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Mumbai (Anshu Jha) 15 अगस्त भारत की स्वतंत्रता का प्रतीक है, वह दिन जब देश ने अंग्रेज़ी हुकूमत की बेड़ियों को तोड़कर आज़ादी की खुली हवा में सांस ली। हम अक्सर इस दिन महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हैं और यह स्वाभाविक भी है, लेकिन इस स्वर्णिम इतिहास में एक ऐसा पन्ना भी है, जो अक्सर अनदेखा रह जाता है...और वह है हमारे आदिवासी नायकों का बलिदान और संघर्ष।


भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में आदिवासियों का योगदान उस समय शुरू हुआ था, जब देश में संगठित आज़ादी आंदोलन की नींव भी नहीं पड़ी थी। जंगलों, पहाड़ों और गाँवों में रहने वाले इन वीरों ने अपने धरती, जंगल और जल की रक्षा के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत से सबसे पहले टक्कर ली। झारखंड और पहले के बिहार क्षेत्र में ऐसे कई वीर आदिवासी हुए, जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। इनमें सबसे प्रमुख नाम हैं भगवान बिरसा मुंडा—जिन्होंने ‘उलगुलान’ (महाविद्रोह) का नेतृत्व करते हुए आदिवासी समाज में जनजागरण फैलाया और अंग्रेज़ों को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर दिया।



इसी धरती ने सिद्धू-कान्हू जैसे वीर भाई दिए, जिन्होंने 1855 के संथाल हूल का नेतृत्व किया। जो कि बिसरा मुंडा जी से भी पहले, बिगुल फूंका । उनके साथ फूलो-झानो बहनों ने भी बंदूक थामकर मोर्चा संभाला और साबित किया कि आदिवासी महिलाएँ भी किसी से कम नहीं। यह विद्रोह इतना प्रचंड था कि अंग्रेज़ी सेना को कई महीनों तक दम साधे रहना पड़ा। तिलका मांझी – 1771 में भागलपुर (अब बिहार-झारखंड क्षेत्र) में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू की। तिलका मांझी को बताया जाता है भारत का पहला  स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता है, जिन्होंने 1771 में ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हथियार उठा लिए थे, यानी यह 1857 से लगभग 86 साल पहले की बात है।



लेकिन दुर्भाग्य से, स्वतंत्रता के बाद जब इतिहास लिखा गया, तो इन आदिवासी नायकों का नाम इतिहास की मुख्यधारा में उतनी जगह नहीं पा सका, जितना मिलना चाहिए था। उनकी कहानियाँ लोकगीतों, जनश्रुतियों और गाँवों की मिट्टी में तो जिंदा रहीं, लेकिन बड़े इतिहास के पन्नों में अक्सर दबकर रह गईं। 15 अगस्त के अवसर पर, हमें न सिर्फ़ अपने राष्ट्रीय नायकों को याद करना चाहिए, बल्कि उन भूले-बिसरे आदिवासी वीरों के बलिदान को भी नमन करना चाहिए, जिन्होंने बिना किसी प्रसिद्धि या राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा के, केवल अपनी धरती, अपने लोगों और अपने आत्मसम्मान के लिए प्राण न्यौछावर कर दिए।



इस आज़ादी के पर्व पर आइए संकल्प लें—कि हम बाबा तिलका माँझी, बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू, फूलो-झानो और ऐसे अनगिनत आदिवासी वीरों के इतिहास को नई पीढ़ी तक पहुँचाएँगे, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि भारत की आज़ादी की गाथा सिर्फ़ दिल्ली या कोलकाता की गलियों में नहीं, बल्कि बिहार - झारखंड के जंगलों और पहाड़ियों में भी लिखी गई थी। 



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