचा था , सो तीनों घबरा गए, उनके चेहरे पर पसीना झलकने लगा , उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि उन्हें किसी ने पहचान लिया तो स्कूल में शिकायत हो जाएगी , पिटाई होगी सो अलग।
जब तक घर के अन्दर से कोई आता और खोटी चवन्नी की पहचान करता , तब तक अनिल , सुरेश और पवन ने दौड़ लगा दी तथा स्कूल में पहुँच कर ही उनकी में साँस में साँस आई। स्कूल में उस समय प्रधानाध्यापक नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ा रहे थे तथा बता रहे थे कि जिस कार्य को ईमानदारी से करने के लिए मन गवाही दे , उसी कार्य को करना चाहिए। किसी भी अंधे, विकलांग और लाचार के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए ,जो उसे धोखा देने वाला हो।उन्हें लगा कि जैसे उनसे कोई अपराध हो गया हो तथा वे खोटी चवन्नी चलाकर अंधे दुकानदार को धोखा देने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें समझ नहीं आया कि कैसे पश्चाताप करें , उन्हें अपने किये हुए कार्य पर आत्मग्लानि होने लगी। अंधे दुकानदार की दुकान पर जाकर उससे क्षमा याचना करने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी , तब उन्होंने निश्चय किया कि जो हो गया सो हो गया अपनी गलती का पश्चाताप यही है कि वे भविष्य में किसी को भी धोखा देने का प्रयास नहीं करेंगे और न ही धोखा देंगे। सुधाकर आशावादी
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