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Jamshedpur प्रफुल्लचंद चाकी: मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने वाला युवा क्रांतिकारी Prafullachandra Chaki: The young revolutionary who sacrificed his life for the motherland

 


Upgrade Jharkhand News. प्रफुल्लचंद चाकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन निर्भीक क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने अत्यंत कम उम्र में ही देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। मात्र 18-19 वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया और अंततः गिरफ्तारी से बचने के लिए स्वयं को गोली मारकर शहादत प्राप्त की।


प्रारंभिक जीवन-प्रफुल्लचंद चाकी का जन्म 10 दिसंबर 1888 को बंगाल के बोगरा जिले (अब बांग्लादेश में) के बिक्रमपुर गांव में एक निर्धन परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम राजनारायण चाकी और माता का नाम स्वर्णमयी देवी था। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनका पालन-पोषन अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हुआ। आर्थिक तंगी के बावजूद प्रफुल्ल की शिक्षा में रुचि थी। उन्होंने रंगपुर के नेशनल स्कूल में पढ़ाई की। किशोरावस्था में ही उनके मन में अंग्रेजों के अत्याचारों के प्रति गहरा रोष पैदा हो गया था।


क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत-1902-03 में बंगाल विभाजन की घोषणा और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों ने युवा प्रफुल्ल को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने महसूस किया कि केवल विरोध और प्रदर्शन से अंग्रेजों को भारत से बाहर नहीं निकाला जा सकता। प्रफुल्लचंद बारीन घोष और अरविंद घोष (श्री अरबिंदो) के संपर्क में आए। उन्होंने कोलकाता में गुप्त क्रांतिकारी संगठन 'युगांतर' से जुड़कर सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया। वे भगिनी निवेदिता से भी प्रेरित थे, जो भारतीय राष्ट्रवाद की समर्थक थीं।


खुदीराम बोस के साथ साझेदारी-प्रफुल्लचंद चाकी की सबसे महत्वपूर्ण साझेदारी खुदीराम बोस के साथ बनी। दोनों युवा क्रांतिकारी एक जैसे विचार रखते थे और अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उस समय किंग्सफोर्ड नामक एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट मुजफ्फरपुर में तैनात था, जो अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात था। उसने कोलकाता में रहते हुए स्वतंत्रता सेनानियों पर बर्बर अत्याचार किए थे और युवाओं को कोड़ों से पिटवाया था। क्रांतिकारियों ने उसे सबक सिखाने का निर्णय लिया।


मुजफ्फरपुर बम कांड -30 अप्रैल 1908 की शाम को प्रफुल्लचंद चाकी और खुदीराम बोस ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंका। दुर्भाग्यवश, उस बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं बल्कि दो अंग्रेज महिलाएं (मिसेज और मिस केनेडी) सवार थीं, जो उसी तरह की बग्घी में सवार थीं। दोनों महिलाओं की मृत्यु हो गई। यह घटना क्रांतिकारियों के लिए दुखद थी क्योंकि उनका उद्देश्य निर्दोष लोगों को मारना नहीं था। फिर भी, इस घटना ने ब्रिटिश सरकार को हिला दिया और उन्हें एहसास करा दिया कि भारतीय युवा अब चुप बैठने वाले नहीं हैं।


गिरफ्तारी का प्रयास और शहादत-घटना के बाद प्रफुल्लचंद और खुदीराम अलग-अलग दिशाओं में भाग निकले। खुदीराम को जल्द ही पकड़ लिया गया, लेकिन प्रफुल्लचंद कई दिनों तक पुलिस से बचते रहे। 1 मई 1908 को मोकामा घाट रेलवे स्टेशन (बिहार) के पास पुलिस ने प्रफुल्लचंद को घेर लिया। जब उन्हें लगा कि अब गिरफ्तारी निश्चित है, तो उन्होंने अंग्रेजों के हाथों जिंदा पकड़े जाने के बजाय स्वयं को गोली मार ली। मात्र 19 वर्ष की आयु में प्रफुल्लचंद चाकी ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उनकी यह निर्भीकता और देशभक्ति आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।


व्यक्तित्व और विचारधारा -प्रफुल्लचंद चाकी अत्यंत साहसी, निर्भीक और दृढ़ संकल्प वाले युवा थे। वे मानते थे कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए हिंसक क्रांति आवश्यक है। उनका मानना था कि अंग्रेज केवल बल की भाषा समझते हैं। गरीबी में पले-बढ़े होने के बावजूद उनमें अदम्य साहस और देशप्रेम था। वे स्वामी विवेकानंद और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के लेखन से गहराई से प्रभावित थे।


विरासत और प्रभाव - प्रफुल्लचंद चाकी की शहादत ने भारत के युवाओं में एक नई चेतना जगाई। उनकी और खुदीराम बोस की वीरता की कहानियां घर-घर में सुनाई जाने लगीं। बंगाल में तो वे लोकगीतों का विषय बन गए।मुजफ्फरपुर बम कांड ने यह संदेश दिया कि भारतीय युवा अब अंग्रेजों के अत्याचार सहने को तैयार नहीं हैं। इस घटना ने बाद में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों को प्रेरित किया।


स्मरण और सम्मान-आज भी बंगाल, बिहार और पूरे भारत में प्रफुल्लचंद चाकी को एक महान शहीद के रूप में याद किया जाता है। मोकामा घाट में उनकी स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है। कई स्कूल, कॉलेज और सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। बंगाली साहित्य और सिनेमा में उनकी वीरता की कहानियां बार-बार दोहराई जाती हैं।



प्रफुल्लचंद चाकी का जीवन हमें सिखाता है कि देशभक्ति की कोई उम्र नहीं होती। मात्र 19 वर्ष की आयु में उन्होंने वह साहस दिखाया जो कई परिपक्व लोग नहीं दिखा पाते। उन्होंने यह साबित किया कि स्वतंत्रता की कीमत कितनी भी बड़ी क्यों न हो, उसे चुकाने के लिए सच्चे देशभक्त हमेशा तैयार रहते हैं। उनकी शहादत व्यर्थ नहीं गई। उनके और उन जैसे हजारों क्रांतिकारियों के बलिदान की नींव पर ही आज हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं।प्रफुल्लचंद चाकी की वीरगाथा हमेशा युवाओं को याद दिलाती रहेगी कि देश की स्वतंत्रता और सम्मान से बड़ा कोई मूल्य नहीं है।


"जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"

प्रफुल्लचंद चाकी जैसे शहीदों को शत-शत नमन!



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